दशलक्षण धर्म : एक झलक
पंचम दिवस
उत्तम सत्य
उत्तम सत्य धर्म का वास्तविक अर्थ होता है वीतराग भाव । सत्य व्रत और सत्य धर्म में सबसे बड़ा फर्क यह है कि सत्य व्रत का संबंध वचनों तक सीमित है और सत्य धर्म सिर्फ वचनों तक सीमित नहीं है । अपने शुद्ध ज्ञान और आनंद आत्म स्वरूप की अनुभूति ही उत्तम सत्य धर्म है जो वाणी वचन आदि इन्द्रिय और पुद्गल से परे अतीन्द्रिय स्वरूप है ।
इस उत्तम सत्य धर्म की उपलब्धि उत्कृष्ट साधना करने वाले महा तपस्वी मुनिराजों को ही हो पाती है अतः हम उत्तम सत्य धर्म को वचनों की सत्यता के माध्यम से व्याख्यायित करते हैं ।
आज सत्य धर्म को स्वीकारने और उसे आदर देना भी सीखना चाहिए । विचारणीय है कि अनेक ऋषि मुनि और महापुरूषों ने परम सत्य की प्राप्ति के लिए घर संसार को छोड़ कर जंगलों में तपस्या की तो क्या ' झूठ नहीं बोलकर सत्य बोलना चाहिए ' मात्र इतने लक्ष्य के लिए की थी क्या ?
सत्य बोलना यह सत्य महाव्रत या अणुव्रत है किन्तु परम सत्य स्वरूप अपनी आत्मा के वास्तविक स्वरूप की अनुभूति करना यह उत्तम सत्य धर्म है ।
व्यवहार से भी हम देखें तो जो मनुष्य मौन व्रत मात्र ले ले तो क्या वह उत्तम सत्य धर्म का धारी हो जाएगा ? क्यों कि जब वह बोल ही नहीं रहा तो झूठ और सत्य का भेद भी कहां रहा ?
इसलिए हमें उत्तम सत्य धर्म को वाणी की सत्यता से परे जाकर अवश्य सोचना चाहिए ताकि हम इसका सही स्वरूप समझ सकें ।
फिर भी वाणी की सत्यता भी एक किस्म का सत्य तो है ही ।
आज वास्तविकता यह है कि वस्तु के सत्य स्वरूप को हम स्वीकारते ही नहीं है । हम भ्रम में जीना पसंद करते हैं । उसमें रहने के इतने आदि हो गए हैं कि यथार्थ तत्व से सामना भी नहीं करना चाहते ।
जैन दर्शन ने एक सबसे बड़े सत्य का दर्शन यह करवाया कि जीव अपने सुख दुख का कर्ता भोक्ता स्वयं है कोई और ईश्वर इस कार्य को नहीं करता है ।
किन्तु इस वास्तविक तथ्य से अनजान हम किसी चमत्कार की आशा में इन्हीं वीतराग स्वरूप परमात्मा की भोगों की लालसा के निमित्त भक्ति करते हैं ।
अपने आत्मकल्याण का पुरुषार्थ छोड़कर मिथ्या देव, शास्त्र और गुरु के चक्कर में पड़कर अपना मनुष्य भव खराब करते हैं ।
सबसे बड़ा सत्य यह है कि हम सत्य का सामना ही नहीं करना चाहते हैं । अपने पुराने मिथ्या भ्रमों को बरकरार रख कर चमत्कार को नमस्कार किए जा रहे हैं । मिथ्या मान्यताओं के नए नए रिकॉर्ड बना रहे हैं । सत्य धर्म का उद्घाटन करने वाले धर्म को भी अनेक क्रिया कांडों में उलझा कर उसके स्वरूप पर पर्दा डाल दिया है ।
उत्तम सत्य धर्म समझने की सबसे पहली शर्त यह है कि वह हमें स्वीकार तो हो , उसकी वास्तविकता का सामना करने का हमारे पास साहस तो हो । यह योग्यता हो तो हम उसे एक दिन प्राप्त भी कर सकते हैं ।
हम चाहें तो अपने जीवन में ग्रहण किए गए विपरीत अभिनिवेश अर्थात् गृहीत मिथ्यात्व को दृढ़ता पूर्वक त्याग कर हम भी उत्तम सत्य धर्म की उपासना कर सकते हैं ।
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