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युवा पीढ़ी को धर्म से कैसे जोड़ा जाय ?

 



युवा पीढ़ी को धर्म से कैसे जोड़ा जाय ?                      


             

प्रो अनेकांत कुमार जैन,नई दिल्ली 


 

युवावस्था जीवन की स्वर्णिम अवस्था है, बाल सुलभ चपलता और वृद्धत्व की अक्षमता-इन दो तटों के बीच में युवावस्था वह प्रवाह है, जो कभी तूफ़ान की भांति और कभी सहजता  से बहता रहता है इस अवस्था में चिन्तन के स्रोत खुल जाते हैं, विवेक जागृत हो जाता है और कर्मशक्ति निखार पा लेती है। जिस देश की तरुण पीढ़ी जितनी सक्षम होती है, वह देश उतना ही सक्षम बन जाता है।

जो व्यक्ति या समाज जितना अधिक सक्षम होता है। उस पर उतनी ही अधिक जिम्मेदारियाँ आती हैं। जिम्मेदारियों का निर्वाह वही करता है जो दायित्वनिष्ठ होता है। समाज के भविष्य का समग्र दायित्व युवापीढ़ी पर आने वाला है इसलिए दायित्व-निर्वाह की क्षमता का अर्जन, स्थायित्व और समुचित उपयोग होना अत्यन्त अपेक्षित है और दायित्व निर्वाह से पहले अपेक्षित होता है दायित्व का बोध और दायित्व का बोध संस्कारों से ही होता है अतः संस्कार ही वास्तव में युवा पीढ़ी को धर्म से जोड़ कर रख सकते हैं |

पहले युवापीढ़ी को समझने की आवश्यकता है

युवा पीढ़ी के प्रति दो प्रकार के दृष्टिकोण निर्मित हैं। एक दृष्टि से युवकों को कोसा जा रहा है कि वे उच्छृंखल हैं, अनुशासनहीन हैं, सामाजिक वर्जनाओं को तोड़ने लेने वाले और अपनी परम्पराओं की उपेक्षा  करने वाले हैं।दूसरी दृष्टि युवा पीढ़ी की कुछ विरल विशेषतायों की ओर इंगित करती है । युवक कर्मठ होते हैं, उदार होते हैं, धुन के पक्के होते हैं और आर्थिक क्षेत्र में अपेक्षाकृत चरित्रनिष्ठ होते हैं।

उक्त धारणाओं के आधार पर हमें युवकों को सापेक्ष दृष्टि से देखना है। उनकी अच्छाइयों को प्रोत्साहन देना है और त्रुटियों को मधुरता से मिटाना है। उनके प्रति घृणा के बीज बोकर प्रेम की वर्षा करनी है। निराशा को तोड़कर नई आशा का संचार करना है। ऐसा करने से युवा पीढ़ी की क्षमताओं का विकास हो सकता है तथा उन्हें संस्कार बोध कराया जा सकता है।

वस्तुतः युवा उस शक्ति का नाम है जो सही दिशा में लगे तो विकास ही विकास, लेकिन गलत दिशा में लग जाये तो विनाश ही विनाश । इस आयु में गति, शक्ति, लगन, उत्साह भरपूर होता है। इसमें अगर संस्कारों का समायोजन हो जाये तो सहज प्रयत्न कोशिश से बड़ी से बड़ी उपलब्धि प्राप्त की जा सकती है। भारतीय संस्कृति तथा जैन संस्कृति में अनेक प्रकार के संस्कार हैं उन सभी संस्कारों को यदि प्रमुख रूप से देखा जाये तो युवा पीढ़ी को निम्नलिखित पाँच प्रमुख संस्कारों से ओतप्रोत होना सर्वप्रथम आवश्यक है- श्रद्धावान्, सहनशील, विचारवान्, कर्मठता और चरित्रवान्।

श्रद्धावान्

            जैन संस्कृति में सम्यक् दर्शन का सबसे अधिक महत्व है। तत्वार्थसूत्र में कहा है-"तत्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्।" वर्तमान दृष्टि से देखें तो श्रद्धा से संकल्पशक्ति मजबूत बनती है। सर्वप्रथम कर्तव्य दायित्व निर्वाहन के लिये करणीय कार्य में श्रद्धा का संस्कार युवा के जीवन में होना आवश्यक है। जिसकी संकल्पशक्ति प्रबल होगी उसी के सभी कार्य सिद्ध होगें चाहे वो लौकिक कार्य हो या फिर पारलौकिक। जब तक युवा में श्रद्धा का पक्ष मजबूत नहीं होगा तब तक उसके जीवन में संयम का शुभारम्भ होना बहुत कठिन है। अतः संस्कारी होने की पहली सीढ़ी श्रद्धा हैं।

सहनशीलता

सहनशीलता अथवा सहिष्णुता का संस्कार युवापीढ़ी में होना आवश्यक ही नहीं अपितु अनिवार्य है। जैनदर्शन में चार कषायों पर विजय प्राप्त करने की बात कही गयी है। सहनशीलता के अभाव में यह विजय कठिन है। सहनशीलता का संजीवनी बूटी है जो कठिन घड़ी में तथा प्रतिकूल वातावरण में संतुलन बनाये रखने एवं युवावस्था के जोश के साथ होश को सुरक्षित रखने में रामबाण का कार्य करती हैं।

विचारशीलता

विचारशीलता के बिना युवक की कार्य की गति रुक जायेगी, नया निर्माण विकास परिवर्तन नही हो सकेगा। विचारशीलता से दूरियां समाप्त होती हैं, संशय दूर होता है। इससे युवाशक्ति अपना प्रभाव, बात उपयोगिता कहीं पर भी सहज पहुँचा सकता है।

कर्मठता

कर्मठता या कर्मशीलता को संस्कार युवा में पुरुषार्थ का समायोजन करता है। जैनदर्शन में आत्म पुरुषार्थ को सबसे अधिक महत्व दिया गया। पुरुषार्थ से सोये भाग्य को भी जगाया जा सकता है। युवाशक्ति में अगर, कर्मठता और श्रमशीलता हो तो उसका जीवन स्वयं के लिये, परिवार के लिये, राष्ट्र के लिये भार हो जाता है अतः भाग्यवादी बनने की जगह पुरुषार्थ का संस्कार बहुत आवश्यक है। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं- “जे कम्मे सूरा ते धम्मे सूरा

चारित्रवान्

प्रवचनसार में आचार्य कुन्दकुन्द ने लिखा है- “चारित्तं खलु धम्मोअर्थात चारित्र ही धर्म है।  जैनदर्शन में चारित्र के सर्वाधिक प्रधानता दी गई है। चरित्र में दृढ़ता है तो सबकुछ ठीक है अथवा चरित्र की एक कमजोरी युवाशक्ति के सभी अच्छे कार्यों पर पानी फेर देती है अतः एक चरित्रवान् युवा परिवार, समाज तथा राष्ट्र के लिये बहुत मजबूत स्तम्भ होता है। प्रारम्भिक दशा में सप्त व्यसनों का त्याग, पांच अणुव्रतों का पालन तथा शुद्ध शाकाहार का पालन आज की नई युवा पीढ़ी लिये अत्यन्त आवश्यक है।

इनके अलावा भी बड़ों का सम्मान, गुणीजनों के प्रति अनुराग, समता, विनम्रता ,नित्य देवदर्शन आदि कई ऐसे जीवन मूल्य हैं जो युवा पीढ़ी को नई ऊँचाइयों पर ले जाने का कार्य करते हैं।

वर्तमान की विसंगतियाँ और उनके समाधान

वर्तमान में युवापीढ़ी अन्तर्द्वन्द्व में उलझी हुई है। वह पुराने मूल्यों को भी जीना चाहती है और उसी के साथ आधुनिक विकास भी करना चाहती है। मूल्यों के अभाव में वस्त्रों की मर्यादायें भी कम हो रही है। आज की पीढ़ी उम्र के चढ़ाव पर ही हताशा और निराशा की शिकार है जिसके फलस्वरूप वो नशे को अपना रही है। उनकी आधुनिकता का दावा शून्यता के कारण ढकोसला दिखाई देता है। इनका बाह्य जगत् जितना दिखावटी और गतिमान् दिखाई देता है, अन्तर्जगत् उतना ही खोखला और अस्थिर है।

यह सबकुछ आध्यात्मिक शून्यता और संस्कारों की हीनता के कारण होता है। युवापीढ़ी को समझना और समझाना उतना मुश्किल नहीं है जितना हम समझते हैं। कई मामलों में उनके प्रश्नों के जवाब हमारे पास नहीं होते हैं इस परिस्थिति में हमें सन्तुलन की दिशा में आगे बढ़ना होगा। हमें ये मानना होगा कि उनकी आधुनिक सोच इतनी अर्थहीन नहीं है जितनी हम मानने लगे हैं, अगर थोड़ा धैर्य का विकास हो और उनकी गतिशील तथा विकसित प्रवृत्ति और मानसिकता में अध्यात्म और चारित्रिक संस्कार का रसायन भी मिला दिया जाये तो यह युवा शक्ति संस्कारों से आध्यात्मिक ऊर्जा प्राप्त करके अपनी नयी सोच और शक्ति के साथ समाज एवं राष्ट्र निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। उनका जीवन सत्यम्, शिवम्, सुन्दरम् की प्रतिपूर्ति हो सकता है।

      आज का युवा पहले जैसा नहीं है

सबसे पहले हमें यह समझना होगा कि आज का युवा पहले जैसा नहीं है । प्रायः एक आम धारणा बनती जा रही है कि युवाओं को धर्म में रूचि नहीं है ,वे नास्तिक किस्म के हैं ,प्रश्न बहुत करते हैं,उनके अन्दर श्रद्धा का अभाव है आदि आदि । दूसरी तरफ युवाओं की तरफ देंखें तो उनके अन्दर आज शिक्षा का विकास बहुत हो गया है । ज्ञान के इस विकास ने रोजगार और समृद्धि के नए द्वार खोल दिए हैं । निश्चित रूप से ज्ञान विज्ञान,आधुनिक संसाधन तथा पैसे से संपन्न नयी पीढ़ी यह भी सोचने लगी है कि जीवन की सभी सफलताओं को प्राप्त करने के बाद हम अपने धर्म संस्कृति और समाज के लिए भी क्या कुछ कर सकते हैं?

 कई बार समाज के झगडों तथा  धार्मिक भ्रष्टाचार की सच्ची झूठी बातों को देख सुन कर ये विचलित हो जाते हैं ।क्यों कि इनकी प्रोफेशनल लाइफ में प्रायः ऐसा भ्रष्टाचार नहीं चलता । यदि चलता भी है तो ये धर्म क्षेत्र को बहुत साफ़ सुथरा और पवित्र मानते हैं ,अतः यहाँ ये ऐसी अपेक्षा बिलकुल नहीं रखते । फिर जब ये धर्म क्षेत्र की ऐसी बातें सुनते हैं तो दुखी होते हैं ,फलतः ये दूर भागने लगते है । इसके कारण इन्हें वो बातें भी सीखने को नहीं मिल पाती जिनसे इनका आध्यात्मिक व्यक्तित्व बनता तथा भौतिक दुनिया में जीने का सही तरीका समझ में आता । समस्या दोनों तरफ से है और कुछ सुधार की आवश्यकता भी दोनों तरफ है ,क्यों कि कितनी ही सकारात्मक बातें दोनों तरफ विद्यमान हैं । हम यहाँ कुछ बिन्दुओं पर विचार करेंगे और मैं चाहता हूँ कि युवाओं के मध्य कुछ यह एक विचार श्रृंखला बने, युवा उसमें सुधार करके प्रस्तुत करें किन्तु सोचें जरूर ,क्यों कि सोचना बंद पड़ा है । सोच बदलेगी तो समाज बदलेगा ।

युवाओं का धर्म से विमुखता का कारण

हर बात पर युवाओं को दोष देना भी ठीक नहीं है । हमें स्वयं अपने भीतर भी झांक कर देखना होगा कि ऐसे कौन से कारण है कि आज का युवा धर्म से पलायन कर रहा है ?इसके बहुत कारण हैं  किन्तु हम यहाँ कुछ प्रमुख कारणों पर चर्चा करेंगें -

१.वे धर्म के कृत्रिम वातावरण से परेशान हैं

आज का युवा पारिवारिक संस्कारवश या फिर धार्मिक रहस्यों के कौतूहल से जीवन में एक बार धर्म की तरफ़ निहारता ज़रूर है। कुछ ऊपर-ऊपर की बातें उसे रास भी आने लगती हैं, किंतु जब वह धर्मक्षेत्र में ज़्यादा प्रविष्ट होने लगता है तो वहाँ का बनावटी और कृत्रिम वातावरण उसे झकझोरने लगता है। दरअसल बाह्य सांसारिक व व्यावसायिक बनावटी वातावरण से उकताकर ही वह धर्म के स्वाभाविक वातावरण की तरफ़ आता है, ताकि उसे कुछ सुकून मिल सके, किंतु जब उसे यहाँ खोखले उसूल और नाटकीय अध्यात्म दिखाई देता है तब वह शेष संसार की भाँति ही उससे नफ़रत करने लगता है। इस समस्या का समाधान स्थायी होना चाहिए। दर्द का समाधान दूसरा दर्द नहीं हो सकता। समाज को चाहिए कि वह धार्मिक वातावरण को सांसारिक प्रपंचों से महफूज़ रखे। उसे अधिक से अधिक ईमानदार, नैतिक और स्वाभाविक रखने का प्रयास करे। युवा वर्ग, जो हमारे जिन पोस्टरों, विज्ञापनों और नारों से आकर्षित होकर हमारी शरण में आया है, कम से कम हम उन उद्देश्यों को यथार्थ में चरितार्थ भी करें। इसमें भी यदि हम पद, मान व प्रतिष्ठा की छलछद्म युक्त राजनीति से निस्तार नहीं पा सकते तो धिक्कार है ऐसे लक्ष्यों पर।

२. हमारे पास उनके अनेक प्रश्नों के उत्तर नहीं हैं

युवाओं के अनेक प्रकार के तथ्यात्मक प्रश्न होते हैं। जिनके सही उत्तर देने की बजाय, धार्मिक लोग उन प्रश्नों को ही व्यर्थ घोषित करने लग जाते हैं। या फिर उनके वैज्ञानिक प्रश्नों का ऐसा अंधविश्वासात्मक उत्तर देते हैं कि युवाओं को चिढ़ होने लगती है।समाज को यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि अब अशिक्षा का युग नहीं है और न ही अंधविश्वासों का ज़माना है। युवाओं के हर तरीके के प्रश्नों को आप उनकी अश्रद्धा से न जोड़े। उनके प्रश्न बताते हैं कि उनकी धर्म दर्शन में गहरी रुचि है तभी तो जिज्ञासाओं का अंबार लग रहा है।

समस्या यह नहीं है कि उनके प्रश्नों के जवाब नहीं हैं समस्या तो यह है कि उनके स्तर का जवाब देने लायक लोग धर्मक्षेत्र में बहुत कम हैं। आज भी धर्म दर्शन के वैज्ञानिक अध्ययन को बहुत अधिक महत्व नहीं दिया जाता है। धर्म और विज्ञान को लोग विरोधी मानते हैं जबकि ये दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। धार्मिक क्षेत्र की समस्या यह भी है कि यहाँ ज़माने भर के नकारा, आलसी और अशिक्षित या अर्धशिक्षित लोगों का भंडार हो गया है जो आपस में ही एक-दूसरे को ज्ञानी-महात्मा कहकर संतुष्ट हो लिया करते हैं और अपने नकारे व आलसीपन को अध्यात्म का जामा पहनाकर खुद को ही धोखे में रखते हैं। धर्मक्षेत्र में योग्य, यथार्थवादी, पढ़े-लिखे, परिश्रमी और आडंबरों से दूर रहने वाले तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाले लोगों की संख्या यदि बढ़ जाए या फिर इस क्षेत्र में पूर्व से ही संलग्न लोग यदि इन बातों का प्रशिक्षण प्राप्त कर लें तो कायाकल्प हो सकता है। वे युवाओं को आकर्षित कर सकते हैं उनके प्रश्नों के सटीक उत्तर देकर।

.विषय भोगों के प्रति अत्यधिक आसक्ति

युवा पीढ़ी भोगों के पीछे पागल है। पंचेंद्रिय के विषय भोग ही जीवन का एक मात्र लक्ष्य कभी नहीं हो सकते, अन्यथा मनुष्य जन्म की कोई सार्थकता नहीं रहेगी। भोगों के प्रति अत्यधिक आसक्ति युवाओं को धर्म से इसलिए विमुख कर रही है क्योंकि यहाँ उन्हें भोगों को त्यागने की बात कही जाती है। अत्यधिक धन की उपलब्धि और सुविधावाद भोगों के प्रति आसक्ति को बढ़ाता है। समाज का यह दायित्व है कि वह अत्यधिक धनाढ्य और सुविधा संपन्न लोगों को दान के लालच में ज़्यादा महत्व या सम्मान न दें। इससे नयी पीढ़ी को यह संदेश जाता है कि जितना ज़्यादा परिग्रह होगा, धर्मक्षेत्र में उतना ही ज्यादा सम्मान मिलेगा। फलतः वे धर्माचरण के स्थान पर भोगाचरण और अधिक धनाढ्य होने को ही अपना लक्ष्य बनाते हैं।

४. धर्म के लिए टाइम नहीं है

प्रायः युवा पीढ़ी का यह आम कथन है कि समय के अभाव के कारण वे धर्म से विमुख हैं। विशेषकर महानगरों में सुबह काम पर जाना, रात्रि में देर तक घर पहुँचना, यह सब आजकल के जीवन की ऐसी विडंबनाएँ हैं जिनके कारण वह चाहते हुए भी देवदर्शन, पूजन, अभिषेक आदि में प्रवृत्त नहीं हो पा रहा है। यदि रविवार आदि का समय मिलता भी है तो धर्मस्थलों के झगड़े-फ़साद सुनकर मन कलुषित हो जाता है।उनका कहना है कि अनेक धार्मिक कार्यक्रम टाइम किलिंग होते हैं ,एक घंटे के कार्यक्रम को चार पांच घंटे में करते हैं ,देर से शुरू करते हैं ,देर तक चलाते हैं ...हमारा पूरा दिन ख़राब हो जाता है और मिलता कुछ भी नहीं है .....ये युवाओं के आम कॉमेंट्स हैं ।

अतः हमें भी धर्म स्थल के माहौल को बहुत कूल और फ्रेंडली रखें। यदि युवा वर्ग कभी समय निकालकर आता भी है तो उसे वहाँ इतना आनंद आना चाहिए, इतना सुकून मिलना चाहिए, इतने समाधान मिलने चाहिए कि वह वहाँ आने को तरसे। उसे उपयोगिता नज़र आनी चाहिए। मंदिरों में स्वाध्याय में फालतू की बातें न करके तथ्यात्मक बातें करें। कार्यक्रमों में समय की प्रतिबद्धता न होना, अनुशासन की कमी होना आदि युवाओं को बिलकुल नहीं भाता। इसलिए वे धर्म के कार्यक्रमों में आने को समय की बर्बादी समझते हैं। अतः कार्यक्रमों में सुधार तथा उन्हें स्तरीय बनाने से युवा उस ओर आकर्षित हो सकते हैं।

           इस प्रकार और भी अनेक कारण हैं जिनके कारण युवा धर्म से विमुख हो जाते हैं ।हमें भी इनमें सुधार करना होगा ।

 

युवा वर्ग को निम्नलिखित  सुझाव देकर धर्म से जोड़ा जा सकता है ­

 

१.चाहे कुछ भी हो हम अपने धर्म दर्शन से सम्बंधित अच्छे लेखकों की अच्छी सरल किताबे जरूर पढ़े । तथा अपनी कुछ राय बनायें ।कोई शंका हो तो  sms , e-mail, face book आदि के द्वारा उसका समाधान जरूर प्राप्त करें ।

 

२.जब भी छुट्टी हो किसी तीर्थ ,मंदिर या म्युजियम में जरूर जायें।

 

३.आप जिस भी क्षेत्र में प्रोफेशनल महारत रखते हैं उसका उपयोग धर्म और संस्कृति  की सेवा में जरूर करें ,क्यों कि इस क्षेत्र में मूर्ख, अपरिपक्व और स्वार्थी लोगों कि भरमार है।इसी कारण यह दशा बन जाती है कि आपको ये स्तरहीन और पिछड़े दीखते हैं।

 

४.पुरानी संस्थाओं को जीवित करें ।अपना हुनर वहाँ दिखाएँ।

 

५.आप जैसे योग्य और समर्पित लोगों कि उपेक्षा के कारण धर्म के क्षेत्र में निकम्मे और धूर्त लोग राज करते हैं।और इस पवित्र आध्यात्मिक क्षेत्र को बदनाम करते हैं।

 

६.छद्म धार्मिक लोगों के अभिशाप से डरें नहीं ,ये इसी डर का व्यवसाय करते हैं।

 

७.अपने वैज्ञानिक ज्ञान का प्रयोग धर्म कि वास्तविक व्याख्या में करें।

 

८.अंध विश्वासों में न फसें बल्कि फंसे हुए लोगों को मुक्त करें।

 

९.धार्मिक भ्रष्टाचार दूर करना नयी पीढ़ी का कर्तव्य है।

 

१०.विश्वास कीजिये ,मसीहा कभी आसमान से नीचे नहीं उतरते,वो हमारे भीतर हैं।हम उन्हें दबा कर रखते हैं।यह सोच कर कि हमें क्या करना ?

 

         भारत के पढ़े लिखे मूर्खों के कारण ही ढोंगी बाबा पनपते हैं । टी.वी. चैनल अंध विश्वाश को फैलाने में पूरा योगदान देते है । शिक्षा के विकास के बाद भी  भारत  में अंध विश्वाश के लिए पूरा मार्केट है ।आज के ढोंगी साधुओं ने बता दिया है कि ज्ञान विज्ञान सब फेल है बस चमत्कार को नमस्कार ।आज अगर नयी पीढ़ी इस सोच को नहीं बदलेगी तो कौन बदलेगा ? अतः युवा पीढ़ी को यह समझना होगा कि वे भी समाज का ही हिस्सा हैं अतःआलोचना की वजाय  धार्मिक माहौल को सुधारना भी उनका कर्त्तव्य है जो कि पलायन से संभव नहीं है |इन्हीं कुछ मुद्दों पर विचार किया जाय और एक स्वस्थ्य माहौल बनाया जाय तो युवा वर्ग को धर्म की तरफ आसानी से जोड़ा जा सकता है |        

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