दशलक्षण धर्म : एक झलक
सप्तम दिवस
उत्तम तप
इच्छा के निरोध को तप कहते हैं । आध्यात्मिक दृष्टि से समस्त राग और द्वेष के त्याग पूर्वक अपने शुद्ध आत्म स्वभाव में लीन होना उत्तम तप है । व्यावहारिक दृष्टि से अनशन व्रतादि तप हैं ।
जैन दर्शन में तप और तपस्या को बहुत महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है । भोगवादी दृष्टिकोण वाले मनुष्य हमेशा दुखी ही रहते हैं । इसके विपरीत जो जीवन में स्वयं ही तप को अपनाता है उसे कौन दुखी कर सकता है ?
अपनी इच्छाओं को वश में रखना ही सबसे बड़ा तप है । जैन दर्शन कहता है इच्छाएं आज तक कभी भी किसी की पूरी नहीं हुई ।जब तक हम इच्छाओं के दास हैं तब तक पूर्णता को प्राप्त नहीं कर सकते ।
स्वर्ग के देवों के पास तप करने की शक्ति नहीं है , वे चाह कर भी तप को धारण नहीं कर पाते हैं । मनुष्य तप पूर्वक कर्मों के बज्र शिखर भी नष्ट कर देता है ।
स्वाध्याय और ध्यान को उत्कृष्ट तप कहा गया है । ज्ञान और ध्यान के बिना मुक्ति संभव ही नहीं है ।
जैन आचार्यों ने अज्ञानी के तप को बाल तप की संज्ञा दी है । आचार्य कुंदकुंद ने तो यहां तक कहा है कि कोई मनुष्य सम्यक्तव से रहित होकर करोड़ों वर्षों तक भी बहुत उग्र तप करे तो भी वह बोधि को प्राप्त नहीं कर पाता है ।
जिस प्रकार अग्नि में तप कर सोने के सभी दोष नष्ट हो जाते हैं उसी प्रकार तपस्या से आत्मा के सभी कर्मों का नाश हो जाता है और वह अपने शुद्ध स्वरूप का अनुभव करने लगती है ।
जैन दर्शन के अनुसार दूसरों के द्वारा किया गया तप खुद को जरा सा भी लाभ नहीं पहुंचाता है । जिसे कर्मों को नाश करके अतीन्द्रिय आत्म सुख को प्राप्त करना है उसे स्वयं ही तप करना पड़ेगा । उसमें भगवान् भी केवल मार्ग बतलाते हैं , चलना आपको स्वयं ही पड़ेगा ।
जैन संस्कृति को श्रमण संस्कृति इसीलिए कहा गया क्यों कि यहां श्रम अर्थात् पुरुषार्थ अर्थात् स्वयं की गई तपस्या को ही कार्यकारी माना गया है ।
जैन दृष्टि से भगवान् आपको मोक्ष का सिर्फ रास्ता दिखाते हैं आपको मोक्ष दिला नहीं सकते । उसके लिए स्वयं ही उग्र पुरुषार्थ करना पड़ेगा । इसीलिए जैन परंपरा में उपवास आदि का महत्व बहुत ज्यादा है और इसकी विधि भी बहुत शुद्ध , प्रामाणिक और कठिन है ।
डॉ. अनेकांत कुमार जैन , नई दिल्ली
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