सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

सितंबर, 2018 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

मिच्छामि दुक्कडं और ‘पर्युषण पर्व’ कहना गलत नहीं है’

सादर प्रकाशनार्थ ‘ मिच्छामि दुक्क डं’ और   ‘ पर्युषण पर्व ’  कहना गलत नहीं है’ प्रो.अनेकांत कुमार जैन अध्यक्ष-जैनदर्शन विभाग श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ नई दिल्ली -१६,  drakjain2016@gmail.com     वर्तमान में दिगंबर जैन समाज में व्यवहार में मूल प्राकृत आगमों के शब्दों के प्रायोगिक अभ्यास के अभाव कई प्रकार की भ्रांतियां  उत्पन्न हो रही हैं जिस पर गम्भीर चिन्तन मनन आवश्यक है |   मैं इस विषयक में कुछ स्पष्टीकरण देना चाहता हूँ - १. एक  भ्रान्ति  यह फैल रही है कि  ‘ मिच्छामि दुक्क डं’  शब्द श्वेताम्बर परंपरा से आया है |कारण यह है कि श्वेताम्बर श्रावकों में मूल प्राकृत के प्रतिक्रमण पाठ पढने का अभ्यास ज्यादा है | दिगंबर परंपरा में यह कार्य मात्र मुनियों तक सीमित है | दिगंबर श्रावक भगवान् की पूजा ज्यादा करते हैं ,कुछ श्रावक प्रतिक्रमण करते हैं तो हिंदी अनुवाद ही पढ़ते हैं ,मूल प्राकृत पाठ कम श्रावक पढ़ते हैं अतः  ‘ मिच्छामि दुक्क डं’  का प्रयोग श्वेताम्बर समाज में ज्यादा प्रचलन में आ गया जबकि दिगंबर परंपरा के सभी प्रतिक्रमण पाठों में स्थान स्थान पर  ‘ म

हिंदी साहित्य आई सी यू में है

हिंदी साहित्य आई सी यू में है अपनी ही डायरी के पुराने पन्ने पलट के अपनी ही 20 -25 वर्ष पुरानी कविताएं पढ़ते हैं तो आश्चर्य होता है और सोचता हूँ इतनी गहरी संवेदना और अभिव्यक्ति कला क्या पुनर्जीवित हो सकती है ? आज संदर्भ भी बदल गये और प्रसंग भी । अब वो खुद की दुनिया में ,खुद ही राजा बनकर रहने का जुनून भी कहाँ से लाया जाए । यथार्थ के दलदल में ऐसे फँसे कि फ़साने बुनना कब छूट गया पता ही नहीं चला ।  पहले कविता का केंद्र चाहे जो रहा हो लेकिन उसमें अभिव्यक्त रोष,कुंठा,प्रेम,आग,बगावत ये सब डायरी की दीवार में कैद अपनी खिचड़ी बनाते रहे और भले ही ये प्रकाशन में न आ पाए हों, युग को कोई राह न् दिखा पाए हों लेकिन इस अभिव्यक्ति ने हमें निराशा और कुंठाओं से मुक्त रहने और तनाव रहित जीवन जीने में, जीवन निर्माण में बहुत बड़ा योगदान दिया । यह लाभ उन मित्रों को भी मिला जो उन छंद रचनाओं के साक्षी रहे । हमेशा हिंदी में लिखा ,इसलिए हिंदी के खुद के साहित्य  का मूल्यांकन खुद ही करने बैठा हूँ । इस तरह का साहित्य जो कभी प्रकाशित नहीं हुआ । जो कभी काव्य संग्रह की शक्ल नहीं पा सका । कुछ इक्का दुक्का वो ही रचनाएं पत्र