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जैन मुनि का शौचोपकरण है कमंडलु

शौचोपकरण है कमंडलु

जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव ने दिगंबर मुनि चर्या में संयमोपकरण मयूर पिच्छिका की भांति शौचोपकरण कमंडलु को भी अनिवार्य बताया था | एक दृष्टि से ये दिगंबर जैन मुनियों की मूल पहचान या चिन्ह भी माना जाता है |1 आचार्य कुन्दकुन्द (प्रथम शती) ने नियमसार ग्रन्थ में कमंडल शब्द का प्रयोग मुनियों की आदान निक्षेपण समिति के प्रसंग में किया है |2
मूलाचार ग्रन्थ की संस्कृत वृत्ति में इसे ‘कुंडिका’ नाम से कहा गया है |3
आचार्य विद्यानंद(नवमी शती ) ने तुम्बी फल(सामुद्रिक नारियल ) का उल्लेख किया है जिससे पता लगता है कि इसका प्रयोग कमंडल निर्माण में किया जाता था और उसे प्रासुक माना जाता था | 4
वर्तमान में उसे अफ्रीकन नारियल भी कहते हैं |काष्ठ के कमंडल का प्रयोग भी होता रहा है |वर्तमान में फाइवर के कमंडल प्रचलन में हैं |धातु के कमंडल का प्रयोग जैन परंपरा में नहीं होता है |
शास्त्रों में इस कमंडल की हर पंद्रह दिन में अन्दर बाहर दोनों तरह से प्रक्षालन का भी निर्देश किया गया है ताकि इसमें सूक्ष्म जीवों की उत्पत्ति न हो |ऐसा न करने पर मुनियों को प्रायश्चित्त लेने का भी विधान है | श्रवणबेलगोला (कर्णाटक ) तथा देवगढ़ ,ललितपुर (उ.प्र.)में आचार्य ,उपाध्याय और साधुओं की प्राचीन प्रतिमाएं उपलब्ध हैं जिनमें उनके पास कमंडल रखा हुआ है | एक प्राचीन मूर्ति क्षुल्लिका की भी प्राप्त होती है जिसमें कमंडल साथ में रखा हुआ है |
कमंडल मध्य से मोटा तथा एक  छोर से पतला होता है | मोटे स्थल के ऊपरी भाग पर एक बड़ा सा गोल छेद होता है जिसमें उबला हुआ जल भरा जाता है और उसके ऊपर एक ढक्कन लगा दिया जाता है | जल निकलने का स्थान बहुत पतला होता है ,जल लेने के अनंतर उसके निकास द्वार को भी एक ढक्कन से बंद करने की सुविधा होती है ताकि जीवादि उसमें प्रवेश न कर सकें |आचार्य विद्यानंद जी(21वीं शती) की एक महत्त्वपूर्ण कृति ‘पिच्छी-कमंडलु’ इस सम्बन्ध में विशेष पठनीय है |
कभी कभी सामान्य जन में यह भ्रम खड़ा हो जाता है कि कमंडल का जल पीने के काम आता होगा अतः उन्हें यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि जैन मुनि दिन में एक समय आहार काल में ही उस शुद्ध गरम  जल का ग्रहण करते हैं जिन्हें गृहस्थ विधि पूर्वक प्रदान करते हैं | कमंडल का जल मात्र शौच क्रिया मल-मूत्र विसर्जन के उपरांत हस्त पाद प्रक्षालन के लिए शुद्धि हेतु किया जाता है ,उस जल का अन्य प्रयोग वर्जित है |

            प्रो अनेकांत कुमार जैन ,नई दिल्ली 
संदर्भ 

 1.जिनलिंगं नग्नरूपमर्हन्-मुद्रामयूरपिच्छिकमंडलुसहितं निर्मलं कथ्यते | (भावपाहुड गाथा 79 की संस्कृत टीका)   

2. पोथइकमंडलाइं, गहणविसग्‍गेसु पयतपरिणामो।
  आदावणणिक्‍खेवणसमिदी होदित्ति णिद्दिट्ठा ।। नियमसार गाथा 64

3. प्रक्षालन निमित्तं कुंडिकादिद्रव्यं | (मूलाचार वृत्ति 1/14) ,
विशेष दृष्टव्य -मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन –प्रो फूलचंद जैन प्रेमी,वाराणसी ,पृष्ठ 412 

4. प्रायश्चित्त समुच्चय, श्लोक 88 

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