जैन
साहित्य में क्षमा
प्रो अनेकांत कुमार जैन
शौरसेनी
जैन आगम परंपरा में क्षमा जैसे महान धर्म की बहुत सूक्ष्म तथा व्यावहारिक परिभाषा
की गई है | सूक्ष्म परिभाषाएं निश्चय क्षमा या वास्तविक क्षमा को अभिव्यक्त करती
हैं तथा व्यावहारिक परिभाषाएं उसके प्रायोगिक स्वरुप की अभिव्यक्ति करती हैं |परंपरागत
दृष्टि से जो प्रतिक्रमण सूत्र प्राकृत भाषा में प्रचलित हैं और सभी मुनि आर्यिका
श्रावक जिसका प्रतिदिन पाठ करते हैं उसमें तो क्षमा का विस्तृत और व्यावहारिक
स्वरुप तो मिलता ही है साथ ही कषाय पाहुड,चूर्णी ,षटखण्डागम तथा उनकी धवला –जयधवला
आदि टीकाओं में तो क्षमा का सूक्ष्म वर्णन भी मिलता है | आचार्य कुन्दकुन्द के
परमागम और अन्य आचार्यों के विशाल प्राकृत तथा संस्कृत साहित्य में भी क्षमा का
बहुत व्यवस्थित और गहरा वर्णन है | दशलक्षण पर्व का प्रथम दिवस क्षमा तथा अनंतर
क्षमावाणी पर्व उसकी व्यावहारिकता का परिचायक है | आचार्य
कुन्दकुन्द भाव पाहुड(गाथा 108 ) में स्पष्ट कहते हैं -
पावं खवइ
असेसं, खमाय परिमंडिओ य मुणिपवरो।
खेयरअमरणराणं, पसंसणीओ धुवं होई।।
क्षमा गुण से सुशोभित श्रेष्ठ
मुनि समस्त पापों को नष्ट करता है तथा विद्याधर, देव और
मनुष्यों के द्वारा निरंतर प्रशंसनीय रहता है।।मुनियों को उत्तम क्षमा धारण करने
का उपदेश देते हुए वे कहते हैं[1]–
इय
णाऊण खमागुण, खमेहि तिविहेण सयलजीवाणं।
चिरसंचियकोहसिहिं, वरखमसलिलेण सिंचेह।।
हे क्षमागुण के धारक मुनि! ऐसा जानकर मन वचन
कायसे समस्त जीवों को क्षमा कर और चिरकाल से संचित क्रोधरूपी अग्नि को उत्कृष्ट
क्षमारूपी जलसे सींच।
दिक्खाकालाईयं, भावहि अवियारदंसणविसुद्धो।
उत्तमबोहिणिमित्तं, असारसंसारमुणिऊण।।
हे विचाररहित मुनि, तू उत्तम रत्नत्रय के लिए संसार को असार जानकर सम्यग्दर्शन से
विशुद्ध होता हुआ दीक्षाकाल आदि का विचार कर।
वारसाणुवेक्खा (गाथा 71 )
में वे कहते हैं कि क्रोध के उत्पन्न होने के साक्षात् बाहिरी कारण मिलने पर भी जो
थोड़ा भी क्रोध नहीं करता है, उसके (व्यवहार) उत्तम क्षमा
धर्म होता है-
कोहुप्पत्तिस्स पुणो बहिरंगं जदि हवेदि सक्खादं।
ण कुणदि किंचिवि कोहं तस्स खमा होदि धम्मोत्ति।।
नियमसार की संस्कृत टीका में आचार्य कहते हैं किबिना कारण अप्रिय बोलनेवाले मिथ्यादृष्टि को बिना कारण
मुझे त्रास देने का उद्योग वर्तता है, वह मेरे
पुण्य से दूर हुआ—ऐसा विचारकर क्षमा करना वह प्रथम क्षमा है। मुझे बिना
कारण त्रास देने वाले को ताड़न और वध का परिणाम वर्तता है, वह मेरे
सुकृत से दूर हुआ,
ऐसा विचारकर क्षमा करना वह द्वितीय क्षमा है।[2]
आचार्य
पूज्यपाद सर्वार्थसिद्धि टीका में कहते हैं कि आहार आदि के निमित्त भिक्षु को दूसरे के घरों में जाना पड़ता है उस समय मार्ग में दुष्ट जन
गाली गलौज करते हैं ,उपहास करते हैं ,तिरस्कार करते हैं ,मारते पीटते हैं और शरीर
का घात भी कर देते हैं ,और इस स्थिति में भी उनके मन में रंच मात्र कलुषता का
उत्पन्न न होना क्षमा कहलाता है |[3]
इस अभिप्राय को आचार्य अकलंक और आचार्य शिवार्य भी
व्यक्त करते हैं |[4]
आचार्य शिवार्य किसी के अपराध हम किस दृष्टि से देखें कि क्रोध का भाव उत्पन्न न
हो उसकी कला भगवती आराधना में बताते हैं | वे कहते हैं –
मैंने इसका अपराध किया नहीं
तो भी यह पुरुष मेरे पर क्रोध कर रहा है, गाली दे रहा है,
मैं तो निरपराधी हूँ ऐसा विचार कर उसके ऊपर क्षमा करनी चाहिए। इसने
मेरे असद्दोष का कथन किया तो मेरी इसमें कुछ हानि नहीं है, अथवा
क्रोध करने पर दया करनी चाहिए, क्योंकि यह दीन पुरुष असत्य
दोषों का कथन करके व्यर्थ ही पाप का अर्जन कर रहा है। यह पाप उसको अनेक दुःखों को
देने वाला होगा। इसने मेरे को गाली ही दी है, इसने मेरे को
पीटा तो नहीं है, अर्थात् न मारना यह इसमें महान् गुण है।
इसने गाली दी है परंतु गाली देने से मेरा तो कुछ भी नुकसान नहीं हुआ अत: इसके ऊपर
क्षमा करना ही मेरे लिए उचित है ऐसा विचार कर क्षमा करनी चाहिए। इसने मेरे को केवल
ताड़न ही किया है, मेरा वध तो नहीं किया है। वध करने पर इसने
मेरा धर्म तो नष्ट नहीं किया है, यह इसने मेरा उपकार किया
ऐसा मानकर क्षमा ही करना योग्य है। ऋण चुकाने के समय जिस प्रकार अवश्य साहूकार का
धन वापस देना चाहिए उसी प्रकार मैंने पूर्व जन्म में पापोपार्जन किया था अब यह
मेरे को दुःख दे रहा है यह योग्य ही है। यदि मैं इसे शांत भाव से सहन करूँगा तो
पाप ऋण से रहित होकर सुखी होऊँगा। ऐसा विचार कर रोष नहीं करना चाहिए।[5]कहा भी
है –
दुज्जणवयणउक्कं, णिट्ठुरकडुयं सहंति सप्पुरिसा।
कम्ममलणासणट्ठं, भावेण य णिम्मया सवणा।।
ममत्त्व से
रहित मुनीश्र्वर कर्मरूपी मलका नाश करने के लिए अत्यंत कठोर और कटुक दुर्जन
मनुष्यों के वचनरूपी चपेटा को अच्छे भावों से सहन करते हैं।पंडित आशाधर जी कहते
हैं कि अपना अपराध
करने वालों का शीघ्र ही प्रतिकार करने में समर्थ रहते हुए भी जो पुरुष अपने उन
अपराधियों के प्रति उत्तम क्षमा धारण करता है उसको क्षमारूपी अमृत कासमीचीनतया
सेवन करने वाले साधुजन पापों को नष्ट कर देने वाला समझते हैं।[6]
नियमसार की
टीका में कोई बध कर दे तब भी साधक क्या सोचकर क्षमा भाव धारण करता है इसका बहुत
सुन्दर वर्णन किया है |वे कहते हैं कि मिथ्यादृष्टियों के द्वारा बिना कारण मेरा बध होने से अमूर्त परमब्रह्मरूप
ऐसे मुझे हानि नहीं होती—ऐसा समझकर परमसमरसी भाव में स्थित रहना वह उत्तम क्षमा है।[7]
पद्मनन्दि-पञ्चविंशतिकामें
क्षमा का उत्कृष्ट स्वरुप प्रतिपादित करते हुए कहा है -
दोषानाघुष्य लोके, मम
भवतु सुखी,
दुर्जनश्चेद् धनार्थी;
मत्सर्वस्वं गृहीत्वा, रिपुरथ
सहसा,जीवितं स्थानमन्यः।
मध्यस्थस्त्वेवमेवाखिलमिह हि जगत्,जायतां सौख्यराशिः;
मत्तो मा भूदसौख्यं कथमपि भविन: कस्यचित् पूत्करोमि।।
जो दुर्जन मेरे दोष
जाहिर करके सुखी होते हों वे मेरे दोष जाहिर कर दें,जो धनार्थी
जन मेरा सर्वस्व ग्रहण करके सुखी होते हों वे मेरा सर्वस्व ग्रहण कर लें,जो शत्रु मेरा जीवन लेकर सुखी होते हों तो वे मेरा जीवन ले लें,जो पदलोलुप व्यक्ति मेरी पदवी छीनकर सुखी होते हों वे मेरी पदवी छीन लें,और जो मनुष्य मध्यस्थ हैं, राग-द्वेष रहित हैं वे ऐसे ही मध्यस्थ बने रहें,यह संपूर्ण जगत अतिशय सुख को प्राप्त करे,कोई भी
संसारी प्राणी मेरे निमित्त से किसी भी प्रकार दु:खी न हो ऐसा मैं ऊँचे स्वर में
पुकार-पुकार कर कह रहा हूँ।[8]
दशलक्षण
पर्व और क्षमा
दिगंबर
परंपरा में भाद्र शुक्ला पंचमी के दिन से चतुर्दशी तक दशलक्षण महापर्व की आराधना
का विधान है उसमें प्रथम दिन उत्तम क्षमा के रूप में ही मनाया जाता है | बारस
अणुवेक्खा ,तत्त्वार्थसूत्र,कार्तिकेयानुप्रेक्षा आदि ग्रंथों में उत्तमक्षमा आदि दश
धर्मों का उल्लेख है |[9]यहाँ
उत्तम शब्द से तात्पर्य है सम्यग्दर्शन अर्थात् सच्चा विश्वास । यह त्रिरत्नों में
पहला रत्न कहलाता है ।मनुष्य की आध्यात्मिक उन्नति के लिए यह पहली शर्त है । इसके
बिना मोक्ष मार्ग प्रारंभ ही नहीं होता है ।आत्मा में जब क्रोध रूपी विभाव का अभाव
होता है तब उसका क्षमा स्वभाव प्रगट होता है ।
हमने हमेशा से क्रोध को
स्वभाव माना है यह हमारी सबसे बड़ी भूल है ।हम अक्सर कहते हैं कि अमुक व्यक्ति
क्रोधी स्वभाव का है । क्रोध विकार है स्वभाव नहीं । स्वभाव है क्षमा जो आत्मा का
स्वाभाविक धर्म है ।
जैन परम्परा में प्रत्येक
धर्म की व्याख्या दो नयों के आधार पर की जाती है ।अध्यात्म की दृष्टि से क्षमा
स्वभाव वाली आत्मा के आश्रय से पर्याय में क्रोध रूप विकार की उत्पत्ति नहीं होना
ही क्षमा है और व्यवहार की दृष्टि से क्रोध का निमित्त मिलने पर भी उत्तेजित नहीं
होना ,उनके प्रतिकार रूप प्रवृत्ति के न होने को ही उत्तम क्षमा कहा जाता है ।
दूसरों की गलती की सजा खुद
को देने का नाम क्रोध है ।हमारे क्रोध का सबसे बड़ा कारण है कि अज्ञानता के कारण
हम दूसरों को अपने इष्ट या अनिष्ट का कारण मानते हैं ,दूसरों से ज्यादा अपेक्षाएं करते हैं । तत्त्वज्ञान के अभ्यास से जब हम यह
समझने लगेंगे कि अपने अच्छे या बुरे के लिए हमारे खुद के किये कर्म दोषी हैं ,दूसरा तो निमित्त मात्र है , तब हमारे जीवन में
क्रोध की कमी आना शुरू हो जाएगी और क्षमा स्वभाव प्रगट होना शुरू हो जाएगा ।
हम चाहें कितना भी तर्क कर लें
लेकिन अंत में निष्कर्ष यही निकलता है कि क्रोध दुख रूप है और क्षमा सुख रूप ।
क्षमावाणी
पर्व
दिगंबर जैन परंपरा में दशलक्षण
महापर्व के ठीक एक दिन बाद एक महत्वपूर्ण पर्व मनाया जाता है वह है- क्षमा पर्व ।इस
दिन श्रावक(गृहस्थ)और साधू दोनों ही
वार्षिक प्रतिक्रमण करते हैं ।पूरे वर्ष में उन्होंने जाने या अनजाने यदि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के
किसी भी सूक्ष्म से सूक्ष्म जीव के प्रति यदि कोई भी अपराध किया हो तो उसके लिए वह
उनसे क्षमा याचना करता है ।अपने दोषों की निंदा करता है और कहता है- ‘ मिच्छा
मे दुक्कडं' अर्थात् मेरे सभी
दुष्कृत्य मिथ्या हो जाएँ ।वह प्रायश्चित भी
करते हैं ।इस प्रकार वह क्षमा के
माध्यम से अपनी आत्मा से सभी पापों को दूर करके ,उनका
प्रक्षालन करके सुख और शांति का अनुभव करते हैं
।श्रावक प्रतिक्रमण में प्राकृत
भाषा में एक गाथा है-
'खम्मामि सव्वजीवाणं
सव्वे जीवा खमंतु मे ।
मित्ती मे सव्वभूदेसु, वेरं मज्झं ण केण वि ।'
अर्थात मैं सभी जीवों को
क्षमा करता हूं सभी जीव मुझे क्षमा करें। मेरा प्रत्येक वाणी के प्रति मैत्री भाव
है,
किसी के प्रति वैर भाव नहीं है।
जीवखमयंति सव्वे
खमादियसे च याचइ सव्वेहिं ।
‘मिच्छा मे दुक्कडं ' च बोल्लइ वेरं मज्झं ण केण वि।।[10]
क्षमा
दिवस पर जीव सभी जीवों को क्षमा करते हैं सबसे क्षमा याचना करते हैं और कहते हैं
मेरे दुष्कृत्य मिथ्या हों तथा मेरा किसी से भी बैर नहीं है
क्षमा आत्मा का स्वभाव है,किन्तु हम हमेशा क्रोध को स्वभाव
मान कर उसकी स्वीकारोक्ति और अनिवार्यता पर बल देते आये हैं ।क्रोध को यदि स्वभाव
कहेंगे तो वह आवश्यक हो जायेगा ।इसीलिए क्रोध को विभाव कहा गया है स्वभाव नहीं ।क्षमा
शब्द क्षम से बना है जिससे क्षमता भी बनता है ।क्षमता का मतलब होता है सामर्थ्य और
क्षमा का मतलब है किसी की गलती या अपराध का प्रतिकार नहीं करना ,सहन करने प्रवृत्ति यानि माफ़ी क्योंकि क्षमा का अर्थ सहनशीलता भी है ।क्षमा
कर देना बहुत बड़ी क्षमता का परिचायक है ।इसीलिए नीति में कहा गया है –‘क्षमावीरस्य भूषणं’अर्थात क्षमा वीरों का आभूषण
है ।
लोग सहन करने को कमजोरी समझते हैं लेकिन आध्यात्मिक अर्थों में सहनशीलता एक
विशेष गुण है जो कमजोर लोगों में पाया ही नहीं जाता ।भौतिक विज्ञान का एक प्रसिद्ध
नियम है कि हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है ।अध्यात्म विज्ञान में प्रतिक्रिया
कुछ है ही नहीं ,सिर्फ क्रिया है ।क्षमा क्रिया है ,क्रोध
प्रतिक्रिया है ।हम अक्सर प्रतिक्रिया में जीते हैं ।क्रिया को भूल जाते हैं।क्रिया
धर्म है और प्रतिक्रिया अधर्म है ।हम प्रतिक्रियावादी इसलिए हैं क्योंकि हम सहनशील
नहीं हैं ।
बहुत महत्वपूर्ण शब्द है ‘सहन’।एक
बार सुनने में ऐसा लगता है जैसे हमें कोई डरने को कह रहा है या दब कर चलने को कह
रहा है ।किन्तु बात वैसी है नहीं जैसा हम समझ रहे है ।बातचीत में हम अक्सर पूछा
करते हैं कि उनका रहन-सहन कैसा है ? खासकर विवाह हेतु लड़का
या लड़की देखते समय यह जरूर पूछा जाता है ।आमजन रहन-सहन का अर्थ करते हैं सिर्फ
आर्थिक स्तर,स्टैण्डर्ड यानि कि वो कितना महंगा पहनते हैं,कितना महंगा खाते हैं ,कितने बड़े मकान या कोठी में
रहते हैं।आपके घर में बेजान वस्तुओं का कितना भंडार है ?यह
अर्थ हमारी भोग प्रधान दृष्टि ने निकाला है ।
हम विचार करें कि रहन के साथ
सहन शब्द भी है ।विवाह योग्य लड़की के लिए दोनों चीजें देखना जरूरी हैं कि लड़के
वाले कैसे रहते हैं और कैसे सहते हैं ,रहन के साथ-साथ उनके
सहन का स्तर भी यदि नाप लिया जाये तो कभी धोखे में नहीं रहेंगे ।परिवार ,समाज और राष्ट्र की पूरी व्यवस्था और समन्वय इसी आधार पर टिका है ।परिवार
टूटा –इसका अर्थ है सह नहीं पाए ,किसी
सदस्य की सहनशीलता कमजोर हो गयी ।दूसरी असहनशीलता अन्य सदस्यों की कि वे एक की
असहनशीलता को सह नहीं पाए।इसके पीछे स्नेह भाव छुपा हुआ है ।हम जिसके प्रति प्रेम
करते हैं उसकी हर गुस्ताखी को सह जाते हैं और जब प्रेम नहीं होता तो छोटी सी बात
भी सहन नहीं होती ।रहन-सहन में से अंत का न हटा दें तो बचेगा रह-सह और इसे पलट दें
तो हो जायेगा ‘सह-रह’ और इस सूत्र का अर्थ
होगा कि जो सहे सो रहे और जो न सहे सो न रहे ।सहनशीलता सह-अस्तित्व की सूचक है जो
बिना क्षमा के ,क्षमता के कथमपि संभव नहीं है ।
दश धर्मों की आध्यात्मिक और
व्यावहारिक दोनों दृष्टि से आराधना करने के अनंतर आत्मा समस्त बुराइयों को दूर
करके परम पवित्र और शुद्ध स्वरूप प्रगट कर लेती है तब मनुष्य अंदर से इतना भीग
जाता है कि उसे अपने पूर्व कृत अपराधों का बोध होने लगता है । अपनी भूलें एक एक कर
याद आने लगती हैं । लेकिन अब वह कर क्या सकता है ? काल केपूर्व
में जाकर उनका संशोधन करना तो अब उसके वश में नहीं है । अब इन अपराधों का बोझ लेकर
वह जी भी तो नहीं सकता । जो हुआ सो हुआ - लेकिन अब क्या करें ? कैसे अपने अपराधों की पुरानी स्मृतियां मिटा सकूं जो मेरी वर्तमान शांति
में खलल डालती हैं ।
ऐसी स्थिति में तीर्थंकर
भगवान् महावीर ने एक सुंदर आध्यात्मिक समाधान बतलाया - "पडिक्कमणं "
(प्रतिक्रमण) अर्थात् जो पूर्व में तुमने
अपनी मर्यादा का अतिक्रमण किया था उसकी स्वयं आलोचना करो और वापस अपने स्वभाव में
आ जाओ । यह कार्य तुम स्वयं ही कर सकते हो , कोई दूसरा नहीं ।
प्रतिक्रमण करके तुम अपनी ही
अदालत में स्वयं बरी हो सकते हो तुम उन
अपराधों को दुबारा नहीं करोगे ऐसा नियम लोगे तो वह " पचक्खाण "
अर्थात् प्रत्याख्यान हो जाएगा । प्रत्याख्यान
शब्द का अर्थ है ज्ञान पूर्वक त्याग । जो जाने अनजाने किया उसका प्रतिक्रमण और आगे
से नहीं करेंगे उसका प्रत्याख्यान ।भगवान् महावीर ने प्रायश्चित करने को आत्म
शुद्धि का सबसे बड़ा कारण कहा ।
अनंत चतुर्दशी के एक दिन बाद
एकम को क्षमावाणी पर्व इसीलिए मनाया जाता है कि हम सबसे पहले अपने प्रति अन्य से
हुए अपराधों के लिए उन्हें क्षमा का दान करके भार मुक्त हो जाएं और फिर उनके प्रति
अपने द्वारा किए गए अपराधों की क्षमा याचना करके स्वयं भी शुद्ध हो जाएं और अन्य
को भी भार मुक्त होने का अवसर प्रदान करें ।
अव्वल तो किसी से बैर धारण
करना ही नहीं चाहिए और यदि हो गया है तो उसे ज्यादा दिन संभाल कर नहीं रखना चाहिए
। ये बैर एक ऐसा वायरस है जो आपकी आत्मा के सारे सॉफ्टवेयर और सिस्टम को करप्ट कर
देगा । इसलिए क्षमा का एंटीवायरस अपने भीतर हमेशा इंस्टॉल रखें और बीच बीच में बैर
का वायरस रिमूव करते रहें ।
एंटीवायरस एक साल की
वैलिडिटी के आते हैं इसलिए दशलक्षण पर्व के एक दिन बाद क्षमावाणी पर्व उसका नया
वर्जन अपडेट करने के लिए मिलता है ।
हमें जिनसे क्षमा याचना करनी
है उनसे कहेंगे नहीं तो उन्हें पता कैसे चलेगा कि हम क्षमा मांग रहे हैं अतः
हार्डवेयर की भी जरूरत है इसलिए" वाणी" शब्द का प्रयोग
किया गया है ।
' क्षमा वाणी '
- उत्तम क्षमा का व्यावहारिक रूप है । वचनों से अपने मन की बात को
कह कर जिनसे बोलचाल बन्द है उनसे भी क्षमा याचना करके बोलचाल प्रारंभ करना अनंत
कषाय को मिटाने का सर्वोत्तम साधन है ।
संवाद हीनता जितना बैर को
बढ़ाती है उतना कोई और नहीं । अतः चाहे कुछ भी हो जाए संवाद का मार्ग कभी भी बंद न
होने दें । संवाद बचा रहेगा तो सभी संभावनाएं जीवित रहेंगी ।सिर्फ सोशल मीडिया पर
मैसेज न करें । अपनी वाणी से साक्षात् या फोन करके कहें - यह क्षमावाणी होगी
अन्यथा इसका नाम बदल जाएगा और ' क्षमा मेसेज पर्व ' कहना पड़ेगा ।
और सिर्फ कोरा कहें ही नहीं बल्कि हृदय से
मांगें तभी क्षमा दाता को पानी पानी कर पाएंगे और उस क्षमा नीर में स्वयं भी भीग
पाएंगे ।
क्षमा क्षमा सब कोई कहें , क्षमा करे नहीं कोय ।
क्षमा कर दिया जाय तो , भव भव भ्रमण न होय ।।
हम लोग वर्ष में अनेक दिवस
मनाते हैं जैसे विश्व अहिंसा दिवस ,विश्व योग दिवस आदि
उसी प्रकार हम सभी मनुष्यों को विश्व क्षमा दिवस भी अवश्य मनाना चाहिए ।
इस प्रकार अनेक प्रकार
से दिगंबर जैन साहित्य में क्षमा का व्यवस्थित स्वरुप वर्णित है |
[1]आचार्य कुन्दकुन्द भाव पाहुड,गाथा 109-110
[2]अकारणादप्रियवादिनी मिथ्यादृष्टेरकारणेन मां
त्रासयितुमुद्योगो विद्यते, अयमपगतो मत्पुण्येनेति प्रथमा क्षमा। अकारणेन संत्रासकरस्य ताडनबधादिपरिणामोऽस्ति, अयं चापगतो मत्सुकृतेनेति द्वितीया क्षमा।-तात्पर्यवृत्ति/115
[3]शरीरस्थितिहेतुमार्गणार्थ परकुलान्युपगच्छतो
भिक्षोर्दुष्टजनाक्रोशप्रहसनावज्ञाताडनशरीरव्यापादनादीनां संनिधाने
कालुष्यानुत्पत्ति: क्षमा।- सर्वार्थसिद्धि/9/6/412/4
[4]राजवार्तिक/9/6/2/595/21
; भगवती आराधना / विजयोदया
टीका/46/154/12
[5]भगवती आराधना/1420-1426
[6]य: क्षाम्यति क्षमोऽप्याशु प्रतिकतु कृतागस:। कृतागसं
तमिच्छंति क्षांतिपीयूषसंजुष:।।- अनगारधर्मामृत/6/5
[7]वधे सत्यमूर्तस्य परमब्रह्मरूपिणो ममापकारहानिरिति
परमसमरसी भावस्थितिरुत्तमा क्षमा।-नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/115
[9]उत्तमखममद्दवज्जवसच्चसउच्चं च संजमं चेव।
तवतागमकिंचण्हं बम्हा इति दसविहं होदि।।
बारस अणुवेक्खा/70, तत्त्वार्थसूत्र/9/6 , भगवती आराधना / विजयोदया टीका/46/154/10
[10]दसधम्मसारो/14
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