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मार्च, 2022 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

महाकवि पूज्य आचार्य विद्यासागर जी की हाइकू का साहित्यिक आध्यात्मिक सौंदर्य

*महाकवि पूज्य आचार्य विद्यासागर जी की हाइकू का साहित्यिक आध्यात्मिक सौंदर्य* प्रो डॉ अनेकान्त कुमार जैन,नई दिल्ली  drakjain2016@gmail.com हाईकू मूलरूप से जापान की कविता है। "हाईकू का जन्म जापानी संस्कृति की परम्परा, जापानी जनमानस और सौन्दर्य चेतना में हुआ और वहीं पला है। हाईकू में अनेक विचार-धाराएँ मिलती हैं- जैसे बौद्ध-धर्म (आदि रूप, उसका चीनी और जापानी परिवर्तित रूप, विशेष रूप से जेन सम्प्रदाय) चीनी दर्शन और प्राच्य-संस्कृति। यह भी कहा जा सकता है कि एक "हाईकू" में इन सब विचार-धाराओं की झाँकी मिल जाती है या "हाईकू" इन सबका दर्पण है।"हाईकू को काव्य विधा के रूप में बाशो (१६४४-१६९४) ने प्रतिष्ठा प्रदान की। हाईकू मात्सुओ बाशो के हाथों सँबरकर १७ वीं शताब्दी में जीवन के दर्शन से जुड़ कर जापानी कविता की युगधारा के रूप में प्रस्फुटित हुआ। आज हाईकू जापानी साहित्य की सीमाओं को लाँघकर विश्व साहित्य की निधि बन चुका है।1 हाइकू मात्र सत्रह मात्राओं में लिखी जाने वाली कविता है और अब तक की सबसे सूक्ष्म काव्य है और साथ ही सारगर्भित भी | हाइकू की लोकप्रियता व सारगर्भिता का

पिताजी और पर्यावरण

*माता पिताजी का पर्यावरण बोध* प्रो अनेकान्त कुमार जैन, नई दिल्ली बचपन की मधुर स्मृतियां हम सभी को बार बार याद आती हैं साथ ही याद आती हैं उन दिनों पिताजी द्वारा प्रदत्त पर्यावरण संबंधी शिक्षाएं । ये भरकस उस दिन ज्यादा याद आया जब मैं अपनी बेटी को उसकी कक्षा 6 की पर्यावरण अध्ययन संबंधी किताब पढ़ा रहा था । उसने अनायास ही पूछा - पापा जी ,क्या ये कोर्स आपके पाठ्यक्रम में भी था ,जब आप कक्षा 6 में थे । तब मुझे लगा कि हमारे समय में इस तरह का पाठ्यक्रम नहीं होता था । तब यह भी याद आया कि माता पिता की बात बात पर प्रायोगिक शिक्षाओं में वे पर्यावरण संबंधी बोध कैसे कराते थे ।   हम लोग बनारस की रवीन्द्रपुरी कॉलोनी में रहते थे और हमारे स्कूल 10 बजे से होने से पिताजी माता जी हमारी उंगली पकड़कर भदैनी स्थित श्री सुपार्श्वनाथ जैन मंदिर प्रातःकाल ही ले जाते थे ।  रास्ते में गलियों में कुछ सार्वजनिक सरकारी नल लगे होते और लोग उन नलों का प्रयोग करके उन्हें खुला ही छोड़ देते । पिताजी को यह बिल्कुल सहन नहीं था ,वे उन नलों को बंद करते जाते । साथ ही हमें भेज कर हमसे बंद करवाते । एक दिन मैंने उनसे पूछा कि

कुंडलपुर के तीर्थंकर आदिनाथ या बड़े बाबा : एक पुनर्विचार

*कुंडलपुर के तीर्थंकर आदिनाथ या बड़े बाबा : एक पुनर्विचार* प्रो अनेकान्त कुमार जैन,नई दिल्ली drakjain2016@gmail.com मैं कभी कभी आचार्य समन्तभद्र के शब्द चयन पर विचार करता हूँ और आनंदित होता हूँ कि वे कितनी दूरदर्शिता से अपने साहित्य में उत्कृष्ट से उत्कृष्ट शब्द चयन पर ध्यान देते थे । एक दिन मैं अपने विद्यार्थियों को उनकी कृति रत्नकरंड श्रावकाचार पढ़ा रहा था । श्लोक था -  श्रद्धानं परमार्थानामाप्तागमतपोभृताम् । त्रिमूढापोढमष्टांङ्गं सम्यग्दर्शनमस्मयम् ॥ इसकी व्याख्या के समय एक छात्रा ने पूछा कि गुरुजी ! देव ,शास्त्र और गुरु शब्द संस्कृत का भी है , प्रसिद्ध भी है ,उचित भी है फिर आचार्य ने उसके स्थान पर आप्त,आगम और तपस्वी शब्द का ही प्रयोग क्यों किया ? जब  कि अन्य अनेक ग्रंथों में ,पूजा पाठादि में देव शास्त्र गुरु शब्द ही प्रयोग करते हैं । प्रश्न ज़ोरदार था । उसका एक उत्तर तो यह था कि आचार्य साहित्य वैभव के लिए भिन्न भिन्न पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग करते हैं जैसे उन्होंने अकेले सम्यग्दर्शन के लिए भी अलग अलग श्लोकों में अलग अलग शब्द प्रयोग किये हैं ।  लेकिन हमें गहराई से