हिंदी साहित्य आई सी यू में है
अपनी ही डायरी के पुराने पन्ने पलट के अपनी ही 20 -25 वर्ष पुरानी कविताएं पढ़ते हैं तो आश्चर्य होता है और सोचता हूँ इतनी गहरी संवेदना और अभिव्यक्ति कला क्या पुनर्जीवित हो सकती है ? आज संदर्भ भी बदल गये और प्रसंग भी । अब वो खुद की दुनिया में ,खुद ही राजा बनकर रहने का जुनून भी कहाँ से लाया जाए । यथार्थ के दलदल में ऐसे फँसे कि फ़साने बुनना कब छूट गया पता ही नहीं चला । पहले कविता का केंद्र चाहे जो रहा हो लेकिन उसमें अभिव्यक्त रोष,कुंठा,प्रेम,आग,बगावत ये सब डायरी की दीवार में कैद अपनी खिचड़ी बनाते रहे और भले ही ये प्रकाशन में न आ पाए हों, युग को कोई राह न् दिखा पाए हों लेकिन इस अभिव्यक्ति ने हमें निराशा और कुंठाओं से मुक्त रहने और तनाव रहित जीवन जीने में, जीवन निर्माण में बहुत बड़ा योगदान दिया । यह लाभ उन मित्रों को भी मिला जो उन छंद रचनाओं के साक्षी रहे ।
हमेशा हिंदी में लिखा ,इसलिए हिंदी के खुद के साहित्य का मूल्यांकन खुद ही करने बैठा हूँ ।
इस तरह का साहित्य जो कभी प्रकाशित नहीं हुआ । जो कभी काव्य संग्रह की शक्ल नहीं पा सका । कुछ इक्का दुक्का वो ही रचनाएं पत्र पत्रिकाओं में छपीं जिन्हें सार्वजनिक करने में कोई बुराई नज़र नहीं आयी । कभी मंच पर भी वे ही काव्य सुना पाए जिनसे लोगों का मनोरंजन हो सके । लेकिन इन रचनाओं को मैं साहित्य कभी नहीं मान पाया । जो रचना दिल से लिखी वह न तो कहीं छप सकी और न ही कहीं सुनाई जा सकी । धर्म दर्शन से सम्बंधित रचनाएं भी कृत्रिमता और कोरे बनावटी आदर्श से ओतप्रोत रहीं और सराही भी गयीं । एक ओहदे पर आने के बाद भी कविता क्षतिग्रस्त हुई । हमेशा यही संकोच बना रहा कि मेरी इस उन्मुक्त अभिव्यक्ति से पद और प्रतिष्ठा पर प्रश्न उठेंगे । कारां घटने की बजाय बढ़ते चले गए । धीरे धीरे एक कवि मरता चला गया । अब वर्तमान में फ़ेकबुक और भ्रष्टअप्प की वर्चुअल मायावी दुनिया में वाल पर कभी कभी दो चार लाइन लिखकर यह बताया जाता है कि सांसे बस चल रहीं हैं लेकिन हिंदी साहित्य और कवि दोनों आई सी यू में है ।
- अनेकान्त
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