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सितंबर, 2023 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

जैन तीर्थ संरक्षण हेतु आवश्यक 7 कदम

जैन तीर्थ संरक्षण हेतु आवश्यक 7 कदम - प्रो अनेकांत कुमार जैन ,नई दिल्ली 1. प्रत्येक तीर्थ से संबंधित इतिहास,पुरातात्विक प्रमाण,शोधपत्र,सभी चित्र,कोर्ट की कार्यवाही आदि सहित एक प्रामाणिक पुस्तक प्रकाशित करके ,देश के सभी अभिलेखागारों ,सरकारी पुरातत्त्व संग्रहालयों ,विश्वविद्यालयों के पुस्तकालयों में भिजवा दीजिये । ये भविष्य में सत्य के खोजियों के लिए सहायक बनेगा । 2. जिन तीर्थों पर कब्जे हो गए हैं लेकिन इतिहास और कोर्ट हमारे पक्ष में है ,इससे संबंधित प्रमाण संस्कृत में उल्लिखित करवा कर एक दो  ताम्रपत्र अपने कब्जे वाले स्थान में गढ़वा दीजिये । ये भविष्य में काम आएगा जब हमारा प्रभुत्व होगा ।  3.जहाँ हमारे तीर्थ हैं और जैन समाज नगण्य है वहाँ कुछ कमजोर स्थिति वाले जैन परिवारों को रोजगार देकर बसाया जाय ताकि एक दिन वहाँ हमारी समाज बन सके और तीर्थ के प्रति समर्पित जैन वहाँ रहें । वे भविष्य में तीर्थों के स्थानीय संरक्षक  बनेंगे । 4. एक उच्च स्तरीय ऐसी अंतरराष्ट्रीय कमेटी बने जिसमें बहुत अधिक प्रभावशाली जैन प्रशासनिक,वकील ,नेता,प्रोफेशनल,और बहुत बड़े उद्योगपति हों । वे समस्याओं को बड़े

छल दूसरों से या खुद से ? निर्णय आपका ! उत्तम आर्जव

  छल दूसरों से या खुद से ? निर्णय आ पका !   प्रो.डॉ. अनेकान्त कुमार जैन धोखा या छल करना एक बहुत ही कमजोर व्यक्तित्त्व की निशानी है , आध्यात्मिक दृष्टि से यह बहुत बड़ा पाप है ही , साथ ही कानून की दृष्टि में भी यह एक दंडनीय अपराध है | प्रत्येक दृष्टि से यह अनुचित होते हुए भी आज का इन्सान बिना किसी भय के   दुनियादारी में सफल होने के लिए इसे आवश्यक मानने लगा है और दूसरों से धोखा या छल करता है अतः मैं इसे एक मनोरोग भी कहना चाहता हूँ | सरल व्यक्ति अवसाद में नहीं जा सकता , अवसाद में कठिन व्यक्ति ही जाता है , छल कपट कठिन व्यक्तित्त्व की निशानी है । सामान्यतः उदासीनता , निराशा और अंतरोन्मुखता को अवसाद समझा जाता है किंतु वह ज्यादा गहरा नहीं होता थोड़ी सी प्रेरणा से उससे बाहर आया जा सकता है । अत्यधिक उत्साह , अत्यधिक महत्त्वाकांक्षा और अत्यधिक बहिर्मुखता और आत्ममुग्धता बहुत गहरा अवसाद है जिससे बाहर आना बहुत कठिन होता है ।क्यों कि इस तरह के अवसाद की स्वीकृति बहुत कठिन होती है । छलिया और कपटिया व्यक्तित्त्व में ये लक्षण बहुतायत देखे जाते हैं । इस तरह के अवसाद का पता लगाना भी बहुत कठिन होता है

अहंकार

1. मान ने मुझे नहीं पकड़ा है ,मैंने मान को पकड़ा है ।  2.खुद को पाने का प्रयास व्यर्थ है ,मान को खोने का प्रयास सार्थक हो सकता है । निरहंकारपना कोई उपलब्धि नहीं है ,वह तो स्वभाव है ,अहंकार एक उपलब्धि है ,उसे खोना होगा तभी खुद को पा सकते हैं । 3.खुदी को खो कर खुद को पा सकते हैं ,खुदा को पा सकते हैं । 

क्या दशलक्षण को पर्युषण कह सकते हैं ?

क्या दशलक्षण को पर्युषण कह सकते हैं ?  प्रो अनेकांत कुमार जैन ,नई दिल्ली  मुझे लगता है यह विवाद भी भारत और इंडिया के नाम जैसा ही व्यर्थ का विवाद है ।  वर्तमान में अनेक प्रवचनकार दशलक्षण पर्व को पर्युषण पर्व कह कर संबोधित करते हैं । लेख आदि भी लिखते हैं ।  इसे गृहीत मिथ्यातत्व का पोषक कहा जा रहा है ।यह भी समझाया जा रहा  है कि दसलक्षण पर्व को  ‘ पर्युषण पर्व ’  कहना गलत है क्यों कि यह श्वेताम्बर परंपरा में मनाया जाता है |  मेरे विचार से इस पर गंभीरता से विचार अपेक्षित है । यद्यपि श्वेताम्बर परंपरा में यह शब्द ज्यादा प्रचलित है तथा श्वेताम्बर आगमों में इसका उल्लेख भी बहुतायत से मिलता है और व्यवहार से इसी परंपरा के अष्टदिवसीय पर्व को मुख्य रूप से पर्युषणपर्व कहा जाता है और दिगम्बर परंपरा में इसके अनंतर प्रारम्भ होने वाले दस दिवसीय पर्व को दसलक्षण पर्व ही कहा जाता है किन्तु ऐसा विचार भी उचित नहीं है कि इस शब्द (पर्युषण) का उल्लेख ही दिगंबर साहित्य में नहीं है । पर्युषण शब्द का अर्थ - संस्कृत की दृष्टि से पर्युषण का शाब्दिक अर्थ है-  परि आ समंतात् उष्यन्ते दह्यन्ते पापकर्ममाणि यस

History of Yoga

                                            History of Yoga  Prof Anekant Kumar Jain Prof - Deptt of Jain Philosophy Shri Lalbahadur Shastri National Sanskrit University New Delhi 110016   Yoga has a long history. It is an integral subjective science. The origins of yoga are a matter of debate. [1] There is no consensus on its chronology or specific origin other than that yoga developed in ancient India. Suggested origins are the Indus Valley Civilization (3300–1900 BCE) [2] and pre-Vedic Eastern states of India [3] the Vedic period (1500–500 BCE), and the śrama ṇ a movement. [4] According to Gavin Flood, continuities may exist between those various traditions.This dichotomization is too simplistic, for continuities can undoubtedly be found between renunciation and vedic Brahmanism, while elements from non-Brahmanical, Sramana(Jain) traditions also played an important part in the formation of the renunciate ideal. [5] The very earliest indication of the existence of some fo

समतावाद : सामाजिक विषमता का समाधान

  समता : सामाजिक विषमता का समाधान प्रो अनेकांत कुमार जैन समकालीन दर्शनों में समतावाद महत्त्वपूर्ण स्थान रखता हैं | समाज में साम्यवाद की स्थापना में यह बहुत बड़ा सिद्धांत बनकर सामने आया है | इस दर्शन पर विचार करते समय कुछ महत्त्वपूर्ण सवाल उत्पन्न होते हैं , [1] जैसे - 1.     किस बात की समानता होनी चाहिए ’ तथा 2.     ‘ किनके बीच समानता होनी चाहिए। ’ 3.     ‘ किन चीज़ों की समानता होनी चाहिए ?’ हालाँकि इन सवालों से जुड़े वाद-विवाद के संबंध में कोई आख़िरी फ़ैसला नहीं हुआ है पर आम तौर पर विद्वानों ने समानता को मापने के तीन आधारों के बारे में बताया है [2]   – 1.     कल्याण की समानता , 2.     संसाधनों की समानता और 3.     कैपेबिलिटी या सामर्थ्य की समानता। १.कल्याण की समानता कल्याण के समतावाद का सिद्धांत मुख्य रूप से उपयोगितावादियों के विचार से जुड़ा है। यहाँ ‘ कल्याण ’ को मुख्य रूप से दो तरीकों से समझा जाता है - ·          पहले तरीके को जेरेमी बेंथम जैसे क्लासिकल उपयोगितावादी चिंतकों ने आगे बढ़ाया। इनके अनुसार , किसी व्यक्ति द्वारा अनुभव किये गये दर्द या कष्ट की तुलन