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शिक्षण शिविरों से जीवन में आती क्रांति

*शिक्षण शिविरों से जीवन में आती क्रांति*

वर्तमान में  यह एक सुखद संयोग है कि विभिन्न संस्थाओं द्वारा हज़ारों की संख्या में जैनधर्म दर्शन तत्त्वज्ञान नैतिक शिक्षा आदि के हज़ारों शिविर ग्रीष्मकाल में लगाये जा रहे हैं । इन शिविरों की उपयोगिता से कोई भी अनभिज्ञ नहीं है । 
ये शिविर आदि क्या क्या कार्य करते हैं आप सोच भी नहीं सकते ।  वर्तमान में मंदिरों में नियमित शास्त्र स्वाध्याय की परंपरा कुछ मंदी पड़ी है ,जहाँ कहीं चल भी रहे हैं वहाँ श्रोताओं की संख्या कम होती जा रही है । 

इसके विपरीत अन्य क्रिया कांड और इनके प्रति आकर्षण बढ़ता जा रहा है । लोग धार्मिक मनोरंजन को धर्म समझने की भूल कर रहे हैं और इसका सबसे बड़ा कारण है अज्ञानता । 

आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने आआआवसीसीन666655    न  में सम्यक्त्व के आठ अंगों में प्रभावना नामक अंग की परिभाषा करते हुए लिखा है कि

*अज्ञानतिमिरव्याप्तिमपाकृत्य यथायथम् ।* *जिनशासनमाहात्म्यप्रकाशः स्यात्प्रभावना ।।* 
                श्लोक18

अज्ञानरूपी अंधकार के विनाश को जिस प्रकार बने उस प्रकार दूर करके जिनमार्ग का समस्त मतावलंबियों में प्रभाव प्रकट करना वह प्रभावना नाम का आठवाँ अंग है ।

कहने का मतलब यह है कि जिस किसी प्रकार भी ऐसे कार्य करना जिससे लोगों का अज्ञान दूर हो वह प्रभावना है । 

*प्रतिष्ठा समारोह से कम नहीं है यह* -

मैं यह मानता हूँ कि तत्त्वज्ञान और नैतिक शिक्षा देने वाला एक छोटा सा शिविर लगाने से वही पुण्य लगता है जैसा कि पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव करने से लगता है । वहाँ अचेतन पत्थर में चेतन भगवान् की स्थापना होती है और यहाँ चेतन में ही चैतन्य प्रभु का उद्घाटन होता है । इसलिए जितना उत्साह और दान आदि हम प्रतिष्ठा महोत्सव के लिए करते हैं उससे कम शिविरों में नहीं होना चाहिए ।

*धर्म तीर्थ का वास्तविक संरक्षण* -

आचार्य समन्तभद्र ने यह भी कहा है कि ' *न धर्मो धर्मिकै: विना*' अर्थात् यदि धार्मिक लोग ही न होंगे तो धर्म कैसे टिकेगा ? 

इसलिए जितना पुरुषार्थ तीर्थ आदि के निर्माण में किया जाता है कम से कम उतना पुरुषार्थ तो इन शिविर आदि के लिए अवश्य किया जाना चाहिए । क्यों कि यहां चेतन तीर्थों का निर्माण होता है । तीर्थ क्षेत्रों पर जाने वाले भी हमें तैयार करने चाहिए तभी तीर्थ निर्माण भी सार्थक होगा । 

*भाषा का प्रशिक्षण* -

इन शिविरों में कान्वेंट में पढ़े बच्चे आते हैं । प्राचीन भजन दोहों के माध्यम से , तत्त्वज्ञान के माध्यम से वे हिंदी भाषा भी सीखते हैं जिससे वे भारत की धर्म संस्कृति और संस्कारों को समझने लायक बन जाते हैं ।

*वर्तमान विकृतियों से बचाव* -

वर्तमान में स्कूलों में जो सिखाया जाता है वह जितना कैरियर निर्माण में सहायक है उतना जीवन निर्माण में नहीं । जीवन उसमें निहित मूल्यों से बनता है और उसके अभाव में अधिकांश शिक्षित विद्यार्थी अपने अध्यापको और माता पिता को सिर्फ अपना कर्मचारी समझते हैं और विनय शिष्टाचार आदि का बोध उनको नहीं हो पाता है । इसलिए इस चीज की कमी प्रायः परिवारों में आ रही है । ये शिविर इस तरह के जीवन मूल्यों की बहुत बड़ी शिक्षा देते हैं जो बच्चों को वर्तमान विकृतियों से बचाते हैं ।

*अधर्मी विवाह और धर्म परिवर्तन से बचाव*

आधुनिकता की दौड़ में आप बच्चों को अपना धर्म नहीं सिखाएंगे तो बड़े होने पर दूसरे अपना धर्म सिखा देंगे । 

केरला स्टोरी फिल्म की वह लड़की जिसकी सत्यकथा पर फिल्म बनी है , से साक्षात्कार लिया गया तो उसने बताया कि मेरे स्कूल कालेज में सहपाठी मेरे धर्म के बारे में मुझसे प्रश्न करते थे और मुझे उसका ज्ञान नहीं था ,फिर उन्होंने मुझे अपने धर्म का ज्ञान देकर वही धर्म कबूल करवा लिया । 

ऐसी अनेक घटनाएं सामने आ रही हैं और इन घटनाओं से यदि बचना है तो पाठशाला और शिविर ही एक उपाय है । क्यों कि आप चाह कर भो घर पर वह शिक्षा नहीं दे पा रहे हैं ।
*मंद बुद्धि में परिवर्तन* - 
प्रायः लोग अपने बच्चों के विकास को लेकर चिन्तित रहते हैं । वह स्कूल में किसी से बात नहीं करता । चुप चुप रहता है । उसकी ग्रोथ अच्छे से नहीं हो पा रही है । वह जो खाता है उसे लगता नहीं है  इत्यादि इत्यादि । इसका समाधान भी तत्त्वज्ञान ही है । शिविर आदि में आप उसे भेज कर देखिए आप उसके जीवन में आश्चर्यकारी परिवर्तन देखेंगे । 
*डिप्रेशन से बचाव*
कोटा जैसे कोचिंग सेंटर वाले शहरों तथा अन्य अनेक स्थानों से इस तरह की खबरें हम प्रायः सुनते हैं कि वर्तमान में छोटे बच्चों से लेकर बड़े किशोर ,युवा तक डिप्रेशन की गिरफ्त में हैं । जिसके कारण या तो वे किसी नशे के आदि हो जाते हैं या आत्महत्या तक कर लेते हैं । 
मेरा यह निश्चित मानना है कि जीवन में आध्यात्मिक शून्यता डिप्रेशन और आत्महत्या का प्रमुख कारण है । बाल मन में अध्यात्म और तत्त्वज्ञान यदि समाहित हो जाता है तो बालक किसी भी परिस्थिति या घटना से अपना मानसिक संतुलन नहीं खोता है । मैंने पाठशाला और शिविर से पढ़े बच्चों में एक अभूतपूर्व उत्साह और जीवन जीने की कला का विकास देखा है । मेरा यह दावा है कि पाठशाला और शिविर में सच्चे मन से पढ़ने वाला बच्चा न कभी डिप्रेशन का शिकार हो सकता है और न कभी आत्महत्या जैसे कदम उठा सकता है ।


और भी बहुत सारे लाभ समाज परिवार और राष्ट्र को इन छोटे बड़े शिविरों के माध्यम से होते हैं अतः इनकी जितनी भी अनुमोदना की जाय वह कम है । हम सभी को कैसे भी करके जितना हो सके उससे ज्यादा योगदान इन पाठशालाओं त्विउर रों को चलाने में देना चहिये ।

प्रो अनेकान्त कुमार जैन ,नई दिल्ली 

टिप्पणियाँ

Rakesh shastri, Tikamgarh ने कहा…
आधुनिक संदर्भ में अति सुंदर प्रासंगिक लेख।

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