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स्त्री सशक्तिकरण के मायने

*स्त्री सशक्तिकरण के असली मायने* प्रो अनेकांत कुमार जैन,नई दिल्ली  पल्लू-घूंघट- चुन्नी नहीं ओढ़ने पर आपको टोकने वाले कौन लोग हैं ? इसी तरह अमर्यादित खुले वस्त्र जिनसे आपके अंग प्रत्यंग उभरकर सामने आते हैं - नहीं पहनने के लिए कहने वाले आपके वे अपने ही हैं ,जो आपके हितैषी हैं ,दूसरों का क्या है ? वे तो चाहते ही हैं कि छद्म आधुनिकता के नाम पर आप कम से कम वस्त्रों में ही घूमें ,ताकि उन्हें सबकुछ देखने को मिले ।  हमें अपने बाधक ,पिछड़े और बुरे लगते हैं और पराये आधुनिक ,विकसित और सम्मोहक लगते हैं । हमें बचाने वाले अब खटकने लगे हैं और लूटने वाले भाने लगे हैं ।  आज जब स्त्री स्वतंत्र हुई है तो उसका निर्लज्ज वस्त्र विन्यास,अश्लील फेसबुक रील,उच्छृंखल आचरण और स्वच्छंद ,असंयमित बात व्यवहार देखकर समझ आता है कि पुराना समाज इन्हें क्यों घरों में पर्दे में रखने का पक्षधर था ? समाज इन दिनों भयंकर रूप से खोखलेपन के साथ खुलेपन का शिकार है ।  आश्चर्य यह है कि इसे आधुनिकता और विकास वाद समझा और कहा जा रहा है ।  स्कूलों ने भी कन्याओं के चुन्नी आदि अंग वस्त्र अपने ड्रेस कोड से हटा लिए हैं ।समाज में

संस्कृत पढ़ी पुलिस के संस्कार

संस्कृत पढ़ी पुलिस के संस्कार  अभी हावड़ा में RPF की एक बंगाली युवा महिला पुलिस मिठू को जब यह पता चलता है कि मैं लाल बहादुर संस्कृत विद्यापीठ , दिल्ली में पढ़ाता हूँ तो वह श्रद्धा से स्वयं मेरा सूटकेस उठा लेती है ,और ट्रेन लेट होने के कारण पुलिस बूथ पर एक कुर्सी लगा कर बैठाती है ,थोड़ी देर में स्वयं एक गर्म चाय लेकर देती है , पहले से न कोई जान न पहचान ,,,,,,,,,,,,पूछने पर बोली गुरु जी मैं सीताराम वैदिक आदर्श संस्कृत महाविद्यालय ,कोलकाता की छात्रा रही हूँ । मैंने बौद्ध दर्शन से आचार्य किया है ,मेरे गुरु जी ने बताया कि आप जैनदर्शन पढ़ाते हैं ,आप भी मेरे गुरु जी ही हुए न !  फिर गाडी का समय होने पर मुझे ससम्मान A1 कोच तक सामान सहित बैटरी रिक्शे से भिजवाया ।बहुत विनम्र और मृदुभासी उस सांवली बंगाली कांस्टेबल ने कहा गुरु जी मैं जैनदर्शन जानना चाहती हूँ किन्तु अब नौकरी के कारण  पढ़ने का समय नहीं मिलता ।मैंने उसे अपनी एक किताब देकर गौरव का अनुभव किया और सोचने लगा कि संस्कृत पढ़कर पुलिस बनने पर पुलिस भी संस्कारी और सेवा भावी कितनी आसानी से बन सकती है । अन्य सभी महिला पुलिस की अपेक्षा वह अपने अधिक सहयोग

महामनीषी : पंडित कैलाश चंद शास्त्री जी

*भारतीय विद्याओं के प्रकांड मनीषी काशी के पंडित कैलाश चंद शास्त्री जन्म जयंती* शत शत नमन  कार्तिक शुक्ला द्वादशी सन्  1903 (वि. 1960) को जन्मे पंडित कैलाश चंद जी शास्त्री जो मेरे पिताजी सहित वर्तमान के अनेक वरिष्ठ विद्वानों के गुरु हैं ,आज उनकी जन्म जयंती है।  स्याद्वाद महाविद्यालय ,काशी के प्राचार्य पद को सुशोभित करने वाले , जैन धर्म और जैन न्याय जैसी सुप्रसिद्ध पुस्तकें लिखने वाले ,धवला ग्रंथ का संपादन करने वाले ,जैन संदेश के यशस्वी संपादक महामनीषी ,सरल और सहज धन के धनी जैनदर्शन के तल स्पर्शी विद्वान्, मेरे पिताजी के साक्षात् गुरु पंडित कैलाश चंद शास्त्री जी जिनका साक्षात् वात्सल्य प्राप्त करने का मुझे सौभाग्य मिला है ,उनकी जन्मजयंती पर उन्हें कोटिशः प्रणाम ।  आज के दिन नए विद्वानों को उनका अभिनंदन ग्रंथ और उनका लेख मेरा जीवन अवश्य पढ़ना चाहिए ।  प्रो अनेकांत कुमार जैन ,नई।दिल्ली

केरल के जैन मंदिर

आप को जानकर हैरानी होगी कि केरल राज्य में 30 से ज्यादा पुरातन जैन मन्दिर है। वर्तमान में 2011 की जनगणना के अनुसार लगभग 4489 जैन रहते हैं। जिनमे लगभग 3000 जैन दिगम्बर समाज से  स्थानीय हैं । यहाँ पर पाये जाने वाले जैन मन्दिर ईसा पूर्व 2 शताब्दी से लेकर 12 शताब्दी तक के है। वर्तमान में इन मन्दिरो का रखरखाव भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) एवं कुछ नवगठित स्थानीय ट्रस्ट मंडल करते हैं। बहुत से मन्दिर भगनावस्था में है। उनकी चिंता न जैन समाज करता और ना ही भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) । केरल के वेनाड एवं एरनाकुलम जिले में 1500 से ज्यादा जैन रहते है। बाकी सभी जिलों में सौ से कम है।  बहुत सी जगह जैनों कि बस्ती न होने के कारण जैन मंदिरों के निकट रहने वाले लोगो ने उन्हें वैदिक देवी देवताओं के नाम से पहचान कर नित्य पूजा-पाठ वैदिक रीति से करते हैं। बहुत से पुरातत्व मंदिरों को जमींदरोज कर दिया गया है अथवा विभिन्न धार्मिक स्थलों में परिवर्तित कर दिया गया हैं। मेरा भारतवर्ष के श्वेताम्बर एवं दिगम्बर समाज से निवेदन है कि जब हमारे तीर्थंकर एक हैं तो हम क्यों श्वेताम्बर एवं दिगम्बर के नाम से

दिगम्बर के दर्शन से विकार भागता है न कि उत्पन्न होता है

“दिगंबर गोमटेश के दर्शन से विकार भागता है ना कि उत्पन्न होता है” डॉ अनेकांत कुमार जैन,नई दिल्ली    दिगंबर जैन सम्प्रदाय के परम आराध्य जिनेन्द्र देव या तीर्थंकरों की खड्गासन मुद्रा में निर्वस्त्र और नग्न प्रतिमाओं को लेकर खासे संवाद होते रहते हैं | नग्नता को अश्लीलता के परिप्रेक्ष्य में भी देखकर पीके जैसी फिल्मों में इसे मनोविनोद के केंद्र भी बनाने जैसे प्रयास होते रहते हैं | दिगंबर जैन मूर्तियों के पीछे जो दर्शन है ,जो अवधारणा है उसे समझे बिना ही अनेक अज्ञानी लोग कुछ भी कथन करने से पीछे नहीं रहते | इस विषय को आज के विकृत समाज को समझाना असंभव नहीं तो कठिन जरूर है | सुप्रसिद्ध जैन मनीषी सिद्धान्ताचार्य पण्डित कैलाशचंद्र शास्त्री जी ने अपनी बहुचर्चित पुस्तक ‘जैनधर्म’ में मूर्तिपूजा के प्रकरण में पृष्ठ ९८ -१०० तक इसकी सुन्दर व्याख्या की है जिसमें उन्होंने सुप्रसिद्ध साहित्यकार काका कालेलकर जी का वह वक्तव्य उद्धृत किया है जो उन्होंने श्रवणबेलगोला स्थित सुप्रसिद्ध भगवान् गोमटेश बाहुबली की विशाल नग्न प्रतिमा को देखकर प्रगट किये थे | वे लिखते हैं - जैन मूर्ति निरावरण और निराभरण होती है जो लोग

प्रकृति एकांतवादी नहीं है

'अच्छा है हमारी तरह प्रकृति एकांतवादी नहीं है' कुछ ,कभी भी ,सब कुछ नहीं हो सकता |प्रकृति संतुलन बैठाती रहती है|वह हमारी तरह भावुक और एकान्तवादी नहीं है |हम भावुकता में बहुत जल्दी जीवन के किसी एक पक्ष को सम्पूर्ण जीवन भले ही घोषित करते फिरें पर ऐसा होता नहीं हैं | जैसे हम बहुत भावुकता में आदर्शवादी बन कर यह कह देते है कि १.प्रेम ही जीवन है| २.अहिंसा ही जीवन है | ३. जल ही जीवन है | ४.अध्यात्म ही जीवन है | ५.परोपकार ही जीवन है । ६.संघर्ष ही जीवन है । ७.ध्यान योग ही जीवन है । ८.बदला लेना ही जीवन का लक्ष्य है । ९.मेरा सम्प्रदाय/मत/पक्ष ही जीवन है । १०.मेरा दर्शन ही सही जीवन है । आदि आदि ............. यथार्थ यह है कि ये चाहे कितने भी महत्वपूर्ण क्यूँ न हों किन्तु सब कुछ नहीं हैं | ये जीवन का एक अनिवार्य पक्ष ,सुन्दर पक्ष हो सकता है लेकिन चाहे कुछ भी हो सम्पूर्ण जीवन नहीं हो सकता |इसीलिए कायनात इन्साफ करती है क्यूँ कि हमारी तरह वह सत्य की बहुआयामिता का अपलाप नहीं कर सकती | इसीलिए विश्व के इतिहास में दुनिया के किसी  भी धर्म को कायनात उसकी  कुछ एक विशेषताओं के कारण एक बार उसे छा जाने का

अपने लेखन से अज्ञान का अंधकार मिटायें

* *अज्ञान का अंधकार आपने लेखन के दीपक से मिटाकर दीपावली मनाएं * * प्रो अनेकांत कुमार जैन,नई दिल्ली * जैन धर्म दर्शन पर्व और संस्कृति पर भारत की आम जनता के लिए लेख लिखना और उसे समाचार पत्रों में प्रकाशित करवाना बहुत अच्छा कार्य है । महाविद्यालय के सभी स्नातक अपने अपने स्थान पर राष्ट्रीय और स्थानीय समाचार पत्रों में भगवान् के 2550  निर्वाणोत्सव  वर्ष से संबंधित प्रामाणिक लेख अवश्य प्रकाशित करवाएं । 1991 से मैं भी यह प्रयास निरंतर कर रहा हूँ तथा अभी तक इस तरह के मेरे प्रकाशित लेखों की संख्या 500 से अधिक पहुंच चुकी है । ज्यादा नहीं तो यदि एक प्रकाशित लेख एक व्यक्ति भी पढ़े (यद्यपि सैकड़ों पढ़ते हैं) तो अभी तक पांच सौ लोग तो अपना अज्ञान दूर कर ही चुके होंगे । मैं इस न्यूनतम विश्वास और आशा पर लिखता हूँ और प्रकाशनार्थ भेजता हूँ । अपने लोगों के साथ साथ अन्य समाज के प्रबुद्ध वर्ग भी इसे पढ़ते हैं और जैन धर्म का सही ज्ञान प्राप्त करते हैं । यह एक उत्कृष्ट प्रभावना का कार्य है । रत्नकरंड श्रावकाचार के श्लोक 18 को अवश्य स्मरण रखना चाहिए - अज्ञानतिमिरव्याप्तिमपाकृत्य यथायथम् । जिनशासनमाहात्म्यप

प्राकृत वीर निर्वाण पंचक ( तीर्थंकर महावीर निर्वाण 2550 वर्ष )

वीर निर्वाण 2550 के अवसर पर विशेष  *पाइय-वीर-णिव्वाण-पंचगं* (प्राकृत वीर निर्वाण पंचक ) जआ अवचउकालस्स सेसतिणिवस्ससद्धअट्ठमासा । तआ होहि अंतिमा य महावीरस्स खलु देसणा ।।1।। जब अवसर्पिणी के चतुर्थ काल के तीन वर्ष साढ़े आठ मास शेष थे तब भगवान् महावीर की अंतिम देशना हुई थी । कत्तियकिण्हतेरसे जोगणिरोहेण ते ठिदो झाणे । वीरो अत्थि य झाणे अओ पसिद्धझाणतेरसो ।।2।। कार्तिक कृष्णा त्रियोदशी को योग निरोध करके वे (भगवान् महावीर)ध्यान में स्थित हो गए ।और (आज) ‘वीर प्रभु ध्यान में हैं’ अतः यह दिन ध्यान तेरस के नाम से प्रसिद्ध है ।  चउदसरत्तिसादीए पच्चूसकाले पावाणयरीए । ते  गमिय परिणिव्वुओ देविहिं  अच्चीअ मावसे ।।3।। चतुर्दशी की रात्रि में स्वाति नक्षत्र रहते प्रत्यूषकाल में वे (भगवान् महावीर) परिनिर्वाण को प्राप्त हुए और अमावस्या को देवों के द्वारा पूजा हुई । गोयमगणहरलद्धं अमावसरत्तिए य केवलणाणं । णाणलक्खीपूया य दीवोसवपव्वं जणवएण ।।4।। इसी अमावस्या की रात्रि को गौतम गणधर ने केवल ज्ञान प्राप्त किया ।लोगों ने केवल ज्ञान रुपी लक्ष्मी की पूजा की और दीपोत्सवपर्व  मनाया । कत्तिसुल्लपडिवदाए देविहि

गिरनार पर उपलब्ध प्रकाशित प्रामाणिक साहित्य

*गिरनार पर उपलब्ध प्रकाशित प्रामाणिक साहित्य* 1. गिरनार गौरव -डॉ कामता प्रसाद जैन ,प्रकाशक - बंडी धर्मशाला,जूनागढ़  2. गिरनार वंदन - डॉ रमेश चंद जैन ,प्रकाशक - श्री दिगम्बर जैन तीर्थ क्षेत्र कमेटी,मुम्बई  3. विविध तीर्थकल्प - 13वीं शती के इस ग्रंथ में वहाँ का आंखों देखा हाल संस्कृत में जिनप्रभसूरी जी ने लिखा है । इसका प्रकाशन सिंधी जैन ग्रंथमाला से हुआ था । 4.Girnar Evidence - Dr Vimal Jain ,Pub. Digambar jain Mahasabha  इन ग्रंथों में काफी मात्रा में प्रमाण उपलब्ध हैं ।  इसके अलावा भी श्री आर के जैन जी ने महावीर जी में तीर्थ क्षेत्र कमेटी की तरफ से गिरनार पर एक संगोष्ठी का आयोजन करवाया था जिसमें बहुत विद्वान् एकत्रित हुए थे और मैं भी गया था ।  वहाँ काफी प्रामाणिक सामग्री एकत्रित करवाई गई थी । उसका ग्रंथ यदि प्रकाशित हुआ हो तो वह भी महत्त्वपूर्ण रहेगा ।  इसके अलावा भी कई प्रकाशन हुए होंगें ,मेरी जानकारी में अभी इतने ही आ पाए हैं ।

feedback of ''Jain dharm : ek jhalak''

feedback of ''Jain dharm : ek jhalak''  Dear Dr. Anekant Kumar Jain Ji Jai Jinendra! First of all I am very much thankful that I got the subject copy of the book that you wrote. I was looking for something like this which I can understand in my own language and correlate with the people around me. I got this copy from my father who attended some function in Agra. I live in US and when people over there inquire about my religion I always found little/limited knowledge about myself and my roots. On the name of Jain, we only know Ahimsa, Navkar Mantra, Bhagwaan Mahaveer and Jain temples. I know it doesn't look good. I always end up saying that you should google it to know more but I know I have not answered their questions. I go to temple to look for books like this but except pooja books I don't find any. It is very important that people from my generation or the current generation to understand who are they and where are their roots. I have started reading and ju

सेवा संबंधी सात तथ्य

*संस्थाओं में सेवा संबंधी सात तथ्य* किसी भी सामाजिक या सरकारी संस्था में यदि कोई कार्य करता है तो उन्हें ये सात तथ्य जरूर ध्यान में रखने चाहिए ,ताकि निराश न होना पड़े -  1.बेहतर है कुछ नहीं करो,बस जानो देखो और सलाह देते रहो- ऐसा होना चाहिए,वैसा होना चाहिए, चिंता फिकर भी जताते रहो ,करो नहीं । आपकी पूजा होगी । 2. कुछ करोगे या करने की कोशिश करोगे तो आलोचना के लिए तैयार रहो । प्रशंसा कोई नहीं करेगा । 3. अच्छा हो गया तो कोई धन्यवाद देने भी नहीं आएगा ,हाँ - कई चौधरी बनने जरूर आ जाएंगे और श्रेय लेने की होड़ हो जाएगी । 4. अच्छा नहीं हो पाया या असफलता मिली तो आलोचना सुनने को तैयार रहो , इसका श्रेय सिर्फ आपको ही मिलेगा । 5. हाँ, आपका मूल्यांकन हो सकता है ,आज न हो लेकिन वक्त जरूर करेगा ।लेकिन तब आप यहां न होंगे ।  6. आपका समर्पण और लगन ,परिश्रम और प्रयास ,आपके सच्चे अभिप्राय का असर आपके कर्म और उसके फल पर जरूर पड़ेगा । वहाँ ,भ्रष्टाचार नहीं चलता ।  7.इसलिए वही करिए जो शास्त्र सम्मत हो ,उचित हो और जिसमें आपकी भावना जुड़े । अहितकारी ,आगम विरुद्ध कार्यों का अवश्य विरोध करें । अपनी असहमति दर्ज करें । चुप

विरोध की खूबसूरती को समझें

 विरोध की खूबसूरती को समझें  ✍️प्रो अनेकांत कुमार जैन,नई दिल्ली  विरोध सिक्के के हेड और टेल की तरह अस्तित्व का दूसरा पहलू है जो प्रत्येक पहलू को स्वयं ही दिखाई नहीं देता और वह उसे अपने अस्तित्व का सहभागी न मानता हुआ अपने अस्तित्व का ही विरोधी समझने की भूल करने लगता है ।  हेड इसलिए है क्यों कि टेल है ,टेल इसलिए है क्यों कि हेड है ।  मगर हमारी संकुचित बुद्धि उसे अपना अस्तित्व विरोधी जानकर और मानकर उसे नष्ट करने का भाव रखती है ,बिना यह विचारे कि इससे स्वयं के नष्ट होने का खतरा भी उतना ही है । *विरोध प्रचार की कुंजी है* ' आदि सूक्तियों को सुन सुन कर और सुना सुना कर हम  दो तरह की मानसिकता से ग्रसित हो रहे हैं - 1. यदि स्वयं हमारा विरोध हो रहा हो तो बिना आत्ममूल्यांकन किये खुश रहो कि अच्छा है प्रचार तो हो रहा है । उस प्रचार के लोभ में अपनी कमियों की तरफ़ ध्यान न देना एक बहुत बड़ी भूल है । स्वयं को शुद्ध ,सही और उत्कृष्ट मानने का दम्भ भी हमें आत्म मूल्यांकन से कोसों दूर ले जाता है । यह भी एक प्रकार का गृहीत मिथ्यात्व है जो सम्यक्त्व के नाम पर हमारे दिल और दिमाग पर छाया हुआ है ।

सल्लेखना का चालान

जीवन की गाड़ी और समय का पहिया जिस रफ़्तार से चल रहा है  जी करता है उसका  सल्लेखना  से  चालान काट दूँ   निश्चय व्यवहार के कदमों से पैदल चलूं और  समाधि की नौका पर बैठकर  भवपार हो जाऊँ । कुमार अनेकांत

महावीर निर्वाण पंचक

*पाइय-वीर-णिव्वाण-पंचगं* (प्राकृत वीर निर्वाण पंचक) जआ अवचउकालस्स सेसतिणिवस्ससद्धअट्ठमासा ।   तआ होहि अंतिमा य महावीरस्स खलु देसणा ।।1।। जब अवसर्पिणी के चतुर्थ काल के तीन वर्ष साढ़े आठ मास शेष थे तब भगवान् महावीर की अंतिम देशना हुई थी । कत्तियकिण्हतेरसे जोगणिरोहेण ते ठिदो झाणे ।    वीरो अत्थि य झाणे अओ पसिद्धझाणतेरसो ।।2।। कार्तिक कृष्णा त्रियोदशी को योग निरोध करके वे (भगवान् महावीर)ध्यान में स्थित हो गए ।और (आज) ‘वीर प्रभु ध्यान में हैं’ अतः यह दिन ध्यान तेरस के नाम से प्रसिद्ध है ।  चउदसरत्तिसादीए पच्चूसकाले पावाणयरीए ।         ते  गमिय परिणिव्वुओ देविहिं  अच्चीअ मावसे ।।3।। चतुर्दशी की रात्रि में स्वाति नक्षत्र रहते प्रत्यूषकाल में वे (भगवान् महावीर) परिनिर्वाण को प्राप्त हुए और अमावस्या को देवों के द्वारा पूजा हुई । गोयमगणहरलद्धं अमावसरत्तिए य केवलणाणं ।   णाणलक्खीपूया य दीवोसवपव्वं जणवएण ।।4।। इसी अमावस्या की रात्रि को गौतम गणधर ने केवल ज्ञान प्राप्त किया ।लोगों ने केवल ज्ञान रुपी लक्ष्मी की पूजा की और दीपोत्सवपर्व  मनाया ।      कत्तिसुल्लपडिवदाए देविहिं गोयमस्स कया पूया । णूयणवरस

मन का विरोध - मौनं विरोधस्य लक्षणम्

मन का विरोध - मौनं विरोधस्य लक्षणम् प्रो अनेकांत कुमार जैन  क्या जरूरी है जुबां बात करे ओंठ हिले  खमोशी देती है पैगाम जो बस खुदा जाने  कभी कभी वातावरण इस तरह के निर्मित हो जाते हैं कि यदि आप समर्थन में नहीं हैं तो भी प्रत्यक्ष विरोध करना आपको इष्ट नहीं होता है ।  खासकर सज्जन, विनम्र और अचाटुकार तरह के लोग अपनी अन्य अनुत्पन्न समस्याओं से बचाव के लिए इस तरह के स्पष्ट और प्रत्यक्ष विरोध से बचते हैं ।  वे अमर्यादित होकर ,चीख और चिल्ला कर विरोध करने की प्रवृत्ति नहीं रखते हैं क्यों कि विरोध के पीछे भी वे कोई अन्य लाभ की वांछा से रहित हैं । अन्य दूसरे लाभ जिन्हें चाहिए वे इससे परहेज नहीं करते और अक्सर उन्हें प्रत्यक्ष अमर्यादित और उग्र विरोध का पुरस्कार भी मिल जाता है ।  सज्जन और विनम्र व्यक्तित्त्व मन से विरोध करके सत्य के प्रति अपनी निष्ठा को बचा कर रखता है ।उसे प्रत्यक्ष विरोध से पुरस्कार की वांछा नहीं है तो अन्य हानि भी उसकी अंतरंग शांति को कहीं भंग न कर दे इसलिए वो भी वह नहीं चाहता । इसलिए कभी वह स्वयं को चुपचाप इस सत्य हनन के तांडव से अलग कर लेता है । पूंजीवादियों के प्रति,

जैन तीर्थ संरक्षण हेतु आवश्यक 7 कदम

जैन तीर्थ संरक्षण हेतु आवश्यक 7 कदम - प्रो अनेकांत कुमार जैन ,नई दिल्ली 1. प्रत्येक तीर्थ से संबंधित इतिहास,पुरातात्विक प्रमाण,शोधपत्र,सभी चित्र,कोर्ट की कार्यवाही आदि सहित एक प्रामाणिक पुस्तक प्रकाशित करके ,देश के सभी अभिलेखागारों ,सरकारी पुरातत्त्व संग्रहालयों ,विश्वविद्यालयों के पुस्तकालयों में भिजवा दीजिये । ये भविष्य में सत्य के खोजियों के लिए सहायक बनेगा । 2. जिन तीर्थों पर कब्जे हो गए हैं लेकिन इतिहास और कोर्ट हमारे पक्ष में है ,इससे संबंधित प्रमाण संस्कृत में उल्लिखित करवा कर एक दो  ताम्रपत्र अपने कब्जे वाले स्थान में गढ़वा दीजिये । ये भविष्य में काम आएगा जब हमारा प्रभुत्व होगा ।  3.जहाँ हमारे तीर्थ हैं और जैन समाज नगण्य है वहाँ कुछ कमजोर स्थिति वाले जैन परिवारों को रोजगार देकर बसाया जाय ताकि एक दिन वहाँ हमारी समाज बन सके और तीर्थ के प्रति समर्पित जैन वहाँ रहें । वे भविष्य में तीर्थों के स्थानीय संरक्षक  बनेंगे । 4. एक उच्च स्तरीय ऐसी अंतरराष्ट्रीय कमेटी बने जिसमें बहुत अधिक प्रभावशाली जैन प्रशासनिक,वकील ,नेता,प्रोफेशनल,और बहुत बड़े उद्योगपति हों । वे समस्याओं को बड़े

छल दूसरों से या खुद से ? निर्णय आपका ! उत्तम आर्जव

  छल दूसरों से या खुद से ? निर्णय आ पका !   प्रो.डॉ. अनेकान्त कुमार जैन धोखा या छल करना एक बहुत ही कमजोर व्यक्तित्त्व की निशानी है , आध्यात्मिक दृष्टि से यह बहुत बड़ा पाप है ही , साथ ही कानून की दृष्टि में भी यह एक दंडनीय अपराध है | प्रत्येक दृष्टि से यह अनुचित होते हुए भी आज का इन्सान बिना किसी भय के   दुनियादारी में सफल होने के लिए इसे आवश्यक मानने लगा है और दूसरों से धोखा या छल करता है अतः मैं इसे एक मनोरोग भी कहना चाहता हूँ | सरल व्यक्ति अवसाद में नहीं जा सकता , अवसाद में कठिन व्यक्ति ही जाता है , छल कपट कठिन व्यक्तित्त्व की निशानी है । सामान्यतः उदासीनता , निराशा और अंतरोन्मुखता को अवसाद समझा जाता है किंतु वह ज्यादा गहरा नहीं होता थोड़ी सी प्रेरणा से उससे बाहर आया जा सकता है । अत्यधिक उत्साह , अत्यधिक महत्त्वाकांक्षा और अत्यधिक बहिर्मुखता और आत्ममुग्धता बहुत गहरा अवसाद है जिससे बाहर आना बहुत कठिन होता है ।क्यों कि इस तरह के अवसाद की स्वीकृति बहुत कठिन होती है । छलिया और कपटिया व्यक्तित्त्व में ये लक्षण बहुतायत देखे जाते हैं । इस तरह के अवसाद का पता लगाना भी बहुत कठिन होता है

अहंकार

1. मान ने मुझे नहीं पकड़ा है ,मैंने मान को पकड़ा है ।  2.खुद को पाने का प्रयास व्यर्थ है ,मान को खोने का प्रयास सार्थक हो सकता है । निरहंकारपना कोई उपलब्धि नहीं है ,वह तो स्वभाव है ,अहंकार एक उपलब्धि है ,उसे खोना होगा तभी खुद को पा सकते हैं । 3.खुदी को खो कर खुद को पा सकते हैं ,खुदा को पा सकते हैं । 

क्या दशलक्षण को पर्युषण कह सकते हैं ?

क्या दशलक्षण को पर्युषण कह सकते हैं ?  प्रो अनेकांत कुमार जैन ,नई दिल्ली  मुझे लगता है यह विवाद भी भारत और इंडिया के नाम जैसा ही व्यर्थ का विवाद है ।  वर्तमान में अनेक प्रवचनकार दशलक्षण पर्व को पर्युषण पर्व कह कर संबोधित करते हैं । लेख आदि भी लिखते हैं ।  इसे गृहीत मिथ्यातत्व का पोषक कहा जा रहा है ।यह भी समझाया जा रहा  है कि दसलक्षण पर्व को  ‘ पर्युषण पर्व ’  कहना गलत है क्यों कि यह श्वेताम्बर परंपरा में मनाया जाता है |  मेरे विचार से इस पर गंभीरता से विचार अपेक्षित है । यद्यपि श्वेताम्बर परंपरा में यह शब्द ज्यादा प्रचलित है तथा श्वेताम्बर आगमों में इसका उल्लेख भी बहुतायत से मिलता है और व्यवहार से इसी परंपरा के अष्टदिवसीय पर्व को मुख्य रूप से पर्युषणपर्व कहा जाता है और दिगम्बर परंपरा में इसके अनंतर प्रारम्भ होने वाले दस दिवसीय पर्व को दसलक्षण पर्व ही कहा जाता है किन्तु ऐसा विचार भी उचित नहीं है कि इस शब्द (पर्युषण) का उल्लेख ही दिगंबर साहित्य में नहीं है । पर्युषण शब्द का अर्थ - संस्कृत की दृष्टि से पर्युषण का शाब्दिक अर्थ है-  परि आ समंतात् उष्यन्ते दह्यन्ते पापकर्ममाणि यस

History of Yoga

                                            History of Yoga  Prof Anekant Kumar Jain Prof - Deptt of Jain Philosophy Shri Lalbahadur Shastri National Sanskrit University New Delhi 110016   Yoga has a long history. It is an integral subjective science. The origins of yoga are a matter of debate. [1] There is no consensus on its chronology or specific origin other than that yoga developed in ancient India. Suggested origins are the Indus Valley Civilization (3300–1900 BCE) [2] and pre-Vedic Eastern states of India [3] the Vedic period (1500–500 BCE), and the śrama ṇ a movement. [4] According to Gavin Flood, continuities may exist between those various traditions.This dichotomization is too simplistic, for continuities can undoubtedly be found between renunciation and vedic Brahmanism, while elements from non-Brahmanical, Sramana(Jain) traditions also played an important part in the formation of the renunciate ideal. [5] The very earliest indication of the existence of some fo