इस्लाम और जैनधर्म
प्रो अनेकांत कुमार जैन , नई दिल्ली
भारत सदाकाल से अहिंसा, शाकाहार, समन्वय और सदाचार का हिमायती रहा है, उसकी कोशित रही है कि सभी जीव सुख से रहें, जिओ और जीने दो- जैनधर्म का मूलमंत्र है। जैनधर्म ने अपने इस उदारवादी सिद्धान्तों से
मुल्क के तथा विदेशी मुल्को के हर मजहब और तबके को प्रभावित किया है। इलाहाबाद से
प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘विश्ववाणी’ के यशस्वी संपादक
पूर्व राज्यपाल तथा इतिहास विशेषज्ञ
डॉ. विशम्बरनाथ
पाण्डेय ने अपने एक निबन्ध
‘अहिंसक परम्परा’ में इस बात का जिक्र किया है। वे लिखते हैं कि-
इस समय जो ऐतिहासिक उल्लेख उपलब्ध है, उनसे यह स्पष्ट है कि ईस्वी की पहली शताब्दी
में और उसके बाद के १००० वर्षों तक जैनधर्म मध्य-पूर्व के देशों में किसी न किसी रूप में यहूदी, ईसाई तथा इस्लाम को प्रभावित करता रहा है।
प्रसिद्ध जर्मन इतिहास लेखक वान व्रेमर के अनुसार ‘मध्य-पूर्व’ में प्रचलित ‘समानिया’ संप्रदाय ‘श्रमण’ शब्द का अपभंरश
है इतिहास लेखक जी.एफ.मूर के अनुसार ‘हजरत’ ईसा की संख्या
शताब्दी से पूर्व इराक, शास और फिलिस्तीन में जैन मुनि और बौद्ध
भिक्षु सैकड़ों की संख्या में चारों तरफ पैâले हुए थे। पश्चिमी एशिया, मिस्र, यूनान और
इथियोपिया के पहाड़ों और जंगलों में उन दिनों अगणित भारतीय साधु रहते थे जो अपने
त्याग और अपनी विद्या के लिए मशहूर थे, ये साधु वस्त्रों तक का त्याग किये हुये थे, अर्थातवे दिगम्बर
थे।
सियाहत नामए नासिर का लेखक लिखता है कि इस्लाम धर्म के कलन्दरी तबके पर जैन धर्म का काफी प्रभाव पड़ा। कलन्दरों की जमात
परिव्रजकों की जमात थी। कोई कलन्दर दो रात से अधिक एक घर में नहीं रहता था। कलन्दर
चार नियमों का पालन करते थे- साधुता, सत्यता और दरिद्रता। वे अहिंसा पर अखण्ड
विश्वास रखते थे।
डॉ. कामता प्रसाद जैन
अपने एक निबन्ध ‘विदेशी’ संस्कृतियों में
अहिंसा में लिखते हैं कि मध्यकाल में जैन दार्शनिकों का एक संघ बगदाद में जम गया
था। जिसके सदस्यों ने वहाँ करुणा और दया, त्याग और वैराग्य की गंगा बहा दी थी। सिहायत
नामए नासिर के लेखक की मान्यता थी कि इस्लाम धर्म के कलन्दर तबके पर जैनधर्म का
काफी प्रभाव पड़ा था। वे लोग अपने प्राणों की बाजी लगाकर भी अहिंसा का पालन करते
थे, ऐसे अनेक उदाहरण
भी मिलते हैं। श्री विशम्बरनाथ पाण्डेय लिखते हैं कि एक बार दो कलन्दर मुनि बगदाद
में आकर ठहरे। उनके सामने एक शुतुर्मुर्ग किसी का हीरों का हार निगल गया। सिवाय कलन्दरों को किसी ने यह बात नहीं
देखी। हार की खोज हुई। कोतवालों को कलन्दर मुनियों पर संदेह हुआ। मुनियों ने मूक
पक्षी के साथ विश्वासघात करना उचित नहीं समझा। उन्होंने स्वयं कोतवालों की प्रताड़ना
सहन कर ली लेकिन शुतुर्मुर्ग के प्राणों की रक्षा की।
डॉ. कामता प्रसाद
लिखते हैं कि अलविद्या फिर्वेâ के लोग हजरत अली की औलाद से थे- वे भी मांस नहीं खाते थे और जीव दया के पालते
थे। ई. ९वीं-१०वीं शती में अब्बासी खलीफाओं के दरबार में
भारतीय पण्डितो और साधुओं को बड़े आदर से निमंत्रित किया जाता था। इनमें जैन बौद्ध
साधु भी होते थे। इस सांस्कृतिक संपर्वâ का सुफल यह हुआ कि ईरान में अध्यात्मवाद जगा और
जीव दया की धारा बही।
वे लिखते हैं कि प्राचीनकाल में अफगानिस्तान तो
भारत का ही एक अंग था और वहाँ जैन एवं बौद्ध धर्मों का प्रचार होने से अहिंसा का
अच्छा प्रचार था। ई. ६वी-७वीं शताब्दी में चीन यात्री हुएनसांग को वहाँ
अनेक दिगम्बर जैन मुनि मिले थे।
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अरब का उल्लेख
अरब का उल्लेख जैन आगमों में मिलता है। भारत से
अरब का व्यापार चलता था। जादिस अरब का एक
बड़ा व्यापारी था- भारत से उसका व्यापार खूब होता था। भारतीय
व्यापारी भी अरब जाते थे। जादिस का मित्र एक भारतीय वणिक था। वह ध्यानी योगी की
मूर्ति अपने साथ अरब लाया और उसकी पूजा करता। जादिस भी प्रभावित हो पूजा करने लगा। मौर्यसम्राट
सम्प्रति ने जैन श्रमणों, भिक्षुओं के विहार की व्यवस्था अरब और ईरान में
की, जिन्होंने वहां
अहिंसा का प्रचार किया। बहुत से अरब जैनी हो गये, किन्तु पारस नरेश का आक्रमण होने पर जैन भिक्षु
और श्रावक भारत चले गये। ये लोग दक्षिण भारत में बस गये और ‘सोलक’अरबी जैन कहलाये।
वे आगे लिखते हैं कि - सन् ९९८ ई. के लगभग भारत से करीब बीस साधु सन्यासियों का
दल पश्चिम एशिया के देशों में प्रचार करने गया। उनके साथ जैन त्यागी भी गए, जो चिकित्सक भी थे। इन्होंने अहिंसा का खासा
प्रचार उन देशों में किया। सन् १०२४ के लगभग यह दल पुनः शान्ति का संदेश लेकर विदेश
गया और दूर-दूर की जनता की
अहिंसक बनाया। जब यह दल स्वदेश लौट रहा था, तो इसे अरब के तत्त्वज्ञानी कवि अबुल अला अल
मआरी से भेंट हुई। जर्मन विद्वान प्रâान व्रेâगर ने अबुल-अला को सर्वश्रेष्ठ सदाचारी शास्त्री और सन्त
कहा है।
अबुल-अला गुरू की खोज में घूमते-घामते जब बगदाद पहुंचे, तो बगदाद के जैन दार्शनिकों के साथ उनका समागम
हुआ था और उन्होंने जैनशिक्षा ग्रहण की थी। इसका परिणाम यह हुआ कि अबुल अला पूरे
अहिंसावादी योगी हो गये। वे केवल अन्नाहार करते थे। दूध नहीं लेते थे, क्योंकि बछड़े के दूध को लेना पाप समझते थे।
बहुधा वे निराहार रहकर उपवास करते थे। कामता प्रसाद लिखते हैं कि वे शहद और अण्डा
भी नहीं खाते थे। पगरखी लकड़ी की पहनते थे। चमड़े का प्रयोग नहीं करते थे। नंगे
रहने की सराहना करते थे, सचमुच वे दया की
मूर्ति थे।
इस प्रकार जैनधर्म दर्शन ने जलालुद्दीन रूमी
एवं अन्य अनेक ईरानी सूफियों के विचारों को प्रभावित किया। जीव दया का यह चिंतन
कुरान मजीद से भी प्रकट हुआ है। पार - १२ सत्ताइसवें नूर ‘अन-नस्ल’ में २३ आयतें हैं जो मक्का में उतरी थी। उनमें एक प्रसंग बड़ा
महत्त्वपूर्ण है- ‘‘सुलेमान के लिए उसकी
सेनायें एकत्र की गयीं जिनमें जिन्न भी थे और मानव भी, और पक्षी भी, और उन्हें नियंत्रित रखा जाता था, यहाँ तक कि जब ये सब च्यूँटियों की घाटी में
पहुँचे, तो एक च्यूँटी ने
कहा :
हे च्यूँटियों! अपने घरों में घुस जाओ ऐसा न हो कि सुलैमान और
उनकी सेनायें तुम्हें कुचल डालें और उन्हें खबर भी न हो।
’’कुरआन मजीद, पृ.
४२४ इसी पृ. पर नीचे लिखा है कि च्यूँटियो की बात कोई सुन
नहीं पाताः परन्तु अल्लाह ने हसरत सुलेमान अ. को च्यूँटियों की आवाज सुनने की शक्ति प्रदान
की थी। कुरआन मजीद का यह प्रसंग इसलिए संवेदनशील है कि संसार के छोटे से प्राणी
चींटी की भी ह्रदय वेदना की आवाज को सशक्त अभिव्यक्ति देकर इस ग्रंथ में उकेरा गया
है। यह अहिंसक भावना की सशक्त अभिव्यक्ति है। बाद में सूफी कवियों ने भी अपनी
रचनाओं में उन्हीं आध्यात्मिक चेतना को आवाज दी जो जैन परम्परा की अमूल्य मौलिक
धरोहर रही है। एक उदाहरण प्रस्तुत है-
‘ता न गरदद नफ्स
ताबे सहरा, वैâद वा यावी दिले
मजरूहरा।
मुर्गे जाँ अ़ज
हत्से यावद रिहा, गर बतेग् लकुशी ई
़जहदा’
सारांश के रूप में हम यह कह सकते हैं कि संसार
की प्रत्येक धर्म, संस्कृति, सभ्यताएं और दर्शन सदा से दूसरे को प्रभावित
करते रहे हैं। जैन संस्कृति के अहिंसावादी आचार-विचार से इस्लाम धर्म भी काफी प्रभावित हुआ।
कुरआन की आयतों में तो अहिंसा, जीवदया, करुणा का प्रतिपादन तो था ही, साथ ही उदारवादी तथा व्यापक सोच रखने वाले
इस्लामिक सूफियों और दार्शनिकों को जब अन्य परम्पराओं में इन अच्छाइयों का
उत्कृष्ट स्वरूप दिखाई दिया तो उन्होंने उन सदगुणों को ग्रहण किया।
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