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पिताजी और पर्यावरण

*माता पिताजी का पर्यावरण बोध*

प्रो अनेकान्त कुमार जैन, नई दिल्ली

बचपन की मधुर स्मृतियां हम सभी को बार बार याद आती हैं साथ ही याद आती हैं उन दिनों पिताजी द्वारा प्रदत्त पर्यावरण संबंधी शिक्षाएं । ये भरकस उस दिन ज्यादा याद आया जब मैं अपनी बेटी को उसकी कक्षा 6 की पर्यावरण अध्ययन संबंधी किताब पढ़ा रहा था । उसने अनायास ही पूछा - पापा जी ,क्या ये कोर्स आपके पाठ्यक्रम में भी था ,जब आप कक्षा 6 में थे । तब मुझे लगा कि हमारे समय में इस तरह का पाठ्यक्रम नहीं होता था । तब यह भी याद आया कि माता पिता की बात बात पर प्रायोगिक शिक्षाओं में वे पर्यावरण संबंधी बोध कैसे कराते थे ।  

हम लोग बनारस की रवीन्द्रपुरी कॉलोनी में रहते थे और हमारे स्कूल 10 बजे से होने से पिताजी माता जी हमारी उंगली पकड़कर भदैनी स्थित श्री सुपार्श्वनाथ जैन मंदिर प्रातःकाल ही ले जाते थे । 

रास्ते में गलियों में कुछ सार्वजनिक सरकारी नल लगे होते और लोग उन नलों का प्रयोग करके उन्हें खुला ही छोड़ देते । पिताजी को यह बिल्कुल सहन नहीं था ,वे उन नलों को बंद करते जाते । साथ ही हमें भेज कर हमसे बंद करवाते । एक दिन मैंने उनसे पूछा कि यह नल हमने तो खोला नहीं ,फिर आप इन्हें क्यों बंद करते फिरते हैं ?
वे बड़े ही शांत भाव से समझाते कि लोग नहीं समझते हैं कि जल की कितनी कीमत है ,लेकिन हम तो समझते हैं । आप इस तरह कहाँ कहाँ तक नल बंद करेंगे ? हमारे सहज प्रश्न पर वे अक्सर कहते - हम रास्ते से पैदल जा रहे हैं ,नल बंद करने में हमारा क्या लगता है ? कम से कम उतना पानी तो व्यर्थ नहीं जाता और जैन दर्शन के अनुसार जल में जलकायिक जीव होते हैं ,उनकी व्यर्थ विराधना होने से भी बचती है । हमें अपनी आवश्यकता के अनुसार ही चीजों का उपयोग करना चाहिए । 
वो दिन थे और आज का दिन है मुझे आज भी कहीं नल खुले दिखते हैं तो मेरे हाथ अबुद्धिपूर्वक उन्हें बंद करने के लिए सहसा ही उठ जाते हैं ।

उसी तरह शाम के भोजन के उपरांत माता पिताजी पास स्थित आनंद पार्क हमें खेलने के लिए लगभग रोज ही ले जाते थे । वहाँ हम घास पर दौड़ें तो कहते थे कि सीमेंट की पट्टी जो चलने के लिए बनी है उस पर दौड़ो । पूछने पर कहते कि शाम को घास पर अनेक जीव आ जाते हैं ,हमारे दौड़ने से उनकी विराधना होती है और घास पर दौड़ने से उसका विकास रुक जाता है और कभी कभी वह खत्म भी हो जाती है । 
हम सहसा रुक जाते और पट्टियों पर ही दौड़ते । 
कभी घास पर बैठ जाओ तो बातचीत करते करते हमारी उंगलियों से घास उखाड़ने की आदत,पास के पौधों की व्यर्थ ही पत्तियां या टहनियां तोड़ने की आदत - वे टोक टोक कर छुड़ाते ही रहे । उसी समय माँ समझतीं कि बेटा , यह अनर्थदंड है ,पौधों में भी जीवन होता है ,उन्हें भी कष्ट होता है ।हम ऐसा करके व्यर्थ ही हिंसा करते हैं और अपनी आदत सुधारकर इस व्यर्थ हिंसा से बच सकते हैं । हम कभी कभी बहुत झुंझला भी जाते थे । लेकिन वे बड़े प्यार से समझाते कि पेड़ पौधे जल आदि यह सब हमारा जीवन हैं ,इनका हम उतना ही उपयोग करें जितनी हमें जरूरत है ,व्यर्थ में पाप करने से क्या फायदा ? 

रास्ते में बिना नीचे देखें चलें और नीचे चींटियों का झुंड पैरों तले आ जाये तो एक झापड़ भी उपहार स्वरूप मिल जाता था ताकि याद रहे कि सामने देखते हुए चलना चाहिए और कोई टकराने की वस्तु या जीव जंतु दिखें तो बचकर दूर से निकलना चाहिए ताकि कोई अपनी और उनकी हानि न हो । 

पूछने पर समझाते कि बेटा इनको भी हमारी ही तरह जीने का अधिकार है ,ये कमजोर हैं इसका मतलब यह नहीं कि हम इन्हें रौंदते हुए निकल जाएं । 

ऊर्जा संरक्षण के भाव उनमें आज भी कूट कूट कर भरे हुए हैं । सामान्य गर्मी पर पंखा चलाने की अनुमति आज भी नहीं है । हमेशा कहते कि थोड़ा सहन करना भी सीखो । शरीर को बहुत सुखमय मत बनाओ ,कमजोर हो जाएगा । 
दिन के समय घर में बल्ब जलाने की अनुमति नहीं थी ,कहते कि जब दिन है तो खिड़की खोल लो ,सूर्य का प्रकाश अंदर आने दो । 
हमें अक्सर लगता कि ये बिजली का बिल बचाने के लिए ऐसा कहते हैं । किन्तु वे अक्सर कहते थे कि ऊर्जा की अत्यधिक खपत पर्यावरण के लिए भी ठीक नहीं है । यदि हमारे पास बिल भरने के लिए पैसा है भी तो भी ऊर्जा का भंडार तो सीमित ही है न ,अतः उसका अनावश्यक प्रयोग नहीं करना चाहिए । 

ये सावधानियां आज भी जेहन में बसी हुई हैं । जितना हो सके उसका पालन करने का भी प्रयास अपने आप होता रहता है । 

अब इस तरह का प्रायोगिक पर्यावरण बोध क्या हमें किताबों से सीखने को मिलेगा ? नई शिक्षा नीति में इस बात पर भी विचार होना चाहिए । 

इस तरह के हज़ारों अनेक प्रसंग हैं जिन्होंने हमें वो सब कुछ सिखाया जिन्हें किताबें नहीं सिखा पाती हैं ।

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