जिनालय ही विद्यालय है और जिन वचन परम औषधि
प्रो अनेकांत कुमार जैन,नई दिल्ली
जगत में लौकिक शिक्षा के लिए हम विद्यालय जाते हैं |
मोक्षमार्ग की शिक्षा के लिए हमारे जिनालय ही विद्यालय हैं | जिनालय एक आध्यात्मिक
प्रयोगशाला है | जहाँ समस्त भव्य जीव रत्नत्रय की साधना करते हैं और अपना
मोक्षमार्ग प्रशस्त करते हैं |जिनालय में हम अरहन्त जिनेन्द्र भगवान् का दर्शन
करते हैं | जिनागम में कई स्थलों पर लिखा
है कि जो विवेकी जीव भाव पूर्वक अरहन्त को नमस्कार
करता है वह अति शीघ्र समस्त दुःखों से मुक्त हो जाता है-
‘अरहंतणमोक्कारं भावेण य जो करेदि पयदमदी।
सो सव्वदुक्खमोक्खं
पावदि अचिरेण कालेण।।’ (मू.आ./५०६ )
श्रावकों के छह कर्तव्य बतलाये गए हैं – देवपूजा,गुरु की
उपासना,स्वाध्याय ,संयम ,तप और दान | इसमें भी रयणसार ग्रन्थ में आचार्य
कुन्दकुन्द कहते हैं कि दान और पूजा मुख्य है | जो श्रावक दान नहीं करता और देव
शास्त्र गुरु की पूजा नहीं करता वह श्रावक नहीं है -
‘दाणं पूजा मुक्खं सावयधम्मे ण सावया तेण विणा’ (गाथा ११ )
जैन पूजा पद्धति की सबसे
बड़ी विशेषता यह है कि यहाँ व्यक्ति की पूजा नहीं होती गुणों की पूजा होती है और
पूज्य पुरुष में विद्यमान उन गुणों की अपने भीतर प्राप्ति की पावन भावना से ही
पूजा की जाती है अन्य प्रयोजन से नहीं | तत्त्वार्थसूत्र के मंगलाचरण में आचार्य
उमास्वामी कहते हैं कि जो मोक्षमार्ग के नेता हैं ,कर्म रूपी पर्वतों के भेत्ता
(भेदन करने वाले )हैं ,और विश्व के समस्त तत्त्वों को जानने वाले अर्थात् सर्वज्ञ
हैं , उनके गुणों की प्राप्ति के लिए मैं उनकी वंदना करता हूँ –
मोक्षमार्गस्य
नेत्तारं भेत्तारं कर्मभूभृताम् |
ज्ञातारं
विश्वतत्वानां वन्दे तद्गुणलब्धये ||
जिनेन्द्र भगवान् की पूजा का अच्छा फल भी तभी प्राप्त
होता है जब वह बिना किसी लौकिक कामना के की जाय | अकर्तावाद जैन दर्शन की मूल
अवधारणा है | यहाँ भगवान् को खुश करने के लिए , उनसे अपने लौकिक काम करवाने के लिए
,धन-संपदा की चाह में भक्ति नहीं की जाती है और जो श्रावक ऐसा करता है वह अल्पज्ञ
है तथा जिन धर्म से परिचित नहीं है | जैन दर्शन का स्पष्ट वैज्ञानिक सिद्धांत है
कि कोई भी ईश्वर जगत का कर्त्ता धर्त्ता नहीं है , कोई किसी को कुछ ले-दे नहीं
सकता,कोई आपका न कुछ बिगाड़ सकता है और न ही बना सकता है | किसी भी भय या आशा से
यदि भक्ति की जाय तो वह सच्ची भक्ति नहीं होती है | अतः भगवान् के गुणों की आराधना
ही व्यवहार से सच्ची भक्ति है –
अर्हदादिगुणानुरागो
भक्तिः ।(भावपाहुड टीका, ७७)
ऐसा कहा गया है कि गृहस्थों
के लिए जिनपूजा प्रधान धर्म है । यद्यपि इसमें जल, गंध, पुष्पादि के माध्यम से
पंचपरमेष्ठी की प्रतिमाओं का ही आश्रय लिया जाता है, पर वहाँ भी भाव ही प्रधान
होते हैं, जिनके कारण पूजक को
असंख्यात गुणी कर्म निर्जरा होती है। वास्तव में जल, गंधादि चढ़ाना धर्म नहीं है
वरन् चढ़ाते समय जो आनंद आता है वह धर्म है । कहा भी है—
‘पुष्पादि: रतवनादिर्वा नैव
धर्मस्य साधनम् ।
भावो ही धर्महेतु: स्यात्तदत्र प्रयतो
भवेत् ।।
अर्थात् केवल जल, गंध, अक्षत, पुष्प, चरू, द्वीप, धूप और फल तथा जप, स्तवन, भजन, शब्दात्मक गुणकीर्तन आदि
आलंबन है, स्वयं धर्म नहीं। वस्तुत:
शुद्ध भाव ही धर्म का हेतु है। इसलिए शुद्ध भाव के विषय में ही प्रयत्नवान् होना
चाहिये।
ये सभी बातें तब अच्छे से
समझ में आयेंगी जब हम जिनालय में पूजा अभिषेक के साथ साथ स्वाध्याय भी करेंगे |
क्यों कि जिनवाणी का स्वाध्याय भी जिनेन्द्र भगवान् की ही भक्ति है –
ये यजन्ते श्रुतं भक्त्या, ते यजन्तेऽञ्जसा जिनम् ।
न किंचिदन्तरं प्राहुराप्ता
हि श्रुतदेवयोः।।
(सागारधर्मामृत २/४४)
अर्थात् जो पुरुष भक्ति से जिनवाणी को सुनते हैं,
पूजते हैं, वे पुरुष वास्तव में जिन भगवान् को ही पूजते हैं, क्योंकि सर्वज्ञदेव जिनवाणी
और जिनेन्द्रदेव में कुछ भी अन्तर नहीं करते हैं।
आचार्य कुन्दकुन्द ने दर्शनपाहुड(गाथा १७)
में कहा है—
जिणं वयण मोसहमिणं, विसय सुहविरेयणं अमिदभूदं ।
जर—मरण—वाहि—हरणं, खयकरणं सव्वदुक्खाणं ।।
अर्थात् सर्वज्ञ जिनेश्वर की दिव्यवाणी
औषधिरूप है, वह विषयसुखों का परित्याग
कराती है, वह अमृतमय—मरणरहित अवस्था को प्रदान
कराती है, अमृत सदृश मधुर भी है, वह जन्म मरण तथा व्याधि का
विनाश करती है। जिनवाणी के द्वारा सर्वदु:खों का क्षय होता है।
आज हमारे साथ विडम्बना यह
है कि जिनालय में हम भगवान् को सिर्फ सुनाने जाते हैं ,उनकी सुनने नहीं जाते | हम
जिनेन्द्र देव को मानते हैं लेकिन जिनेन्द्र देव की नहीं मानते |उनकी मानेंगे तब
जब उन्हें सुनेंगे भी | जिनालय विद्यालय तब बनता है जब हम वहां कुछ पढ़ते हैं ,
सुनते हैं और सीखते हैं | यदि हमने जिनालय में कुछ पढ़ा-सुना नहीं तो हम भी उस बालक
जैसे ही हैं जो विद्यालय में सिर्फ प्रार्थना करके घर वापस आ जाता है ,कक्षा में
नहीं जाता ,अध्यापक की नहीं सुनता | ऐसे विद्यार्थी की उपस्थिति भी नहीं मानी जाती
है और वे उत्तीर्ण भी नहीं हो पाते हैं |हमें यदि जिनालय रुपी विद्यालय में
उत्तीर्ण होकर मोक्ष की कक्षा उत्तीर्ण करनी है तो हमें पूजा ,अभिषेक आदि के साथ
साथ जिनेन्द्र भगवान् के उपदेशों को पढ़ना-सुनना-सीखना होगा तथा उसे अपने जीवन में
भी उतारना होगा |
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