कल संस्कृत दिवस पर चिंतन …....
जैन आचार्यों ने संस्कृत साहित्य के संवर्धन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है । ज्यादा प्रचार प्रसार न होने से उनके द्वारा रचित साहित्य का उपयोग आम संस्कृत जगत में भी वैसा नहीं हो सका है जैसा होना चाहिए था । यह हमारे सोच की बिडम्बना है कि एक तरफ भले ही महाकवि कालिदास जी के साहित्य पर 5000 से ज्यादा शोधकार्य हो गए हैं और आगे भी होते जा रहें हैं किन्तु जैन आचार्यों कवियों साहित्यकारों द्वारा रचित संस्कृत साहित्य पर गिने चुने ही शोधकार्य हुए हैं ।
इसके पीछे पहला बहुत बड़ा कारण उसके साहित्य और उसकी विषय वस्तु का अप्रचार है तथा दूसरा कारण साम्प्रदायिक अभिनिवेश भी रहा है इससे इंकार नहीं किया जा सकता ।
आज काशी के सार्वभौम संस्कृत कार्यालय तथा संस्कृत भारती की उदारवादी विचारधारा के कारण इस स्थिति में और मानसिकता में थोड़ा बहुत परिवर्तन अवश्य आया है ।
यूं ही संस्कृत दिवस को सार्थक करने की दृष्टि से विचार आया कि जैन संस्कृत साहित्य की सुषमा को मीडिया के माध्यम से जन जन तक संचारित करना चाहिए । अतः संदर्भ सहित जैन संस्कृत साहित्य के जनोपयोगी विचारों को सुभाषित के माध्यम से संचारित करेंगे । आप सभी की शुभकामनाओं से इसी शृंखला को प्रारम्भ करते हैं तथा जब जैसी उपलब्धता तथा अनुकूलता होगी इसे प्रकाशित करते रहेंगे -
*जैन संस्कृत साहित्य सुभाषित* 1
*अवश्यं यदि नश्यन्ति स्थित्वापि विषयाश्चिरम् ।*
*स्वयं त्याज्यास्तथा हि स्यान्मुक्ति: संसृतिरन्यथा ।।*
(जैन
कवि वादीभ सिंह
ग्रंथ - क्षत्रचूड़ामणि
11/31)
अगर इंद्रियों के विषय बहुत काल तक स्थिर रहकर भी अवश्य नाश को प्राप्त हो जाते हैं ,तो स्वयं ही छोड़ देने चाहिए । ऐसा करने पर आत्मा कर्म बंधन से छूट जाता है और इसके विपरीत करने से संसार ही होता है अर्थात् फिर संसार में घूमना पड़ता है ।
If by doing the senses the objects remain fixed for a long time, they definitely get destroyed, then they should be abandoned on their own. By doing this, the soul is freed from the bondage of karma and doing the opposite leads to the world itself, that is, it has to roam in the world.
*जैन संस्कृत साहित्य सुभाषित* 2
*भगवद्दिव्यसान्निध्ये निष्प्रत्यूहा हि सिद्धय: ।*
(वादीभसिंह ,क्षत्रचूड़ामणि,10/41)
वीतरागी
भगवान की दिव्य समीपता होने पर सिद्धियां निर्विघ्न प्राप्त होती हैं ।
With the divine proximity of Veetragi God, siddhis are attained without any problems.
3
असतां हि विनम्रत्वं धनुषामिव भीषणम् ।
(आचार्य वादीभसिंह ,क्षत्रचूड़ामणि,10/14)
दुर्जनों का नम्र होना धनुष के समान भयंकर होता है ।
The meekness of the wicked is as fierce as a bow.
4.
परिणामविशुद्ध्यर्थं तपो बाह्यं विधीयते ।
न हि तण्डुलपाकः स्यात्पावकादिपरिक्षये ।।
(आचार्य वादीभसिंह ,क्षत्रचूड़ामणि,11/66)
अपने आत्मा के भावों की विशुद्धि के लिए बाह्य तप करना चाहिए क्यों कि आग के बुझ जाने पर चावलों का पकना नहीं होता ।
For the purification of
the emotions of your soul, external
penance should be done
because the rice does
not get cooked when the
fire is extinguished.
5.
अनन्तं सौख्यमात्मोत्थमस्तीत्यत्र हि सा प्रमा ।
शान्तस्वान्तस्य या प्रीतिः स्वसंवेदनगोचरा।।
(आचार्य वादीभसिंह ,क्षत्रचूड़ामणि,11/69)
शांत चित्त मनुष्य अपने स्वसंवेदन ज्ञान से अनुपम आनंद का अनुभव करता है ।अपने शुद्ध आत्मा से उत्पन्न होने वाला आनंद का अनुभव ही इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि ' मात्र आत्मा में ही वास्तविक सुख है ' ।
A calm minded person experiences unparalleled bliss by his self-sensing knowledge. The experience of bliss arising from his pure soul is the direct proof that 'the real happiness is only in the soul'.
- प्रो अनेकान्त कुमार जैन, नई दिल्ली 23/08/2021
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