वस्तु का
भेदाभेदात्मक स्वभाव
(लघीयस्त्रय
के विशेष सन्दर्भ में )
प्रो अनेकांत कुमार जैन
जो
वस्तु जैसी है उसका जो स्वभाव है उसे उसी रूप से जान लेना और मान लेना ही
सम्यज्ञान और सम्यग्दर्शन है | प्रमेयात्मक वस्तु के स्वरुप की चर्चा में अनेक
दार्शनिक मतवाद प्रसिद्ध हैं | कोई उसे नित्य कहता है तो कोई अनित्य कहता है | कोई
भेद स्वरुप व्याख्यायित करता है तो कोई उसे अभेद स्वरुप ही समझता और कहता है |
इसका कारण यह समझ में आता है कि एकान्तवाद के कारण अन्य दार्शनिक वस्तु स्वरुप का
वास्तविक स्पर्श चाहते हुए भी नहीं कर पा रहे हैं |
जैनाचार्यों का मानना है
कि हमारा मुख्य उद्देश्य सत्य का साक्षात्कार करना है अन्य मतवादों का खंडन
नहीं,हम वस्तु के वास्तविक स्वरुप को खोजना चाहते हैं ,उसे जानना चाहते हैं | इस
स्वरुप अनुसन्धान में यदि कोई समस्या आती है तो उसके समाधान में हम अन्य
दार्शनिकों की भूलों या कमियों की समीक्षा करते हैं | वीतरागी आचार्य अन्य
दार्शनिकों को उस व्यापक अनेकांत दृष्टि से परिचित करवाना चाहते हैं जिसके अभाव में
वे वस्तु के सिर्फ एक पक्ष की व्याख्या कर पा रहे हैं,और अपने पक्ष के दुराग्रह के
कारण वे सत्य के जिज्ञासु होने के कारण भी चाहते हुए भी वास्तविक सत्य का दर्शन और
उद्घाटन नहीं कर पा रहे हैं | आचार्य अकलंक आदि अनेक जैन नैयायिक आचार्य वस्तु
स्वभाव उद्घाटन की पवित्र भावना से बिना किसी राग द्वेष के एक मात्र उद्घोष करते
हैं –
पक्षपातो न मे
वीरे ,न द्वेषः कपिलादिषु |
युक्तिमदवचनं
यस्य तस्य कार्यपरिग्रहः ||
अर्थात् मेरा वीर प्रभु से
कोई पक्षपात नहीं है और कपिल आदि दार्शनिकों से कोई मतभेद नहीं है |हमें तो जिसके
वचन युक्तियुक्त ठहरेंगे ,वह बात ग्रहण करनी है |
वस्तु में जिस दृष्टि से
भेद है उस दृष्टि से अभेद नहीं है और जिस दृष्टि से अभेद है उस दृष्टि से भेद नहीं
है – यह जितना स्पष्ट है उतना ही स्पष्ट यह तथ्य है कि यदि समग्र दृष्टि से देखें
तो वस्तु भेदाभेदात्मक कहना पड़ेगा ,क्यों कि इसके बिना उसका स्वरुप निर्धारण ही
नहीं होता है |
वस्तु सामान्य और
विशेषात्मक दोनों रूप है[1] इसमें
सामान्य का बोध अभेद रूप से होगा और और विशेष का बोध भेद से होगा | आचार्य अकलंक इसे ही द्रव्य-पर्यायात्मा कहते
हुए कहते है – तद् द्रव्यपर्यायात्मार्थो बहिरंतश्च
तत्त्वतः | [2]
यहाँ अर्थ यानि वस्तु को
द्रव्यपर्यायात्मा कहा है और यह कहने का प्रयास किया गया है अर्थ ,वस्तु या पदार्थ
सिर्फ द्र्व्यात्मा नहीं है और न ही वह सिर्फ पर्यायात्मा है बल्कि वह द्रव्यपर्यायात्मा
है , प्रमाण के द्वारा जानने योग्य द्रव्यपर्यायात्मा अर्थ अर्थात् वस्तु या
प्रमेय है |
वस्तु को द्रव्य की
अपेक्षा नित्य और अभेद तथा पर्याय कि अपेक्षा अनित्य और भेद रूप नहीं स्वीकार करने
पर वस्तु में क्रम और अक्रम दोनों से ही अर्थक्रिया संभव नहीं है , इसके अभाव में
वस्तु असत् ठहरती है –
अर्थक्रिया न
युज्येत नित्य क्षणिक पक्षयो|
क्रमाक्रमाभ्यां
भावानां सा लक्षणतया मता ||[3]
और स्वयं बौद्ध दर्शन में अर्थक्रिया को
परमार्थभूत वस्तु का लक्षण माना गया है ,एकांत रूप से क्षणिक पदार्थ में
अर्थक्रिया संभव नहीं है ,ऐसी परिस्थिति में बौद्ध स्वयं ही अपने सिद्धांत को
सुरक्षित नहीं कर पा रहे हैं | आचार्य अकलंक देव स्वयं अपनी इसी कारिका की
विवृत्ति में यह बात स्पष्ट कहते हैं –
‘अर्थक्रियासमर्थं
परमार्थसत्’ अंगीकृत्य स्वपक्षे पुनरर्थक्रियां स्वयमेव निराकुर्वन् कथं
अनुन्मत्तः ?[4]
और
वस्तु के एकांत नित्य
पक्ष
को भी देखें तो एकांत
नित्य
वस्तु भी न तो क्रम से ही कोई कार्य कर सकती है और न ही अक्रम(युगपत )रूप से क्यों
कि ऐसी स्थिति में एक ही क्षण में युगपत सभी कार्यों की उत्पत्ति का प्रसंग
उपस्थित हो जायेगा और अनंतर क्षणों में कुछ भी करने के लिए कार्य शेष ही नहीं
रहेगा |और
यदि ऐसा होगा तो वह अर्थक्रिया से शून्य हो जायेगा और इस प्रकार अवस्तु ठहरेगा |
प्रश्न यह भी हो सकता है कि जो वस्तु नित्य और
एक ,अभेद
रूप है वही वस्तु अनित्य और अनेक ,भेद रूप कैसे हो सकती है ?
इस तरह के प्रश्नों के समाधान के लिये आचार्य
अकलंक 9 वीं
कारिका के पूर्व उसकी उत्थानिका में ही उसका समाधान करते हुए कहते हैं -
'नाभेदेऽपि विरुद्धयेत विक्रियाऽविक्रियैव वा |'
भेद और अभेद में भी विक्रिया और अविक्रिया के
होने में कोई विरोध नहीं है |पंडित कैलाश चंद शास्त्री जी इसका विशेषार्थ करते हुए कहते हैं कि पूर्व आकार
को छोड़ कर उत्तर आकार को ग्रहण करने का नाम विक्रिया या विकार है और पूर्व या उत्तर
आकारों में अनुस्यूत रहने का नाम अविक्रिया या अविकार है |[5]
वस्तु कथंचित भेदात्मक है ,कथंचित अभेदात्मक है
,कथंचित नित्य है कथंचित अनित्य है और कथंचित सदसदात्मक है ,ऐसी अनेकांत दृष्टि मानेंगे
तभी उसमें अर्थक्रिया संभव है |
ऐसा नहीं है कि अन्य बौद्ध आदि दार्शनिक अपने अन्य
सिद्धांतों में इस तरह की अनेकांत दृष्टि न स्वीकार करते हों ,करते हैं ,क्यों कि इस
दृष्टि के बिना सिद्धांत स्थिर नहीं हो सकता है ,किन्तु वे अनेकांत को सिद्धांत रूप
में स्वीकृति प्रदान नहीं करते हैं ,इसलिए ही परेशान रहते हैं |
उदाहरण के लिए विज्ञानवादी बौद्ध
यह मानते हैं कि ज्ञान बह्याकार विषय की अपेक्षा मिथ्या और स्वरुप के अवलंबन की अपेक्षा
सत्य होता है ,यहाँ एक ही ज्ञान अपेक्षा भेद से मिथ्या और सत्य दोनों हैं |वे मानते
हैं कि ज्ञान स्वरुप कि अपेक्षा अदृश्य और ग्राह्य आकार की अपेक्षा दृश्य होता है,
यहाँ एक ही ज्ञान अपेक्षा भेद से अदृश्य और दृश्य दोनों हो रहा है |इसी प्रकार ग्राह्य
–ग्राहक आकार की अपेक्षा वह भेद रूप और ज्ञान की अपेक्षा अभेद रूप होता है |
आचार्य अकलंक इस बात को उठाकर बौद्धों को यह समझाना
चाहते हैं कि अनेकान्तात्मक वस्तु का समर्थन किये बिना वे अपने चित्र ज्ञान के सिद्धांत
को स्थिर नहीं कर पा रहे हैं,अतः अपने ही सिद्धांत को सिद्ध करने के लिए उन्हें अनेकांत
का अवलंबन लेना पड़ ही रहा है तब अन्यत्र वे इसे यानि वस्तु की भेदाभेदात्मकता को स्वीकार
क्यों नहीं कर लेते | वे लिखते हैं –
मिथ्येतरात्मकं
दृश्यादृश्यभेदेतरात्मकम् |
चित्तं
सदसदात्मैकं तत्त्वं साधयति स्वतः ||[6]
[1] सामान्यविशेषात्मा तदर्थो विषयः | - परीक्षामुख ४/१
[2] लघीयस्रय,प्रमाण प्रवेश ,प्रमेय परिच्छेद ,७
[3] वही,८
[4] वही कारिका ८ की विवृत्ति
[5] लघीयस्रय,पृष्ठ २४
[6] लघीयस्त्रय, प्रमाण प्रवेश ,प्रमेय परिच्छेद ,९
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