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आचार्य कुन्दकुन्द की अनिवार्य दिगम्बरत्व दृष्टि

आचार्य कुन्दकुन्द की अनिवार्य दिगम्बरत्व दृष्टि

डॉ अनेकान्त जैन ,नई दिल्ली

जस्स वयणं सुणिदूण ,
सेआम्बरो वि हवदि दिअम्बरो।
तं जययपुज्जं णमो
दिअम्बरायरियो कुण्डकुण्डस्स।।

जिनकी दिव्य वाणी को सुनकर  श्वेताम्बर भी (अपना मताग्रह त्यागकर) दिगंबर  हो रहे हैं ,उन जगत पूज्य महान दिगंबर जैन आचार्य कुन्दकुन्द को मेरा नमस्कार है ।

दिगंबर मुनि दशा के बिना मुक्ति संभव नहीं है । इस बात की घोषणा आचार्य कुन्दकुन्द ने जिस अंदाज में की है वह उनकी मूल आम्नाय को स्वयमेव ही प्रगट करता है ।

आचार्य कुंदकुंद अष्टपाहुड ग्रंथ में कहते हैं कि -

णवि सिज्झइ वत्थ धरो, जिणसासणे जइ वि होइ तित्थयरो।
णग्गो वि मोक्ख मग्गो, सेसा उम्मग्गया सव्वे॥

 (सूत्र पाहुड -23)
 

अर्थात् - जिनशासन में ऐसा कहा है कि- वस्त्रधारी यदि तीर्थंकर भी हो तो वह मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता। एक नग्न वेष ही मोक्षमार्ग है बाकी सब उन्मार्ग हैं। 

साथ ही वे यह भी कहते हैं कि
अंतरंग निर्मलता रहित नग्नता भी मोक्ष का कारण नहीं है।

णग्गो पावइ दुक्खं णग्गो संसार सायरे भमइ।
णग्गो न लहइवोहिं जिण—भावण—वज्जिओ सुइदं।।

(भावपाहुड-68)

जिन रूप निर्मल भावनाशून्य नग्न व्यक्ति दु:ख भोगता है, वह भावशून्य नग्न जीव संसार सागर में भ्रमण करता है तथा चिरकाल तक बोधि (रत्नत्रय) को प्राप्त नहीं करता है।

कुन्दकुन्द आचार्य कहते हैं—

कम्मपयडीण णियरं णासइ भावेण दव्वेण

( भावपाहुड -54)

कर्मप्रकृतियों के समुदाय का क्षय द्रव्य तथा भाव रूप से दिगम्बरत्व द्वारा संपन्न होता है।

 संस्कृत टीका का यह स्पष्टीकरण उपयोगी है-

'भाव—द्रव्य लिंगाभ्यां कर्म प्रकृति निकरो नश्यति न त्वेकेन भावमात्रेण, द्रव्यमात्रेण वा कर्म क्षयो भवति।'

(संस्कृत टीका, पृष्ठ २०२) 

तीर्थंकर भगवान् दीक्षा लेते समय अन्तरंग—बहिरंग दोनों प्रकार के परिग्रहों का त्याग करते हैं।

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