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सिर्फ भाई बहन का त्योहार नहीं है रक्षाबंधन

सिर्फ भाई बहन का त्योहार नहीं है रक्षाबंधन (  इस लेख को बिना बदले ,बिना कुछ जोड़े या घटाए ,लेखक के नाम सहित कोई भी  पत्र पत्रिका अखबार वेबसाइट आदि प्रकाशन हेतु स्वतंत्र हैं । प्रकाशन के अनन्तर इसकी सूचना 9711397716 पर अवश्य देवें )  - धन्यवाद ) प्रो . डा. अनेकान्त कुमार जैन,नई दिल्ली  रक्षा शब्द सुनते ही कई बातें सामने आने लगती हैं. राष्ट्र और धर्म की रक्षा ,जीवों की रक्षा ,समाज और परिवार की रक्षा,भाषा और संस्कृति की रक्षा  आदि आदि ।  रक्षाबंधन पर्व भारतीय संस्कृति का एक प्रमुख पर्व है। आम तौर पर भाई के द्वारा बहन की रक्षा और इसके लिए बहन के द्वारा भाई को रक्षा सूत्र या राखी बांधने का रिवाज ही रक्षा बंधन पर्व माना और कहा जाता है । किन्तु यह बहुत कम लोग जानते हैं कि भाई बहन के आलावा भी प्राचीन भारतीय संस्कृति में यह कई कारणों से मनाया जाता है । इस पर्व से सम्बन्धित अनेक कहानियां प्रसिद्ध हैं। रक्षा शब्द सुनते ही कई बातें सामने आने लगती हैं. राष्ट्र और धर्म की रक्षा ,जीवों की रक्षा ,समाज और परिवार की रक्षा,भाषा और संस्कृति की रक्षा  आदि आदि ।   जैन धर्म में भी यह पर्व अत्यन्त

वर्तमान में बढ़ते मंदिर और मूर्तियों का औचित्य

                                                              वर्तमान में बढ़ते मंदिर और मूर्तियों का औचित्य                                                                        प्रो अनेकांत कुमार जैन ,नई दिल्ली जैन परंपरा में मंदिर और मूर्ति निर्माण का इतिहास बहुत पुराना है | खारवेल के हाथी गुम्फा अभिलेख में कलिंग जिन की मूर्ति वापस लाने का उल्लेख है | वर्तमान में सबसे प्राचीन जैन मूर्ति पटना के लोहनीपुर स्थान से प्राप्त हुई है। यह मूर्ति मौर्यकाल   की है और पटना म्यूजियम में रखी हुई है। इसकी चमकदार पालिस अभी तक भी ज्यों की त्यों बनी है। लाहौर , मथुरा , लखनऊ , प्रयाग आदि के म्यूजियमों में भी अनेक जैन मूर्तियाँ मौजूद हैं। इनमें से कुछ गुप्तकालीन हैं। श्री वासुदेव उपाध्याय ने लिखा है कि मथुरा में २४वें तीर्थंकर वर्धमान महावीर की एक मूर्ति मिली है जो कुमारगुप्त के समय में तैयार की गई थी। वास्तव में मथुरा में जैनमूर्ति कला की दृष्टि से भी बहुत काम हुआ है। श्री रायकृष्णदास ने लिखा है कि मथुरा की शुंगकालीन कला मुख्यत: जैन सम्प्रदाय की है। खण्डगिरि और उदयगिरि में ई. पू. १८८-३० तब क

आत्मानुभूति का महापर्व है दशलक्षण

  आत्मानुभूति   का महापर्व है दशलक्षण      प्रो अनेकांत कुमार जैन,नई दिल्ली  जैन परंपरा के लगभग सभी पर्व हमें सिखाते हैं कि हमें संसार में बहुत आसक्त होकर नहीं रहना चाहिए । संसार में रहकर भी उससे भिन्न रहा जा सकता है जैसे कमल कीचड़ में रहकर भी उससे भिन्न होकर खिलता है । यह कार्य अनासक्त भाव से रहने की कला जानने वाला सम्यग्दृष्टि साधक मनुष्य बहुत अच्छे से करता है । दशलक्षण पर्व भेद विज्ञान करना सिखाता है , वह कहता है कि पाप से बचने का और कर्म बंधन से छूटने का सबसे अच्छा उपाय है-भेद विज्ञान की दृष्टि ।   मूलाचार ,भगवती आराधना आदि दिगंबर परंपरा के आगमों में दसवें कल्प का नाम प्राकृत में   पज्जोसवणा लिखा है ,इसका संस्कृत रूप पर्युषणकल्प है , जिसका अभिप्राय है वर्षाकाल में चार महीने भ्रमण त्याग कर एक स्थान पर वास । पर्युषण का अर्थ चातुर्मास से लगाया जा सकता है । अतः इस दौरान जो भी पर्व आते हैं उन्हें पर्युषण पर्व कहा जा सकता है ।आठ दिन आत्मा की आराधना करने वाले श्वेताम्बर संप्रदाय में इस पर्व को पर्युषण पर्व ही कहा जाता है । दशलक्षण भी इन्हीं चातुर्मास में आते हैं अतः उसे भ