सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

अगस्त, 2021 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

आचार्य कुन्दकुन्द की अनिवार्य दिगम्बरत्व दृष्टि

आचार्य कुन्दकुन्द की अनिवार्य दिगम्बरत्व दृष्टि डॉ अनेकान्त जैन ,नई दिल्ली जस्स वयणं सुणिदूण , सेआम्बरो वि हवदि दिअम्बरो। तं जययपुज्जं णमो दिअम्बरायरियो कुण्डकुण्डस्स।। जिनकी दिव्य वाणी को सुनकर  श्वेताम्बर भी (अपना मताग्रह त्यागकर) दिगंबर  हो रहे हैं ,उन जगत पूज्य महान दिगंबर जैन आचार्य कुन्दकुन्द को मेरा नमस्कार है । दिगंबर मुनि दशा के बिना मुक्ति संभव नहीं है । इस बात की घोषणा आचार्य कुन्दकुन्द ने जिस अंदाज में की है वह उनकी मूल आम्नाय को स्वयमेव ही प्रगट करता है । आचार्य कुंदकुंद अष्टपाहुड ग्रंथ में कहते हैं कि - णवि सिज्झइ वत्थ धरो, जिणसासणे जइ वि होइ तित्थयरो। णग्गो वि मोक्ख मग्गो, सेसा उम्मग्गया सव्वे॥  (सूत्र पाहुड -23)   अर्थात् - जिनशासन में ऐसा कहा है कि- वस्त्रधारी यदि तीर्थंकर भी हो तो वह मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता। एक नग्न वेष ही मोक्षमार्ग है बाकी सब उन्मार्ग हैं।  साथ ही वे यह भी कहते हैं कि अंतरंग निर्मलता रहित नग्नता भी मोक्ष का कारण नहीं है। णग्गो पावइ दुक्खं णग्गो संसार सायरे भमइ। णग्गो न लहइवोहिं जिण—भावण—वज्जिओ सुइदं।। (भावपाहुड-68) जिन रूप निर्मल भावनाशून्य नग्न

जैन संस्कृत साहित्य सुभाषित

कल संस्कृत दिवस पर चिंतन ….... जैन आचार्यों ने संस्कृत साहित्य के संवर्धन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है । ज्यादा प्रचार प्रसार न होने से उनके द्वारा रचित साहित्य का उपयोग आम संस्कृत जगत में भी वैसा नहीं हो सका है जैसा होना चाहिए था । यह हमारे सोच की बिडम्बना है कि एक तरफ भले ही महाकवि कालिदास जी के साहित्य पर 5000 से ज्यादा शोधकार्य हो गए हैं और आगे भी होते जा रहें हैं किन्तु जैन आचार्यों कवियों साहित्यकारों द्वारा रचित संस्कृत साहित्य पर गिने चुने ही शोधकार्य हुए हैं ।  इसके पीछे पहला बहुत बड़ा कारण उसके साहित्य और उसकी विषय वस्तु का अप्रचार है तथा दूसरा कारण  साम्प्रदायिक अभिनिवेश भी रहा है इससे इंकार नहीं किया जा सकता । आज काशी के सार्वभौम  संस्कृत कार्यालय तथा संस्कृत भारती की उदारवादी विचारधारा के कारण इस स्थिति में और मानसिकता में थोड़ा बहुत परिवर्तन अवश्य आया है ।  यूं ही संस्कृत दिवस को सार्थक करने की दृष्टि से विचार आया कि जैन संस्कृत साहित्य की सुषमा को मीडिया के माध्यम से जन जन तक संचारित करना चाहिए । अतः संदर्भ सहित जैन संस्कृत साहित्य के जनोपयोगी विचारों को सुभाषित के माध्य

आचार्य महाश्रमण ने कुछ गलत नहीं कहा

*आचार्य महाश्रमण ने कुछ गलत नहीं कहा* *प्रो अनेकान्त जैन ,नई दिल्ली*  अभी कुछ दिनों से जैन श्वेताम्बर तेरापंथ के आचार्य महाश्रमण जी का एक प्रवचन का वीडियो सोशल मीडिया पर बहुत तेजी से वायरल किया जा रहा है जिसमें उन्होंने तेरापंथ धर्म संघ के श्रावकों को यह हिदायत दी है कि कन्यायों का विवाह तेरापंथ में ही करना चाहिए ।  इस प्रवचन को लेकर असहमति पूर्वक तरह तरह के मैसेज भी वायरल किये जा रहे हैं । मैंने उस प्रवचन क्लिप को बहुत ध्यान से सुना है । मुझे लगता है कि हमें पहले पूरा प्रवचन सुनना चाहिए तथा उनका अभिप्राय समझना चाहिए ।  किसी भी धर्म,सम्प्रदाय,पंथ,जाति या समुदाय को अपनी संस्कृति और विचारधारा के संरक्षण की चिंता सहज रहती ही है ।  उनका अभिप्राय भी कुछ इसी तरह का है ।  मुझे नहीं लगता वे किसी कट्टरता की बात कर रहे हैं । बल्कि प्राथमिकता की बात कर रहे हैं । ऐसा सभी लोग करते हैं और करना भी चाहिये ।  प्रत्येक जैन मां बाप अपनी बेटा या बेटी का विवाह जानबूझ कर अन्य पंथ ,धर्म में नहीं करते हैं ।  प्रथम तो आज की 90% पीढ़ी इन विषयों में आपकी सुनती ही नहीं है आप चाहे जितना राग अलाप लो उनके

आचार्य आनंद ऋषि सम्मान

पहले धर्म क्षेत्र में हो अणुव्रतों का पालन

प्रो डॉ. अनेकांत कुमार जैन ,नई दिल्ली   अन्यक्षेत्रे कृतं पापं पुण्यक्षेत्रे विनश्यति | पुण्यक्षेत्रे कृतं पापं   वज्रलेपो भविष्यति ||   अन्य क्षेत्र में किया हुआ पाप पुण्य क्षेत्र में आराधना करने पर संभवतः विनाश को प्राप्त हो भी सकता है किन्तु पुण्य क्षेत्र में किया गया पाप बज्र लेप के समान हो जाता है जिसका नाश करना बहुत कठिन हो जाता है | यह सुभाषित अर्थ सहित प्रत्येक मंदिर , तीर्थ , स्थानक , धर्मशाला आदि सभी धर्म क्षेत्रों में अनिवार्य रूप से लिखवा देना चाहिए | पांच अणुव्रत हमारे जीवन के हर क्षेत्र में पालने योग्य हैं किन्तु उनका धर्म क्षेत्र में पालन अनिवार्य है | जहाँ से हमें इन अणुव्रतों की शिक्षा मिली है उस क्षेत्र में ही यदि उसका पालन नहीं किया जा सकता तो देश दुनिया को उसके पालन की शिक्षा देना व्यर्थ हो जाएगा | धर्म क्षेत्र में हम अणुव्रतों का पालन चाहें तो आसानी से कर सकते हैं यह समझकर कि जाने अनजाने कहीं हम   बहुत बड़ा पाप तो नहीं कर रहे | आये हैं पुण्य के लिए और कहीं पाप की गठरी तो नहीं बाँध रहे | अणुव्रत  अहिंसासमाणुभूइ अकत्ता परदव्वस्स खलु सच्चं ।

धर्म की रक्षा

धर्म की रक्षा करना हम सभी का कर्त्तव्य है । किंतु उसके लिए यदि अधर्म का आश्रय लिया जाता है तो फिर हम रक्षा किसकी कर रहे हैं ?  आज भी ऐसे भले ही लोग अधर्म से थोड़ा बहुत डरते भी हों किन्तु धर्म की रक्षा के लिए अधर्म और अनीति का आश्रय बड़े उत्साह से लेते हैं मानो बहुत बड़ा पुण्य कर रहे हों ।  इतिहास गवाह है संसार में सबसे ज्यादा हिंसा और अधर्म धर्म की रक्षा के नाम पर ही हुआ है और आज भी हो रहा है । डॉ अनेकान्त जैन  10/08/2021

नेतृत्त्व और कषाय

*कषाय नेतृत्व का आवश्यक अंग है ?* या अनिवार्य योग्यता ? मंद कषाय वाले को कोई नेतृत्व करने  नहीं देता फिर तीव्र कषाय वाला जैसा नेतृत्व करता है वह सभी को न चाहते हुए भी स्वीकारना होता है । मनमोहन सिंह जी जैसे विरले ही होते हैं जो बिना चुनाव लड़े नेतृत्व कर लेते हैं और वो भी दो दो बार ।  अब नेतृत्व के लिए लड़ना अनिवार्य है और बिना तीव्र परिणामों के ,बिना अशुभ कर्मों के और बिना गुंडा गर्दी के कोई लड़ नहीं सकता ।  चुनाव में कई किस्म के कषाय से भरे लोग नामांकन भरते हैं उनमें जो तीव्र और चतुर कषाय का धारक होता है वह जीत जाता है । भद्र परिणामी तो नामांकन करने से भी डरता है ।  मतदाता की मजबूरी है कि उसे चार गुंडों में से एक गुंडे का चयन करना है क्यों कि उम्मीदवार ही वही हैं । सो उन चार में से अपने स्वार्थ के अनुकूल अपनी धर्म ,जाति का या  जो गुंडा हमारा कुछ मतलब साध सकता हो उसे हम वोट दे देते हैं । बस । यही यथार्थ है ।  मंद परिणामी मोक्षमार्ग का नेतृत्व इसलिए कर लेते हैं क्यों कि वहां उन्हें वोट नहीं चाहिए, कोई एक ही कुर्सी नहीं है , कोई प्रतियोगिता नहीं है ।  यहां तो कोई वोट न भी दे और परिणाम शुद्

सोशल मीडिया संबंधी श्रावकाचार

*सोशल मीडिया संबंधी श्रावकाचार* *डॉ. अनेकान्त कुमार जैन,नई दिल्ली* वर्तमान में  जितनी तीव्रता से सोशल मीडिया का उपयोग बढ़ा है उससे कहीं ज्यादा तीव्रता से उसका विवेकहीन दुरुपयोग भी बढ़ा है । इसलिए अब इससे संबंधित अपराधों के लिए  कानून भी निर्मित हो गए हैं तथा सजाएं भी मिल रही हैं जो कि कुछ समय पहले तक संभव नहीं थी । आज यह आवश्यक हो गया है कि सोशल मीडिया पर कानून के साथ साथ सोशल कंट्रोल भी हो । हमें वर्तमान के अनुरूप अपनी प्रासंगिकता स्थापित करनी पड़ती है ।  कॅरोना काल में लॉक डाउन के कारण ज़ूम ,गूगल मीट,जिओ मीट, मीटिंग एप्प आदि का उपयोग उन लोगों ने भी सीखा जिन्हें मोबाइल लैपटॉप छूना भी पसंद न था । यूट्यूब,व्हाट्सएप,फ़ेसबुक,टेलीग्राम,इंस्टाग्राम,ट्विटर आदि जनसंचार के सबसे ज्यादा माध्यम बने हुए हैं । मोबाइल सभी के अधिकार और पहुंच में होने से आज इस पर कोई भी व्यक्ति किसी भी विषय पर कैसा भी लिख और लिखवा सकता है । कितने ही विषयों में ऐसा लगता है कि बंदरों के हाथों में उस्तरा लग गया है । इसके लिए अब हमें सोशल मीडिया संबंधी श्रावकाचार के नियम स्थापित करने होंगे और उनका कड़ाई से पालन भी करना और करवान

नासूर बनता व्यक्तिवाद

*जैनधर्म में नासूर बनता व्यक्तिवाद* डॉ अनेकांत कुमार जैन  ,नई दिल्ली एक बार सच्चे हृदय से हम पवित्र जैनधर्म, दर्शन, संस्कृति तथा समाज की प्राचीन परम्परा का अवलोकन करें, तो हम पायेंगे- 1. आचार्यों ने परम्परा से प्राप्त ज्ञान के आधार पर अनेक ग्रन्थों का प्रणयन किया, किन्तु अपना जीवन परिचय तो दूर, कई स्थलों पर रचनाकार के रूप में भी अपना नाम नहीं दिया हमें अन्य स्त्रोतों से रचनाकार का नाम, जन्म स्थान, काल, गुरुपरम्परा आदि का पता लगाना पड़ता है। फिर भी विवाद बना रहता है।  2.सभी आचार्यों तथा मुनियों की गुरु आचार्य परम्परा रही है तथा वे उनके प्रति अत्यन्त कृतज्ञ तथा उनका उपकार मानने वाले भी रहे हैं, किन्तु किन्हीं आचार्य या मुनि ने अपने आचार्यों, गुरुओं की स्तुति गान में छन्दशतक, काव्य, महाकाव्य, स्तोत्र आदि की रचना नहीं की , मसलन समन्तभद्राचार्य, जिनसेनाचार्य आदि चाहते तो कोई कुन्दकुन्द स्तोत्र या कुन्दकुन्द महाकाव्य पुराण आदि भी रच सकते थे। किन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया ।वीतरागी सन्तों को तीर्थङ्करों, अरिहन्तों के अलावा किन्हीं की भी स्तुति करने का विकल्प नहीं आता था। 3. अत्यन्त प्राचीन मन्द