अष्टम दिवस
उत्तम त्याग
जो मनुष्य सम्पूर्ण पर द्रव्यों से मोह छोड़कर संसार , देह और भोगों से उदासीन रूप परिणाम रखता है उसके उत्तम त्याग धर्म होता है ।
सच्चा त्याग तब होता है जब मनुष्य पर द्रव्यों के प्रति होने वाले मोह , राग ,द्वेष को छोड़ देता है ।
शास्त्रों में प्रेरणा के लिए व्यवहार से दान को ही त्याग कहा गया है । किन्तु त्याग और दान में सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण अंतर यह है कि त्याग हमेशा बुराई का किया जाता है और दान हमेशा उत्कृष्ट पदार्थ का किया जाता है ।
राग ,द्वेष, मिथ्यात्व और अज्ञान का त्याग तो हो सकता है , दान नहीं ।
इसी प्रकार ज्ञान का दान हो सकता है , त्याग नहीं ।
दान हमेशा स्व और पर के उपकार के लिए किया जाता है ।
पैसे का त्याग पूर्वक दान होता है । अगर हम उसे त्यजेंगे नहीं तो देगें कैसे ?
वर्तमान में धर्म के क्षेत्र में भी धन का महत्व ज्यादा है इसलिए त्याग धर्म को दान धर्म के रूप में ही समझा और समझाया जाता है ।
जैन शास्त्रों में भी दान के चार प्रकार ही वर्णित हैं -
१. आहार दान
२. औषधि दान
३. ज्ञान दान
४. अभय दान
इसमें भी धन दान का कहीं कोई जिक्र नहीं है किन्तु उक्त में से तीन की व्यवस्था धन के माध्यम से ही होती है अतः आज धन का दान ही दान समझा जाने लगा है ।
धन के दान में सबसे बड़ी समस्या उसके दुरुपयोग की है । जैसे किसी भूखे ने भोजन मांगा तो हमने उसे भोजन के स्थान पर कुछ रुपयों का दान कर दिया । उन रुपयों से यदि उसने शराब मांस आदि का सेवन कर लिया तो दोष दाता को भी लगेगा । इसलिए पात्र व्यक्ति को उपकरण ,भोजन आदि का साक्षात् दान देना श्रेष्ठ है । यदि कोई इलाज के लिए पैसे मांगे तो खुद दवाई खरीद कर देना और उसका इलाज कराना श्रेष्ठ है ।
सच्चे मोक्षमार्गी को जो दान दिया जाता है वह मोक्ष का कारण बनता है ।
आज दान के नए रूपों की भी आवश्यकता है जैसे श्रम दान , समय दान आदि । आज लोग धार्मिक कार्य के लिए पैसा जितना चाहे देने को तैयार हैं किन्तु समय और श्रम देना बहुत मुश्किल हो रहा है । इसलिए भलाई के काम में जो धन नहीं दे पा रहा है किन्तु समय दे रहा है और ईमानदारी से श्रम कर रहा है वह भी उस पुण्य का उतना ही हकदार है जितना धन देने वाला ।
जगत में धन की तीन ही गतियां मानी गईं हैं - दान , भोग और नाश । यदि आपने मेहनत और ईमानदारी से कमाए धन का दान या भोग नहीं किया तो अंत में उसका नाश ही होता है ।
भ्रष्टाचार , बेईमानी और पाप से संचित धन को यदि धर्म के कार्य में लगाया जाता है तो उसके भी दुष्परिणाम धर्म की हानि के रूप में हम साक्षात् देखते हैं ।
इसलिए जैन शास्त्रों में साधन शुद्धि पर बहुत बल दिया गया । साधन शुद्ध होंगे तो साध्य भी शुद्ध होंगे ।
दान करने की भावना नहीं होना भी बहुत आसक्ति का सूचक है । दान करने वाला सर्वप्रथम उक्त पदार्थ या धन के प्रति आसक्ति का त्याग करता है । इसलिए आम जन को समझाने के लिए त्याग को दान कह दिया जाता है । इस प्रकरण में कारण में कार्य का उपचार करके कथन किया गया है ।
हमें स्वयं तो दान देना ही चाहिए अपने बच्चों को भी धर्म स्थल के गुल्लकों में रोज कुछ दान करने का अभ्यास करवाना चाहिए । उनके यह संस्कार उनके धर्म की वृद्धि में सहायक बनेंगे ।
गृहस्थ के छह आवश्यक कार्यों में दान प्रतिदिन का कर्तव्य कहा गया है । अतः यथा शक्ति बिना किसी विज्ञापन की लालसा के मेहनत और ईमानदारी का धन आदि उचित पदार्थ थोड़ा बहुत भी जो मनुष्य पात्र जीव को दान करता है वह इस लोक में भी यश प्राप्त करता है और उसका पर लोक भी उत्कृष्ट बनता है ।
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