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समतावाद : सामाजिक विषमता का समाधान

 

समता : सामाजिक विषमता का समाधान

प्रो अनेकांत कुमार जैन

समकालीन दर्शनों में समतावाद महत्त्वपूर्ण स्थान रखता हैं | समाज में साम्यवाद की स्थापना में यह बहुत बड़ा सिद्धांत बनकर सामने आया है |

इस दर्शन पर विचार करते समय कुछ महत्त्वपूर्ण सवाल उत्पन्न होते हैं,[1] जैसे-

1.    किस बात की समानता होनी चाहिएतथा

2.    किनके बीच समानता होनी चाहिए।

3.    किन चीज़ों की समानता होनी चाहिए?’

हालाँकि इन सवालों से जुड़े वाद-विवाद के संबंध में कोई आख़िरी फ़ैसला नहीं हुआ है पर आम तौर पर विद्वानों ने समानता को मापने के तीन आधारों के बारे में बताया है[2] 

1.    कल्याण की समानता,

2.    संसाधनों की समानता और

3.    कैपेबिलिटी या सामर्थ्य की समानता।

१.कल्याण की समानता

कल्याण के समतावाद का सिद्धांत मुख्य रूप से उपयोगितावादियों के विचार से जुड़ा है। यहाँ कल्याणको मुख्य रूप से दो तरीकों से समझा जाता है-

·         पहले तरीके को जेरेमी बेंथम जैसे क्लासिकल उपयोगितावादी चिंतकों ने आगे बढ़ाया। इनके अनुसार, किसी व्यक्ति द्वारा अनुभव किये गये दर्द या कष्ट की तुलना में आनंद की कुल मात्रा ही उसकी ख़ुशी है। इस दृष्टिकोण के अनुसार किसी व्यक्ति के बारे में यह जानने के लिए कि वह अपनी ज़िंदगी में कितना सुखी है, हमें यह देखना चाहिए कि वह कितना ज़्यादा ख़ुश है।  

·         कल्याण से संबंधित दूसरा तरीका उपयोगितावाद से संबंधित हाल के लेखन में दिखाई देता है। इसमें कल्याण को इच्छा या वरीयता-संतुष्टि से जोड़ा जाता है। लोगों की कितनी इच्छाएँ या वरीयताएँ संतुष्ट होती हैंइसके आधार पर लोगों का कम या अधिक कल्याण होता है। इसी बुनियादी अर्थ में उसकी ज़िंदगी बेहतर या बदतर होती है।

·         हर व्यक्ति को इस बात में समर्थ होना चाहिए कि वह स्वतंत्र रूप से अपनी वरीयताएँ तय कर सके। वस्तुतः जो समाज कल्याण के समान रूप से वितरण में विश्वास करता है, वह इस बात की ज़्यादा चिंता नहीं करता है कि एक व्यक्ति को कितना संसाधन मिलता है। लेकिन इस बात की चिंता ज़रूर करता है कि ये संसाधन प्रत्येक व्यक्ति के लिए दूसरे व्यक्तियों जितनी संतुष्टि या ख़ुशी देते हैं या नहीं। इस योजना की महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इसमें इस बात पर ज़ोर दिया जाता है कि भले ही संसाधनों के वितरण में असमानता हो, लेकिन हर व्यक्ति का समान रूप से कल्याण होना चाहिए।

२. संसाधन समतावाद

कल्याण समतावादियों से भिन्न संसाधन समतावादसंसाधनों की समानता पर बल देता है। संसाधनों की समानता का अर्थ यह है कि जब एक वितरण योजना लोगों को समान मानते हुए संसाधनों का वितरण या हस्तांतरण करती है, तो आगे संसाधनों का कोई भी हस्तांतरण लोगों के हिस्से को ज़्यादा समान बनाये।लेकिन इसी जगह यह जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि किन परिस्थितियों में संसाधनों की समानता हासिल की जा सकती है।

३. सामर्थ्य या कैपेबिलिटी समतावाद

समतावाद की एक अन्य अवधारणा सामर्थ्य या कैपेबिलिटी समतावाद की है। इसे अमर्त्य सेन ने प्रस्तुत किया है। इसके अनुसार लोगों की कैपेबिलिटी को बराबर करने पर ध्यान दिया जाना चाहिए। कैपेबिलिटी एक निश्चित तरह के कार्य को करने की क्षमता है। मसलन साक्षरता एक कैपेबिलिटी है और पढ़ना एक कार्य है। एक संसाधन- समतावादी इस बात पर ज़ोर दे सकता है कि जिस क्षेत्र में साक्षरता की कमी है, वहाँ लोगों को किताबें और शैक्षिक सेवा जैसे संसाधन दिये जाने चाहिए। दूसरी ओर सामर्थ्य- समतावादी इस बात पर ज़ोर देंगे कि लोगों को बाहरी संसाधन उपलब्ध कराने से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण यह है कि लोगों की पढ़ने-लिखने की कैपेबिलिटी या सामर्थ्य अर्थात् आंतरिक क्षमता को बढ़ावा दिया जाये।

इन सबसे अलग माइकल वॉल्ज़र ने जटिल समानता का विचार पेश किया है। वॉल्ज़र का मानना है कि समानता को कल्याण, संसाधन या कैपेबिलिटी जैसी किसी एक विशेषता पर ध्यान नहीं देना चाहिए। उनके अनुसार किसी भी वितरण का न्यायपूर्ण या अन्यायपूर्ण होना उन वस्तुओं के सामाजिक अर्थ से जुड़ा होता है जिनका वितरण किया जा रहा है। इसके साथ ही सामाजिक जीवन के सभी दायरों में वितरण का एक जैसा मानक नहीं होना चाहिए।[3] समतावाद सामाजिक वैज्ञानिकों के लिए आज भी एक महत्त्वपूर्ण विचार बना हुआ है। किस बात की समानता?’ से संबंधित वाद-विवाद का स्थान किनके बीच समानताने ले लिया है। लेकिन समातावादी तेज़ी से अपने व्यक्तिगत पूर्वाग्रहों को छोड़ रहे हैं। वे अब समूहों की असमानताओं पर भी गहराई से विचार कर रहे हैं।

 

समता की जैन दृष्टि

समता दर्शन के विभिन्न सिद्धांतों को देखने से पता चलता है कि समता वादी किसी एक सिद्धांत का निर्णय नहीं कर सके हैं | माइकल वॉल्ज़र के विचारोंको देख कर लगता है वे किसी एक निश्चित सिद्धांत को महत्त्व देना ठीक नहीं समझते हैं | समतावादी समाज वैज्ञानिकों की इन्हीं समस्यायों का समाधान समणसुत्त की निम्नलिखित गाथा से हम आसानी से समझ सकते हैं –

कज्जं णाणादीयं , उस्सग्गाववायओ भवे सच्चं |

तं तह समायरंतो,तं सफलं होइ सव्वं पि ||[4]

ज्ञानादि कार्य उत्सर्ग और अपवाद विधि से सत्य होते हैं वे इस तरह किये जाएँ कि सब कुछ सफल हो जाये |कारण यह है कि समानता की अवधारणा द्रव्य,क्षेत्र ,काल और भाव के आधार पर अलग अलग हो सकती है |कल्याण के सबके अपने अलग अलग मानदंड भी होते हैं और संतुष्टि और ख़ुशी के भी |जैसे आप यह निर्णय नहीं ले सकते कि सभी संसाधन सभी लोगों में समान रूप से वितरित कर दिए जाएँ | हर संसाधन हर एक के लिए उपयोगी नहीं हो सकते | यदि मैं वैज्ञानिक नहीं हूँ तो मेरे लिए प्रयोगशाला का कोई औचित्य नहीं है |समान संसाधन वितरण एक कोरा सिद्धांत हैं ,वह व्यावहारिक नहीं है |आवश्यकता के अनुसार अनुकूल सामग्री का वितरण तो संभव है लेकिन समान वितरण भी एक प्रकार की असमानता उत्पन्न करता है जैसे जिसमें क्षमता ज्यादा है उसे कम प्राप्त होता है और जिसमें क्षमता कम है उसे अधिक प्राप्त होता है ,इससे संसाधनों की अनुपयोगिता या दुरुपयोगिता बढ़ती है | इसके लिए सबसे अच्छा उदाहरण है-परिवार में समानता का सिद्धांत | माता पिता के लिए सभी संतानों के कल्याण के प्रति समता का एक सामान्य नियम काम करता है,किन्तु उम्र और आवश्यकता के अनुसार वे छोटे बच्चे की ज्यादा मदद करते हैं बजाय उनके जो वयस्क हो चुके हैं और आत्मनिर्भर हैं |सबके कल्याण की भावना में यह असमानता आवश्यक भी होती है इसलिए विषमता को आप सर्वत्र एकांत से गलत नहीं कह सकते हैं |समाज कल्याण में भोजन सबके लिए हैं किन्तु गरीब को निःशुल्क और अमीर को सशुल्क ...उस असमानता को दोषपूर्ण नहीं कहा जाता जहाँ कल्याण का भाव मुख्य हो |

जैन दर्शन संसाधनों की उपलब्धता पूर्व कृत कर्म के उदय के अनुसार मानता है |वे भिन्न भिन्न होते हैं अतः जीवन में संसाधन की प्रचुरता और अभाव व्यक्ति के कर्म पर निर्भर करता है |अतः श्रावक को दान आदि के माध्यम से अपने संसाधनों के स्वतः ही वितरण की प्रेरणा दी जाती है और जीव मात्र के कल्याण की भावना से वह दान करके परोपकार भी करता है | परिग्रह परिमाण व्रत को पालने की शिक्षा दी जाती है ताकि वह संसाधनों का उपयोग मात्र आवश्यकता के लिए करे न कि विलासिता के लिए | उपलब्ध संसाधनों के प्रति भी अनासक्ति रख कर वह अपरिग्रह व्रत को पालता है |जैन दर्शन साम्य भाव पर बल देता है जिसमें सभी जीवों का कल्याण निहित है और यही संभव भी दिखता है |     

   

 

 

समता या साम्यवाद की दृष्टि से यदि जैन सिद्धांतों को देखें तो यहाँ ‘समण’ शब्द का अर्थ ही किया ‘समणो सम सुह दुक्खो’[5] अर्थात ‘समण’ वह है जो सुख और दुःख में समान भाव रखता है | जैन धर्म तो प्राणिमात्र के प्रति प्रेम और मैत्री. भाव रखने की शिक्षा देता है, बैर किसी से नहीं -

सत्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् ।

माध्यस्थभावं विपरीतवृत्तौ,सदा ममात्मा विद्घातु देव ।।[6]

प्रेम भाव हो सब जीवों से, गुणी जनों में हर्ष प्रभो ।

करूणाभाव रहे दुखियों पर दुर्जन में मध्यस्थ विभो ।।

इस प्रकार सही धर्मनिरपेक्षता वही है जिसमें धर्म के आधार पर किसी से पक्षपात नहीं हो. सभी का समान आदर हो । सभी अपने-अपने विश्वास और आस्था के अधीन धर्म का पालन करे सभी जीवो से पक्षपात रहित रहकर व्यवहार करने का जैन-दर्शन का निम्न कथन दृष्टव्य है -

पक्षपातो न वीरे न द्वेषा: कपिलादिपु ।

युक्तिमद्वचनं यस्य तरस कार्य: परिग्रह: ।।

बन्धुर्न न: स भगवान रिपवोऽपिनान्ये साक्षान्नदृष्टचरएकतमोऽपिचैषाम् ।

श्रुत्वा बच: सुचरितं च प्रथग विशेष वीरंगुणातिशयलोलतयाश्रिता:रम: । ।[7]

अर्थात् महावीर के प्रति मेरा कोई दुराग्रह नहीं है और न ही कपिल आदि के प्रति कोई दुर्भाव उन्हीं का अनुसरण करना अभीष्ट है जिनके उपदेश तर्कसंगत और विवेक संगत हों ।ये भगवान महावीर मेरे कोई कन्धु नहीं हैं, और अन्य देव मेरे शत्रु नहीं है । मैने तो उनमें से किसी की साक्षात देखा भी नहीं है परन्तु उनके वचनों को सुनकर और उनमें अलग ही विशेषता देख कर गुणातिशयता की लाभ भावना से वीर भगवान का आश्रय लिया है ।

राजनीतिक दृष्टिसे समानता का अर्थ है राज्य द्वारा व्यक्ति-व्यक्ति के बीच जाति, धर्म, लिंग, जन्म स्थान, गरीब-अमीर आदि के आधार पर भेद-भाव नहीं करना अर्थात् विशेषाधिकारों का अन्त तथा प्रत्येक व्यक्ति को विकास करने के पर्याप्त अवसर उपलव्य कराना । इस तरह समानता के दो रूप हैं -नकारात्मक और सकारात्मक । नकारात्मक का अर्थ है विशेषाधिकारों का अन्त । सकारात्मक का अर्थ है सभी व्यक्तियों को विकास के पर्याप्त समान अवसर प्रदान करना ।

जैन धर्म का यह अमिट सिद्धान्त है कि 'अपने समान सभी को समझो' देखिए -

जह ते न पिय दुक्खं, जाणिय एमेव सव्वजीवाणं ।

व्वायरमुवउत्तोत्तोवम्मेण कुणसु दयं । ।[8]

अर्थात् जैसे तुम्हें दुःख प्रिय नहीं है वैसे ही सब जीवों को दुःख प्रिय नहीं है –ऐसा जानकर पूर्ण आदर और सावधानी पूर्वक आत्मौपम्य की दृष्टि से सब पर दया करो |

स्वामी समंतभद्र लिखते है

सम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातंगदेहजम् ।

देवा देवं विदुर्भस्मगूढागारान्तरौजसम् । ।[9]

अर्थात् चाण्डाल कुल में उत्पन्न होने पर भी यदि कोई पुरूष सम्यदर्शन से सम्पन्न है तो उसे गणधरादिक देव आदर योग्य कहते हैं क्योंकि जिसका मन सदा धर्म में लगा रहता है उसे देव भी नमस्कार करते हैं । ऐसा पुरूष का तेज भस्म से आच्छादित अङ्गार के भीतरी तेज के समान होता है । यहाँ कुल, जाति, ऐश्वर्य आदि की सम्पन्नता से व्यक्ति की प्रतिष्ठा नहीं. अपितु सम्यग्ज्ञानादि गुशों से ही होती है

श्री रविषणाचार्य भी पद्मपुराण में कहते है -

"चातुर्वर्ण्य यथान्यच्च चाण्डालादिविशेषणम्

सर्वमाचारभेदेन प्रसिद्ध भुवने गतम् । ।[10]

अर्थात् ब्राह्ममण क्षत्रिय, वैश्य शूद या चाण्डालादि का तमाम विभाग आचरण के भेद से ही लोक में प्रसिद्ध हुआ है ।

अवसर की समानता 

जैन दर्शन की मान्यता है कि प्रत्येक जीव में अनन्त शक्तियों का वास है, उसमें भगवान बनने की शक्ति है । जब साधना के बल पर सभी को भगवान बनने के समान अवसर उपलब्ध हैं तो छोटे-मोटे पदों की क्या विसात? ऊपर विस्तार पूर्वक उदाहरण सहित वर्णन किया गया है कि चांडाल, चोर. धीवर, आदि को उनके परिणामों की निर्मलता के आधार पर प्रतिष्ठित किया गया है ।

जैन दर्शन स्पष्ट घोषणा करता है -

"जीवहँ तिहुयण- संठीयहँ मुढ भेउ करति

केवल-णाणिं णाणि फुडु रनयलु वि एक्कु मुणंति ।।96।।[11]

अर्थात् तीन लोक में रहने वाले जीवों का अज्ञानी भेद करते हैं । जीवपने से कोई कम-बढ़ नहीं है । कर्म के उदय से शरीर भेद है परन्तु द्रव्यकर सव समान हैं । जैसे सोने में वान भेद है (विभिन्न वस्त्रों में लपेटने पर) वैसे ही पर के संयोग से भेद मालूम होता है, तो भी स्वर्णपने से सब समान है ।

आगे और लिखते हैं :-

बुज्यंतहँ परात्यु जिय गुरू लहु अत्थि ण कोइ ।

जीवा सयल वि बंभु परू जेण वियाणइ सोइ ।।[12]

अर्थात् जो परमार्थ को नहीं करता वह परिग्रह से गुरूता समझता है और परिग्रह न होने से लघुपन जानता है । यही भूल है । यद्यपि गुरूता-लघुता कर्म के आवरण से जीवों में पाई जाती है तो भी शुद्ध नय से सब समान हैं ब्रह्म अर्थात् सिद्ध परमेष्ठी केवलज्ञान से सबको देखते हैं, उसी प्रकार निश्चय नय से सम्यग्दृष्टि सब जीवों को शुद्धरूप ही देखता है ।

जैन धर्म लक्षण की दृष्टि से व्यक्ति-व्यक्ति में भेद नहीं करता. सबको प्रगति करने का अवसर प्रदान करता है, यथा-

"जीवहँ लक्सणु जिणवरहि भासिउ दंसण-णाणु ।

तेण ण किज्जइ भेउ तहँ जइ मणि जाउ विहाणु ।।[13]

अर्थात् जीवों का लक्षण जिनेन्द्र देव ने दर्शन और इगन कहा है इसलिए उन जीवों में भेद मत कर, अगर तेरे मन में ज्ञान रूपी सूर्य का उदय हो गया है अर्थात् हे शिष्य तू सबको समान जान ।

इसी ग्रन्थ में आगे कहा गया है

"राय-दोस बे परिहरिवि जे सम जीव णियति ।

ते सम-भावि परिडिया लहु णिबाणु लहति ।।[14]

अर्थात् जो रागद्वेष को दूर कर सब जीवों को समान जानते हैं वे साधु समभाव में विराजमान शीघ्र ही मोक्ष को पाते हैं ।

अवसर की समानता इससे बढ़कर क्या होगी जो प्रत्येक जीव को मोक्ष का अधिकारी मानता है ।ग्रन्थकार अपने-आप को सम्बोधित करते हुए कहते हैं -

एक्क करे मण बिण्णि करि मै करि वण्ण-विसेसु ।

इक्कइँ देवइँ जें वराह तिहुयणु एहु असेसु ।।[15]

अर्थात् - हे आत्मन्! तू जाति की अपेक्षा सब जीवों को एक जान इसलिये राग और द्वेष मत कर ( वर्ण विशेष) । मनुष्य जाति की अपेक्षा ब्रादमणादि वर्ण भेद भी मत कर । अभेद नय से शुद्ध आत्मा के समान ये सब तीन लोक में रहने वाली जीव राशि ठहरी हुई है (वसति) ।

समता दर्शन और व्यवहार

आचार्य नानेश और उनकी परंपरा ने जैन आगमों में प्रतिपादित समता मूलक अवधारणा को आधार बना कर उसकी सामाजिक व्याख्या की है | विषमता की विभीषिका से चिंतित होकर वे लिखते हैं - विचारणीय है कि आज की यह विषमता मनुष्य को कहाँ ले जायेगी ?सर्वव्यापी विषमता अमावस्या की मध्य रात्रि का अंधकार जैसे सर्वव्यापी हो जाता है, वैसी ही सर्वव्यापी यह विषमता हो रही है। व्यक्ति के हृदय की आन्तरिक गहराइयों में तो क्या, बाह्य संसार में व्यक्ति से लेकर परिवार, समाज, राष्ट्र एवं समूचे विश्व में यह विषमता फैलती जा रही है, गहराती जा रही है।

विषभरी यह विषमता सबसे पहले मानव-हृदय की भीतरी परतों में घुस कर उसे क्षत-विक्षत बनाती है और हृदय की सौजन्यता तथा शालीनता को नष्ट कर देती है। जो हृदय समता की रसधारा में समरस बन कर न केवल अपने भीतर, बल्कि बाहर भी सब ओर आनन्द की उमंग उत्पन्न कर सकता है, वही हृदय विषमता की आग में जलकर स्वयं तो काला-कलूटा बनता ही है, किन्तु उस कालिमा को बाह्य वातावरण में भी चारों ओर विस्तारित कर देता है।[16] उनके लेखन से ज्ञात होता है कि वे चारों ओर विषमता का वातावरण देखकर समता में उसका समाधान ढूँढ़ते हैं | इसी पुस्तक में उन्होंने लिखा –

धरती एक-सी होती है, बरसात भी एक-सी, किन्तु एक ही खेत में अलग-अलग यानि एक ओर यदि गन्ना बोया जाये तथा दूसरी ओर अफीम का पौधा लगाया जाये, तो दो विभिन्न पौधों का प्रस्फुटन ऐसा होगा कि एक मिष्ट, तो दूसरा विष, एक जीवन का वाहक, तो दूसरा मृत्यु का। इसी प्रकार दो हृदय एक से हों, किन्तु एक में समता का बीज बोया जये तथा दूसरे में विषमता का, तो दोनों की विचारसारणी एकदम विरुद्ध होगी। समता का विचार जहाँ जीवन का आह्वान करता है, वहाँ विषमताजन्य विचार मृत्यु को बुलाता है।विचार प्रकट होता है वाणी के माध्यम से और विषम विचार वाणी को भी विषम बना देता है एवं कार्य पर भी वैसी ही छाप छोड़ता है।[17]

            यही कारण है कि वे विषमता के भाव को जड़ से मिटाना चाहते हैं और इसके लिए उन्हें सिर्फ लेखन ,प्रवचन या भाषण पर विश्वास नहीं है बल्कि वे इसे प्रयोग के धरातल पर सुधारना चाहते हैं इसलिए उन्होंने समीक्षण ध्यान ध्यान पद्धति को विकसित किया है |

समता का प्रायोगिक पक्ष : समीक्षण ध्यान

आचार्य नानेश ने समीक्षण ध्यान पद्धति को जैन परंपरा की ध्यान पद्धति के रूप में विकसित किया | आपकी प्रेरणा से आज कई स्थानों पर समीक्षण ध्यान केंद्र स्थापित हैं तथा अनेक साधक वहां ध्यान का अभ्यास करते हैं |आपने  क्रोध समीक्षण, मान समीक्षण, माया समीक्षण, लोभ समीक्षण, आत्मसमीक्षण,आदि कई ग्रंथों का लेखन किया गया | आचार्य नानेश का मानना है कि इस्लाम ने नमाज के रूप में, तो ईसाइयत ने प्रेयर (प्रार्थना) के रूप में ध्यान को ही स्वीकार किया है। वेदान्त ने आत्मोपासना को, तो मीमांसा ने याज्ञिक क्रियाओं को ध्यान का सम्बल माना है । सांख्ययोग ने यौगिक साधनाओं को, तो पतंजलि ने अष्टांग योग को ध्यान का आधार स्वीकार किया है । बौद्ध ने विपश्यना, तो जैन ने सहजयोग-समीक्षण को ध्यान के रूप में स्वीकृति प्रदान की है’| [18]

ऐसा जान पड़ता है कि जैन आगमों के वाक्य पण्णा समिक्खए धम्मं अर्थात् प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा करो तथा तम्हा उ मेहावी समिक्ख धम्मं[19] अर्थात् हे मेधावी धर्म का समीक्षण करो इत्यादि अन्यान्य आगम वाक्यों के आधार पर आचार्य नानेश ने अपनी इस ध्यान पद्धति का नाम समीक्षण ध्यान रखा है |समीक्षण शब्द का अर्थ है- सम्यक् प्रकार से अथवा समतापूर्वक देखना –निरीक्षण करना | ‘ सम+ईक्षणइन दो शब्दों के मेल से समीक्षण शब्द बना है |सम का अर्थ है समता अथवा सम्यक् और ईक्षण का अर्थ है देखना | अतः समीक्षण का तात्पर्य हुआ अपनी ही वृत्तियों को सम्यग्रीत्या , संभव पूर्वक निश्चित रूप से देखना | इस अर्थ में चित्त वृत्तियों के सम्यग्निरीक्षण को भी साधना का अनिवार्य अंग माना गया है |[20]

आगमिक विधियाँ [21]

समीक्षण ध्यान की प्रक्रिया एक सुपरीक्षित, सुपरिष्कृत विधि है। ध्यान-साधना की इस प्रक्रिया में हम बाहर की दुनिया से भीतर की दुनिया में प्रवेश करते हैं। बंधन से मुक्ति अथवा राग से विराग की ओर बढ़ने की इस प्रक्रिया को समीक्षण ध्यान की संज्ञा प्रदान की गयी है। मूल में यह प्रक्रिया मनोवृत्तियों के नियंत्रण की अथवा चित्तवृत्तियों के संशोधन की एक प्रक्रिया है। चित्तवृत्तियों के संशोधन के लिये जैन तत्त्वद्रष्टाओं ने जो अनेक दृष्टियां अथवा विधियाँ प्रस्तुत की हैं, उनमें समीक्षण दृष्टि एवं विधि पूर्ण संशोधित विधि है।

लक्ष्य और प्रयोग

समीक्षण ध्यान साधना एक सरल और व्यावहारिक पद्धति है जो अन्तःदर्शन(Introspection) और आत्म सुझावों (Auto Suggestions )पर आधारित है | समीक्षण ध्यान साधना का मुख्य उद्देश्य है – ‘निज चेतना में परमात्म चेतना का अनुभव और जीते जी मुक्ति का रसास्वादन’| अपने इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए १.वृत्ति संशोधन २. आत्मजागरण इन दो विधियों को प्रमुख रूप से अपनाया जाता है |[22] इसके प्रमुख प्रयोगों में समता समीक्षण,श्वास समीक्षण ,देह समीक्षण, क्रोध-मान-माया-लोभ रूप कषाय समीक्षण,पञ्च व्रत समीक्षण ,आत्मभिन्नता समीक्षण  तथा स्व समीक्षण आदि प्रमुख है | इसकी भूमिका के लिए प्राणायाम,योगासन,कायोत्सर्ग और योग निद्रा के प्रयोग करवाए जाते हैं | व्रत,संकल्प,समर्पण और मौन भी इसके प्रारंभ में ही है |[23]

समीक्षण ध्यान :आचार्य नानेश के शब्दों में[24]

समीक्षण ध्यान क्या है और उसका उद्देश्य क्या है इसे समझने के लिए आचार्य नानेश के विभिन्न ग्रंथों का अध्ययन आवश्यक है | यहाँ प्रस्तुत हैं उनके साहित्य से संकलित उनके कुछ विचार

.समीक्षण ध्यान का उद्देश्य है- अन्तर्यात्रा। मन की वृत्तियों को बाहर के भटकाव से भीतर की ओर मोड़ कर उसकी गतिविधि को भी समझ लेना आवश्यक है।

.समीक्षण अर्थात् राग-द्वेष से विनिर्मुक्त रह कर देखना | इसमें राग द्वेषपूर्वक दमन का प्रतिपादन नहीं है। राग-द्वेष के साथ किसी का दमन करना समीक्षण दृष्टि को स्वीकार नहीं है।

.समीक्षण साधना का मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण है कि मन को एक अधूरे नश्वर तत्त्व से दूसरे विनश्वर तत्त्व तक अविवेकपूर्वक बलात् खींच कर रोकने की हठयोग की साधना कभी सफल नहीं हो सकती है। मन पूर्णता की तलाश करता है, तो उसे पूर्णता पर संतोष होगा । समीक्षण ध्यान साधना भी अज्ञानता के साथ अविवेकपूर्वक जबरन अपूर्णता एवं विनाशशीलता पर रोकने का पक्षपाती नहीं है।

. समीक्षण ध्यान अविवेक व अज्ञानतापूर्वक मन पर जबरन दबाव डालकर दबाने का हिमायती नहीं है।

. समीक्षण ध्यान का उद्देश्य है कि मन को छोटी-मोटी उपलब्धियों में नहीं, परम अध्यात्म, परम आनन्द की सरिता में गोता लगाने के लिए काषायिक वृत्ति से रहित यथावस्थित वस्तु का अवलोकन करते हुए अविनश्वर परम साध्य पर छोड़ दें।

इस प्रकार हम देखते हैं कि इक्कीसवीं शती में जिन ध्यान पद्धतियों का विकास हुआ उसमें समीक्षण ध्यान भी एक महत्वपूर्ण विधि के रूप में प्रसिद्ध है | समता की पृष्ठ भूमि पर आधारित यह ध्यान पद्धति अपनी समीक्षण की नूतनता को लिए हुए जैन आगमों में प्रतिपादित ध्यान के मूल दर्शन को प्रयोग में सुरक्षित रखने का पूरा प्रयास कर रही है | यद्यपि इसमें अभी विकास की पूरी संभावनाएं हैं ,हो सकता है कोई नया साधक भविष्य में इसे और अधिक व्यवस्थित तथा अधिक प्रचारित करने में अपनी भूमिका निभाए और इसे नयी चुनौतियों के अनुरूप नया रंग देकर और अधिक प्रासंगिक बनाये |सामाजिक विषमताओं के समाधान में यह एक अहम् भूमिका का निर्वाह कर सकता है |



[1] विकिपीडिया

[2] अशोक आचार्य (2011), ‘समानता’, राजीव भार्गव और अशोक आचार्य (सम्पा.), राजनीति सिद्धांत : एक परिचय संपा. अनु. कमल नयन चौबे, पियरसन, नयी दिल्ली.

 

[3] माइकल वॉल्ज़र (1983), स्फीयर्स ऑफ़ जस्टिस : एडिफेंस ऑफ़ प्लूरलिज़म एड इक्वलिटी, बेसिक बुक्स, न्यूयॉर्क.

 

[4] समणसुत्त ४०

[5] प्रवचनसार –आचार्य कुन्दकुन्द

[6] पू अमितगति सूरि, सामायिक पाठन बृहत् सामायिक पाठ, मूलचंद किशनदास कापडिया सूरत, वीर संवत 2473 पृ. 174

[7] हरिभद्र सूरि, लोक तत्त्व निर्णय

 

[8] समणसुत्तं,गाथा - १५०

[9] स्वामी समन्तभदू आचार्य, रत्नकरण्डश्रावकाचार,श्लोक 28

[10] पं. परमेष्ठीदास जी द्वारा 'जैन धर्म की उदारता' नामक पुस्तक से उद्धृत पृ।2

[11] स्वामी योगिंदु देव, परमात्मप्रकाश,गाथा ९६, परम श्रुत प्रकाशक मंडल, श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, अगास 1988. पृ. 214

 

[12] परमात्मप्रकाश,गाथा ९४

[13] परमात्मप्रकाश,गाथा ९८

[14] परमात्मप्रकाश,गाथा १००

[15] परमात्मप्रकाश,गाथा

[16] समता दर्शन और व्यवहार भाग १३,पृष्ठ १

[17] समता दर्शन और व्यवहार भाग १३

[18] समीक्षण ध्यान :एक मनोविज्ञान आचार्य नानेश ,प्रकाशक : अखिल भारतीय साधुमार्गी जैन संघ ,बीकानेर ,चतुर्थ संस्करण -२०१४ ,पृष्ठ-१०

[19] सूत्रकृतांग  //

[20] समीक्षण ध्यान :प्रयोग विधि आचार्य नानेश ,प्रकाशक-भंवरलाल मेहता ,अहमदाबाद ,१९८२ ,पृष्ठ-

[21] वही,पृष्ठ १२-१४ 

[22] समीक्षण ध्यान साधना आचार्य नानेश ,संपादक हरिसिंह रांका,प्रकाशक-आचार्य श्री नानेश समता विकास ट्रस्ट ,नानेश नगर ,दांता,राज.संस्करण २०११ , पृष्ठ ३-

[23] वही - पूरे ग्रन्थ में इसकी प्रयोग विधियाँ विस्तार से दी गयीं हैं |

[24] समीक्षण ध्यान :एक मनोविज्ञान आचार्य नानेश,के विभिन्न पृष्ठों से संकलित वाक्य

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ये सोने की लंका नहीं सोने की अयोध्या है  प्राचीन अयोध्या नगरी का अज्ञात इतिहास  (This article is for public domain. Any news paper ,Magazine, journal website can publish this article as it is means without any change. pls mention the correct name of the author - Prof Anekant Kumar Jain,New Delhi ) प्राचीन जैन साहित्य में धर्म नगरी अयोध्या का उल्लेख कई बार हुआ है ।जैन महाकवि विमलसूरी(दूसरी शती )प्राकृत भाषा में पउमचरियं लिखकर रामायण के अनसुलझे रहस्य का उद्घाटन करके भगवान् राम के वीतरागी उदात्त और आदर्श चरित का और अयोध्या का वर्णन करते हैं तो   प्रथम शती के आचार्य यतिवृषभ अपने तिलोयपण्णत्ति ग्रंथ में अयोध्या को कई नामों से संबोधित करते हैं ।   जैन साहित्य में राम कथा सम्बन्धी कई अन्य ग्रंथ लिखे गये , जैसे   रविषेण कृत ' पद्मपुराण ' ( संस्कृत) , महाकवि स्वयंभू कृत ' पउमचरिउ ' ( अपभ्रंश) तथा गुणभद्र कृत उत्तर पुराण (संस्कृत)। जैन परम्परा के अनुसार भगवान् राम का मूल नाम ' पद्म ' भी था। हम सभी को प्राकृत में रचित पउमचरिय...

युवा पीढ़ी को धर्म से कैसे जोड़ा जाय ?

  युवा पीढ़ी को धर्म से कैसे जोड़ा जाय ?                                      प्रो अनेकांत कुमार जैन , नई दिल्ली    युवावस्था जीवन की स्वर्णिम अवस्था है , बाल सुलभ चपलता और वृद्धत्व की अक्षमता - इन दो तटों के बीच में युवावस्था वह प्रवाह है , जो कभी तूफ़ान की भांति और कभी सहजता   से बहता रहता है । इस अवस्था में चिन्तन के स्रोत खुल जाते हैं , विवेक जागृत हो जाता है और कर्मशक्ति निखार पा लेती है। जिस देश की तरुण पीढ़ी जितनी सक्षम होती है , वह देश उतना ही सक्षम बन जाता है। जो व्यक्ति या समाज जितना अधिक सक्षम होता है। उस पर उतनी ही अधिक जिम्मेदारियाँ आती हैं। जिम्मेदारियों का निर्वाह वही करता है जो दायित्वनिष्ठ होता है। समाज के भविष्य का समग्र दायित्व युवापीढ़ी पर आने वाला है इसलिए दायित्व - ...

द्रव्य कर्म और भावकर्म : वैज्ञानिक चिंतन- डॉ अनेकांत कुमार जैन

द्रव्य कर्म और भावकर्म : वैज्ञानिक चिंतन डॉ अनेकांत कुमार जैन जीवन की परिभाषा ‘ धर्म और कर्म ’ पर आधारित है |इसमें धर्म मनुष्य की मुक्ति का प्रतीक है और कर्म बंधन का । मनुष्य प्रवृत्ति करता है , कर्म में प्रवृत्त होता है , सुख-दुख का अनुभव करता है , और फिर कर्म से मुक्त होने के लिए धर्म का आचरण करता है , मुक्ति का मार्ग अपनाता है।सांसारिक जीवों का पुद्गलों के कर्म परमाणुओं से अनादिकाल से संबंध रहा है। पुद्गल के परमाणु शुभ-अशुभ रूप में उदयमें आकर जीव को सुख-दुख का अनुभव कराने में सहायक होते हैं। जिन राग द्वेषादि भावों से पुद्गल के परमाणु कर्म रूप बन आत्मा से संबद्ध होते हैं उन्हें भावकर्म और बंधने वाले परमाणुओं को द्रव्य कर्म कहा जाता है। कर्म शब्दके अनेक अर्थ             अंग्रेजी में प्रारब्ध अथवा भाग्य के लिए लक ( luck) और फैट शब्द प्रचलित है। शुभ अथवा सुखकारी भाग्य को गुडलक ( Goodluck) अथवा गुडफैट Good fate कहा जाता है , तथा ऐसे व्यक्ति को fateful या लकी ( luckey) और अशुभ अथवा दुखी व्यक्ति को अनलकी ( Unluckey) कहा जाता...