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नासूर बनता व्यक्तिवाद

*जैनधर्म में नासूर बनता व्यक्तिवाद*

डॉ अनेकांत कुमार जैन  ,नई दिल्ली

एक बार सच्चे हृदय से हम पवित्र जैनधर्म, दर्शन, संस्कृति तथा समाज की प्राचीन परम्परा का अवलोकन करें, तो हम पायेंगे-

1. आचार्यों ने परम्परा से प्राप्त ज्ञान के आधार पर अनेक ग्रन्थों का प्रणयन किया, किन्तु अपना जीवन परिचय तो दूर, कई स्थलों पर रचनाकार के रूप में भी अपना नाम नहीं दिया हमें अन्य स्त्रोतों से रचनाकार का नाम, जन्म स्थान, काल, गुरुपरम्परा आदि का पता लगाना पड़ता है। फिर भी विवाद बना रहता है। 

2.सभी आचार्यों तथा मुनियों की गुरु आचार्य परम्परा रही है तथा वे उनके प्रति अत्यन्त कृतज्ञ तथा उनका उपकार मानने वाले भी रहे हैं, किन्तु किन्हीं आचार्य या मुनि ने अपने आचार्यों, गुरुओं की स्तुति गान में छन्दशतक, काव्य, महाकाव्य, स्तोत्र आदि की रचना नहीं की , मसलन समन्तभद्राचार्य, जिनसेनाचार्य आदि चाहते तो कोई कुन्दकुन्द स्तोत्र या कुन्दकुन्द महाकाव्य पुराण आदि भी रच सकते थे। किन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया ।वीतरागी सन्तों को तीर्थङ्करों, अरिहन्तों के अलावा किन्हीं की भी स्तुति करने का विकल्प नहीं आता था।

3. अत्यन्त प्राचीन मन्दिरों के नाम भी तीर्थंकरों के नाम पर ही रखे मिलते हैं। जैसे ऋषभदेव मन्दिर, पार्श्वनाथ मन्दिर आदि। मूर्तियाँ भी तीर्थंकरों के अलावा किन्हीं आचार्य, मुनियों आदि की नहीं बनती थी।

4.प्राचीन पाण्डुलिपियों में जो चित्र बने मिलते हैं, वे भी किन्हीं तीर्थंकर,अरिहन्त या अन्य परमेष्ठियों के सामान्य चित्र हैं। उन पर भी आचार्य विशेष या मुनि विशेष का उल्लेख नहीं होता है ।

5 .पहले भी अनेक गृहस्थ ब्रह्मचारी, विद्वान् पण्डित जी हुए हैं, जिन्होंने अत्यन्त समर्पणपूर्वक जिनवाणी की सेवा की तथा प्रचार-प्रसार किया, किन्तु उन्होंने कभी खुद को पुजवाने जैसा कार्य नहीं किया तथा खुद को या अन्य विद्वानों को नाम लेकर सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टि घोषित करने का भी कार्य नहीं किया उदाहरण के रूप में पंडित आशाधर जी, पं. बनारसीदास जी,पं. टोडरमल जी,पं. सदासुखदास जी आदि।

इन सभी के अलावा और भी अनेक उदाहरण हैं जो दिए जा सकते हैं ।
हम सभी हमेशा से सुनते आए हैं, कि जैनधर्म में गुणों की पूजा है,व्यक्ति की नहीं वर्तमान में जो परिदृश्य दिखाई दे रहा है, वह इस प्रकार है-

1.जैन धर्म के लगभग सभी सम्प्रदायों में फिर चाहे दिगम्बर, श्वेताम्बर तेरापंथी, बीसपंथी, कानजी पंथी स्थानकवासी तेरापंथी आदि में व्यक्तिवाद जमकर हावी है और जो सामने दिख रहा है, बस वही भगवान है। ऐसा लगता है कि तीर्थंकरों का नाम भी मजबूरी में लेना पड़ता है।

2.कैसे भी करके यदि कोई प्रवचन संकलित हो गये या किताब लिख दी या किसी से लिखवा दी, तो कवर पेज पर लेखक, साधु-सन्त या विद्वान् का कम्प्यूटरीकृत दैदीप्यमान चेहरा न छपे तो समझ लीजिए कहर ढह जायेगा। 

3.विषय वस्तु प्रूफ रीडिंग और उत्कृष्ट भाषा आदि के माध्यम से ग्रन्थ की गुणवत्ता अब महत्वपूर्ण विषय नहीं है, बल्कि महत्त्वपूर्ण है कवर पेज का कलर, प्रिंटिंग, आर्ट पेपर पर प्रकाशित होना । सम्पूर्ण ग्रन्थ की प्रिंटिंग में जितना खर्च एक प्रवचन प्रकाशन में आता है, उतने पैसे से कई प्राचीन दुर्लभ पाण्डुलिपियों का सामान्य प्रकाशन हो सकता है। बुक स्टॉलों पर भगवान महावीर के मूल आगम गायब हैं। प्रवचन साहित्य की भरमार है। उनके शीर्षक भी ग्लैमरस हैं।

4.गांव हो या शहर ,नगर या महानगर जिधर भी देखो चातुर्मास के दौरान हजारों लाखों पोस्टर, पत्रिकाएं बैनर, होल्डिंग बिछा दी जाती है। समाचार पत्रों में सचित्र विज्ञापन और खुद के चित्रों से मण्डित घड़ी,चेन, लॉकेट, पेन, ब्रासलेट, कैलेण्डर आदि किस संस्कृति को जन्म दे रहे हैं ? पता नहीं  । चुनाव तथा फिल्म प्रमोशन के लिये नेता-अभिनेताओं की तरह धर्म प्रवचन का भी एक ग्लैमर वर्ल्ड और बाजार बन गया है। साधु भी जब भिन्न-भिन्न मुद्राओं में फोटो सेशन करते हैं, तब समझ में नहीं आता यह कैसा नशा है। 

5. मन्दिर में तीर्थंकरों की मूर्तिपूजा नहीं करनेवाले स्थानकवासी, तेरापंथी तथा तारणपंथी भी अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियाँ घर पर रखते हैं और पूजते हैं। मानो उन्हें निषेध मात्र तीर्थंकर की मूर्ति का ही हो । वे भी अपने गुरुओं की फोटो रखते हैं यानि मूर्तिपूजा का स्थान फोटो पूजा ले रही है ।

6.अपने -अपने गुरुओं की मूर्तियाँ भी स्थापित हो रही हैं। यह काम तो मूर्तिपूजा नहीं करने वालों ने भी शुरू कर दिया है ।अभी अर्घ नहीं चढ़ाते कल लोग वो भी शुरू कर देंगे ।

7.अपने अपने गुरुओं के ऊपर चरितकाव्य, महाकाव्य, स्तोत्रों की रचना हो रही है। उन पर भजन रचे जा रहे हैं । कई स्थलों पर गुरु जी स्वयं ही यह कार्य करवाते हैं जो ऐसा करें,उन्हें पुरस्कृत करते हैं। पत्र-पत्रिकाओं में अपने विशेषांक निकलवाने के लिए राशि मुहैया करवाते हैं। कविनुमा विद्वान् भी इनकी स्तुति में ज्यादा लाभ मानते हैं।

8.कई साधु, मुनि, विद्वान् पण्डित स्वयं का अभिनन्दन ग्रन्थ स्वयं ही सम्पादित कर रहे हैं,नाम भले ही किसी का भी हो, वो इसलिये कि उनके जाने के बाद उनका स्मृति ग्रन्थ भी कोई निकालेगा,इस बात की गारण्टी नहीं है।

9. टी.वी. पर यह कहकर ही प्रवचन-प्रसारण करवाते हैं कि यह तो जिनवाणी का प्रचार है, मेरा नहीं ऐसे लोगों को किसी और के प्रवचन प्रसारित करने की प्रेरणा देते भी मैंने कभी नहीं देखा। चैनलों का क्या है? जो नोटों की गड्डियाँ रखवा दे,उसी के प्रवचन दिखा देते हैं।आप जिनशासन के विपरीत बोलो तो चैनल को कोई मतलब नहीं है।

10. मन्दिरों के नाम भी सेठों और जातियों के नाम पर, नवीन तीर्थों के नाम भी स्वयं अथवा गुरुओं के नाम पर रखना, यह सब व्यक्तिवाद है।

11. तीर्थङ्कर प्रतिमाओं से ज्यादा पद्मावती, क्षेत्रपाल,भौमिया जी,घण्टाकर्ण आदि देवी-देवताओं की पूजा भी हमारी आध्यात्मिक शून्यता,भौतिकवाद और व्यक्तिवाद की निशानी है।

12.हर पंथ, सम्प्रदाय और गुरु तथा पण्डित स्वयं को सम्यग्दृष्टि और अन्य को मिथ्यादृष्टि सिद्ध करने पर तुले हैं।

हम चाहे कुछ भी कहें, सारांश यह है कि भगवान् गौण हो गये हैं और भक्त मुख्य भगवान के नाम पर भी भक्तों की ही पूजा हो रही है। आत्मप्रशंसा और आत्म- विज्ञापन का नशा कभी भी, कहीं भी कुछ भी करवा सकता है।

स्वार्थ की इस दुनिया में हम, वीतरागियों से धन माँग रहे हैं। भगवान् तो नाम के रह गये,
अब भक्त ही पूजे जा रहे हैं।।

कुछ निवेदन :
हम जानते हैं कि इस आत्म विज्ञापन के तूफान को हम रोक नहीं सकते । लौकिक समृद्धि की आकांक्षाओं के लिए पूजन पाठ और लौकिक देवी देवताओं की उपासना को बंद नहीं करवा सकते । किन्तु इन सभी के बीच अपनी मूल संस्कृति तथा वीतरागी धर्म कहीं जड़ से ही न हिल जाये,इसीलिये कुछ बातों का ध्यान रख सकते हैं-

1 . किसी सभा भवन, पाण्डाल या मन्दिर में हम अपने तीर्थंकर के चित्र को अपने गुरुदेव के चित्र से छोटा न न रखें।

2.चाहे कैसा भी प्रकाशन हो, उसमें तीर्थंकर के पुरातात्त्विक महत्व की प्राचीन प्रतिमा का चित्र अवश्य प्रकाशित करें । गुरुदेव की, दानदातारों की फोटो उत्तरोत्तर थोड़ी छोटी भी हो, तो कोई बुराई नहीं ।

3.धर्मायतनों संस्थाओं, ट्रस्टों, सभा भवनों के नाम जैन तीर्थ प्राचीन आचार्यों या जैन सिद्धान्तों के नाम पर ही रखें,तो ज्यादा अच्छा रहेगा।

4.ध्यान रखें, हमारे लिये वीतरागी भगवान तीर्थ से ज्यादा महत्त्वपूर्ण कुछ भी नहीं है। सारे तर्क, सारी बातें दूसरे नम्बर पर हैं, पहले नम्बर पर तो ये ही रहे हैं और रहने भी चाहिये।

वास्तविकता में हम सभी एक बहुत बड़ी आत्मप्रवंचना के शिकार हैं,वह है- पर में सुख की खोज । अपनी शुद्धात्मा में रुचि नहीं, इसलिये जन्मकुण्डली, ग्रहशान्ति, नक्षत्र, वास्तु शकुन-अपशकुन आदि निमित्त शास्त्रों को वीतरागी आगमों से भी बड़ा बनाने पर तुले हैं और उनसे सुखी होने की कल्पना कर रहे हैं और यही सपने दूसरों को दिखा रहे हैं। हमारा सारा आत्मवैभव कबाड़ में और माया का वैभव सर चढ़कर बोल रहा है। मामला बस इतने तक सीमित हो गया है कि 'जो बिक रहा है,वो बेच रहे हैं। उसे धर्म का जामा पहना रहे हैं, उसके पक्ष में आगम प्रमाण,तर्क, युक्तियाँ खोज रहे हैं। इन चीजों की कोई फिलॉसोफी नहीं है। आधारहीन आस्थाएँ खड़ी कर रहे हैं और संबंधित उन आस्थाओं की कीमत वसूल रहे हैं--- बस अब इस तरह सारा वैभव नष्ट होते भी नहीं देख सकते। 

गुस्सा है तो है कोई बुरा माने तो माने हमारा तो नारा है - 
गलती इतिहास में भी हुई है,तो उसे सुधारेंगे ,
परम्परा ग्रहीत मिथ्यात्व की कतई नहीं दुहरायेंगे ।
सिर्फ बातें ही नहीं यह प्रण है हमारा,
जैनधर्म की वीतरागी छवि उसे वापस दिलवायेंगे।।


जिन फाउंडेशन,नई दिल्ली

(जिनभाषित 22 मार्च 2011,पृष्ठ 21- 22 में प्रकाशित)

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