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आखिर क्या है जिन शासन ?

जिन शासन क्या है ?  प्रो डॉ अनेकांत कुमार जैन,नई दिल्ली जमल्लीणा जीवा, तरंति संसारसायरमणतं ।  तं सव्वजीवसरणं, गंददु जिणसासणं सुइरं ॥  (मूलाचार 3/8) अर्थ - जिसमें लीन होकर जीव अनन्त संसार-सागर पार कर जाते हैं  तथा जो समस्त जीवों के लिए शरणभूत वह जिनशासन चिरकाल तक समृद्ध रहे । दुनिया में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा जो सुखी न होना चाहता हो | मनुष्य का सारा पुरुषार्थ,उसकी कोशिश,उसकी पूरे जीवन काल की कमर तोड़ मेहनत आखिर किसलिये है ? सुख के लिये ही न,यदि सुख का उद्देश्य न हो तो इतनी मेहनत किसलिए ? यहाँ तक कि इस पुरुषार्थ की यात्रा में आने वाले अनेक दुखों को भी वह सहन करता है ,भोगता है क्यों कि सुख की अभिलाषा है |कहीं यह सुखी होने की अभिलाषा ही मेरे दुखी होने का एक महत्त्वपूर्ण कारण तो नहीं ?  प्रश्न यह है कि हम सुखी क्यों होना चाहते हैं ? और यह 'सुख' जिसे हम चाह रहे हैं उसके वास्तविक स्वरुप का हमें भान भी है ?  दरअसल हम जिस दुनिया में रहते हैं वह भोग प्रधान है और शिक्षा से लेकर विज्ञापनों का एक बहुत बड़ा स्वार्थी व्यापारी दल हमारे सुख की एक बनावटी परिभाषा गड़ता है और यह समझ

जैन मुनि का शौचोपकरण है कमंडलु

शौचोपकरण है कमंडलु जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव ने दिगंबर मुनि चर्या में संयमोपकरण मयूर पिच्छिका की भांति शौचोपकरण कमंडलु को भी अनिवार्य बताया था | एक दृष्टि से ये दिगंबर जैन मुनियों की मूल पहचान या चिन्ह भी माना जाता है |1 आचार्य कुन्दकुन्द (प्रथम शती) ने नियमसार ग्रन्थ में कमंडल शब्द का प्रयोग मुनियों की आदान निक्षेपण समिति के प्रसंग में किया है |2 मूलाचार ग्रन्थ की संस्कृत वृत्ति में इसे ‘कुंडिका’ नाम से कहा गया है |3 आचार्य विद्यानंद(नवमी शती ) ने तुम्बी फल(सामुद्रिक नारियल ) का उल्लेख किया है जिससे पता लगता है कि इसका प्रयोग कमंडल निर्माण में किया जाता था और उसे प्रासुक माना जाता था | 4 वर्तमान में उसे अफ्रीकन नारियल भी कहते हैं |काष्ठ के कमंडल का प्रयोग भी होता रहा है |वर्तमान में फाइवर के कमंडल प्रचलन में हैं |धातु के कमंडल का प्रयोग जैन परंपरा में नहीं होता है | शास्त्रों में इस कमंडल की हर पंद्रह दिन में अन्दर बाहर दोनों तरह से प्रक्षालन का भी निर्देश किया गया है ताकि इसमें सूक्ष्म जीवों की उत्पत्ति न हो |ऐसा न करने पर मुनियों को प्रायश्चित्त लेने

युवा पीढ़ी को धर्म से कैसे जोड़ा जाय ?

  युवा पीढ़ी को धर्म से कैसे जोड़ा जाय ?                                      प्रो अनेकांत कुमार जैन , नई दिल्ली    युवावस्था जीवन की स्वर्णिम अवस्था है , बाल सुलभ चपलता और वृद्धत्व की अक्षमता - इन दो तटों के बीच में युवावस्था वह प्रवाह है , जो कभी तूफ़ान की भांति और कभी सहजता   से बहता रहता है । इस अवस्था में चिन्तन के स्रोत खुल जाते हैं , विवेक जागृत हो जाता है और कर्मशक्ति निखार पा लेती है। जिस देश की तरुण पीढ़ी जितनी सक्षम होती है , वह देश उतना ही सक्षम बन जाता है। जो व्यक्ति या समाज जितना अधिक सक्षम होता है। उस पर उतनी ही अधिक जिम्मेदारियाँ आती हैं। जिम्मेदारियों का निर्वाह वही करता है जो दायित्वनिष्ठ होता है। समाज के भविष्य का समग्र दायित्व युवापीढ़ी पर आने वाला है इसलिए दायित्व - निर्वाह की क्षमता का अर्जन , स्थायित्व और समुचित उपयोग होना अत्यन्त अपेक्षित है और दायित्व निर्वाह से पहले अपेक्षित होता है दायित्व का बोध और दायित्व का बोध संस्कारों स