वर्तमान
में बढ़ते मंदिर और मूर्तियों का औचित्य
प्रो अनेकांत कुमार जैन ,नई दिल्ली
जैन
परंपरा में मंदिर और मूर्ति निर्माण का इतिहास बहुत पुराना है |खारवेल के हाथी गुम्फा अभिलेख में कलिंग जिन की मूर्ति वापस लाने का
उल्लेख है | वर्तमान में सबसे प्राचीन जैन मूर्ति
पटना के लोहनीपुर स्थान से प्राप्त हुई है। यह मूर्ति मौर्यकाल की है और पटना म्यूजियम में रखी
हुई है। इसकी चमकदार पालिस अभी तक भी ज्यों की त्यों बनी है। लाहौर, मथुरा, लखनऊ, प्रयाग आदि के
म्यूजियमों में भी अनेक जैन मूर्तियाँ मौजूद हैं। इनमें से कुछ गुप्तकालीन हैं।
श्री वासुदेव उपाध्याय ने लिखा है कि मथुरा में २४वें तीर्थंकर वर्धमान महावीर की
एक मूर्ति मिली है जो कुमारगुप्त के समय में तैयार की गई थी। वास्तव में मथुरा में
जैनमूर्ति कला की दृष्टि से भी बहुत काम हुआ है। श्री रायकृष्णदास ने लिखा है कि
मथुरा की शुंगकालीन कला मुख्यत: जैन सम्प्रदाय की है।
खण्डगिरि
और उदयगिरि में ई. पू. १८८-३० तब की शुंगकालीन मूर्ति शिल्प के अद्भुत चातुर्य के
दर्शन होते हैं। वहाँ पर इस काल की कटी हुई सौ के लगभग जैन गुफाएं हैं जिनमें
मूर्ति शिल्प भी है। दक्षिण भारत के अलगामलै नामक स्थान में खुदाई से जो जैन
मूर्तियाँ उपलब्ध हुई हैं उनका समय ई. पू. ३००-२०० के लगभग बताया जाता है। उन
मूर्तियों की सौम्याकृति द्रविड़कला में अनुपम मानी जाती है। श्रवणबेलगोला की
प्रसिद्ध गोमटेश बाहुबली मूर्ति तो संसार की अद्भुत वस्तुओं में से है। वह अपने
अनुपम सौंदर्य और अद्भुत शांति से प्रत्येक व्यक्ति को अपनी ओर आकृष्ट कर लेती है।
वर्तमान
में यह एक सुखद सूचना है कि पहले की अपेक्षा कहीं अधिक पंचकल्याणक प्रतिष्ठा
महोत्सव आयोजित हो रहे हैं और मूर्तियों की स्थापनाएं ज्यादा हो रहीं हैं । पहले
एक एक छोटे छोटे से कार्य के लिए दान राशि बहुत मुश्किल से एकत्रित होती थी किन्तु
अब वो बात नहीं है ,बल्कि कितने ही स्थानों पर दान एकत्रित करने के मुख्य उद्देश्य से ही पंचकल्याणक
करवाये जा रहे हैं ।
पहले
शहर छोटे होते थे ,अतः एक मुख्य मंदिर ही पूरे शहर के लिए आस्था का केंद्र होता था ,किन्तु जैसे जैसे नगरों का विस्तार प्रारम्भ होता गया और नई नई कालोनियों
का निर्माण होता गया ,उसी शहर में नए मंदिरों की आवश्यकता
महसूस हुई । नित्य देव दर्शन के संकल्पों के कारण और मूल मंदिर दूर होने के कारण
नवीन जिनालयों का निर्माण एक आवश्यकता बनता चला गया और उनके निमित्त से धर्म
प्रभावना भी बढ़ती चली गई । इस पर मूल पुराने मंदिरों में उपस्थिति भी निरंतर कम
होती चली गई और उधर से यह स्वर भी ध्वनित होते रहे कि नए के कारण ऐसा हुआ
।
सवाल
सिर्फ नए मंदिरों का नहीं है और नई मूर्तियों का नहीं है । आवश्यकता और धर्म
प्रभावना के निमित्त इनके नवीन निर्माण के प्रति सवाल उठाना भी पाप लगता है किन्तु
जहाँ मंदिर और मूर्ति की आवश्यकता नहीं है ,वहाँ सिर्फ अन्य प्रयोजनों से
मूर्तियाँ स्थापित करना भी बहुत अधिक तर्क संगत प्रतीत नहीं होता है |
विचार
कीजिये क्या मूर्ति प्रतिष्ठा का जब मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित हो तो क्या वह उचित
है ?
1. धनसंग्रह
2. मान -
प्रतिष्ठा
3. प्रतिस्पर्धा
4. कब्ज़ा
/आधिपत्य
5. आसपास की
प्रॉपर्टी के दाम बढ़ाना
6. प्रदर्शन
7.काले धन का निवेश इत्यादि
अत्यधिक
मंदिर मूर्ति से उत्पन्न समस्याएं -
1. अव्यवस्था
2.बहुमान में
कमी /अवमानना
3.प्रत्येक
मूर्ति पर नियमानुसार पूजन अभिषेक में कमी
4.श्रावक वर्ग
का विभाजन
5.साधु वर्ग
के मतभेद ,विभाजन
6. वास्तु आदि
अन्य नियमों की अवहेलना
7.भक्तों की
संख्या में कमी
8. भावों और
विशुद्धि में कमी
कुछ
सुझाव -
1. नियम
विरुद्ध जिन मंदिरों के निर्माण से परहेज करें ।
2.जो नियम से
दर्शन पूजन अभिषेक आदि का नियम ले उन्हें प्रतिष्ठा महोत्सवों में पात्र के रूप
में चयन किया जाय ।
3.जहां बहुत
अधिक आवश्यकता है वहाँ ही नए मंदिर का निर्माण हो ,पुराने
मंदिरों के जीर्णोद्धार पर अधिक ध्यान दिया जाय ।
4. एक ही
स्थान पर मूर्तियों की प्रतिष्ठा इतनी ज्यादा संख्या में न हो कि उनका महत्त्व कम
हो जाय ।
5.प्रतिष्ठा
का एक मात्र उद्देश्य धन संग्रह न हो ।
6.प्रतिष्ठा आदि के
लिए अब कुछ ऐसे नियम भी बनाने चाहिए कि दूसरी नवीन प्रतिमा की स्थापना का अधिकार
उसे ही होगा जो कम से कम सौ शिक्षण संस्कार शिविर लगाकर कम से कम 500-1000 नए भक्त
तैयार कर ले |
7. भगवान् बढ़ते रहें
और भक्त घटते जाएँ –यह अनुपात भविष्य में बहुत घातक सिद्ध हो सकता है |
वैकल्पिक
व्यवस्था भी रही है -
जिस प्रकार शास्त्रों में मूर्ति और मंदिर निर्माण
की लगभग सभी जगह बहुत प्रशंसा की गई है ,उसकी प्रेरणा दी गई हैं और कहा गया है कि –
कुत्थुं
भरिदलभेत्ते जिणभवणे जो ठवेइ जिणपणिमं।
सरिसवमेत्तं
पि लहेइ सो णरो तित्थयरपुण्णं।।
जो पुण जिणिंदभवणं समुण्णयं परिहि–तोरणसमग्गं।
णिम्मावइ
तस्स फलं को सक्कइ वण्णिउं सयलं।।[1]
अर्थात्
जो मनुष्य कुथुंम्भरी (धनिया) के दलमात्र अर्थात् पत्र बराबर जिनभवन बनवाकर उसमे
सरसों के बराबर भी जिनप्रतिमा को स्थापित करता है, वह तीर्थंकर
पद पाने के योग्य पुण्य को प्राप्त करता है, तब जो कोई अति
उन्नत और परिधि, तोरण आदि से संयुक्त जिनेन्द्र भवन बनवाता
है, उसका समस्त फल वर्णन करने के लिए कौन समर्थ हो सकता है? वहीँ शास्त्रों में ऐसे प्रमाण भी हैं जो ज्यादा मूर्ति निर्माण और उसकी
पूजा के अतिरेक को संयमित करने में हमारी मदद कर सकते हैं – जयधवला टीका में लिखा है -अणंतेसु जिणेसु एयवंदणाए सव्वेसिं पि
वंदणुववत्तीदो।[2] अर्थात् एक
जिन व जिनालय की वंदना से सबकी वंदना हो जाती है | सागार धर्मामृत में पंडित आशाधर
जी कहते हैं –
ये
यजंते श्रुतं भक्त्या, ते यजंतेऽजसा जिनम्।
न
किंचिदंतरं प्राहुराप्ता हि श्रुतदेवयोः।।[3]
जो
पुरुष भक्ति से जिनवाणी को पूजते हैं, वे पुरुष वास्तव
में जिन भगवान् को ही पूजते हैं, क्यों कि सर्वज्ञदेव
जिनवाणी और जिनेंद्रदेव में कुछ भी अंतर नहीं करते हैं। आचार्य योगेंदु देव कहते हैं
-
देउ
ण देउले णवि सिलए णवि लिप्पइ णवि चित्ति।
अखउ
णिरंजुण णाणमउ सिउ संठिउ सम-चित्ति।।[4]
आत्मदेव
देवालय में नहीं है,
पाषाण की प्रतिमा में भी नहीं है, लेप में
नहीं है, चित्राम की मूर्ति में भी नहीं है। वह देव अविनाशी
है, कर्म अंजन से रहित है, केवलज्ञान
कर पूर्ण है, ऐसा निज परमात्मा समभाव में तिष्ठ रहा है। यही आचार्य
योगसार में कहते हैं कि -
तिथहिं
देवलि देउ णवि इम सुइकेवलि वुत्तु।
देहा-देवलि
देउ जिणु एहउ जाणि णिरुतु।।[5]
श्रुतकेवली ने कहा कि तीर्थों में, देवालयों में देव
नहीं हैं, जिनदेव तो देह-देवालय में विराजमान हैं। बोधपाहुड की टीका में कुछ उद्धरण दिए हैं [6]-
न देवो
विद्यते काष्ठ न पाषाणे न मृण्मये।
भावेषु
विद्यते देवस्तस्माद्भावो हि कारणं।।
काष्ठ
की प्रतिमा में,
पाषाण की प्रतिमा में अथवा मिट्टी की प्रतिमा में देव नहीं है। देव
तो भावों में है। इसलिए भाव ही कारण है।।
भावविहूणउ
जीव तुहं जइ जिणु बहहि सिरेण।
पत्थरि
कमलु कि निप्पजइ जइ सिंचहि अमिएण।।
हे
जीव! यदि भाव रहित केवल शिर से जिनेंद्र भगवान् को नमस्कार करता है तो वह निष्फल
है,
क्योंकि क्या कभी अमृत से सींचने पर भी कमल पत्थर पर उत्पन्न हो
सकता है। ।
उपसंहार
मेरा
विनम्र अनुरोध है कि इस आलेख को जिन मंदिर मूर्ति निर्माण के विरोध में न समझा जाय
| उसकी महिमा और उपयोगिता असंदिग्ध है | किन्तु अतिरेकवशात उसमें कुछ विसंगतियां
उत्पन्न होती जा रहीं हैं उन पर भी विचार बहुत जरूरी हो गया है |मैं स्वर्ण की और
बहुमूल्य प्रतिमाएं स्थापित करने की अनुमोदना करता हूँ ,किन्तु उसकी सुरक्षा को
लेकर भी चिंतित रहता हूँ |उसके कारण उसे तालों में बंद रखना होता है ,ज्यादा
सार्वजनिक करने में भी भय रहता है | कई तरह के प्रतिबन्ध लगाने ही होते हैं | अतः
उस निर्माण का जो मूल प्रयोजन था कि लोगों को दर्शन मिलें ,वीतराग भाव का विकास हो
,उसमें कुछ बाधा सी दिखती है |वैसी बाधा पाषाण की प्रतिमा में नहीं आती ,अतः कुछ
चिंता होती है |
गिरनार
,पावागढ़ आदि लोकतंत्र में भी हमारी आँखों के सामने हमसे छीन लिए गए हैं ,सम्मेद
शिखर तक खतरे में है | कभी कभी तो लगता है कि कहीं हम करोड़ों रूपए खर्च करके अन्य
धर्मों के लिए तो नए तीर्थ नहीं बना रहे
?जिस तेजी से जनसंख्यादर हमारी कम हो रही है हम उसकी दूनी रफ़्तार से नवीन तीर्थों
का निर्माण कर रहे हैं |
जैन
मंदिर यदि नए जैन बनाने में कारगर होते तो भी उनकी अधिक उपयोगिता हो सकती
थी,किन्तु अधिकांश जगह हालत ये है कि नए छोडिये पुराने भी कायम रखना कठिन हो रहा
है |हम कोई ऐसे कार्य नहीं कर पा रहे हैं जिनसे धार्मिकों में वृद्धि हो प्रत्युत
आपसी संघर्ष के दुष्परिणाम स्वरुप अपने भी बिछुड़ रहे हैं |मंदिर धर्म और ज्ञान
क्रांति के केंद्र बनने चाहिए तो वे कलह क्रांति के गढ़ बनते जा रहे हैं |
अब हमें आचार्य समन्तभद्र का
एक ही सूत्र ‘ न धर्मो धार्मिकै: विना’ की माला जपनी चाहिए,मैं सोचता हूँ उन्होंने
‘ न धर्मो मंदिरै: विना’ क्यों नहीं लिखा ? उन्हें पता था चेतन तीर्थों के बिना
अचेतन तीर्थों का कोई खास औचित्य नहीं है अतः तीर्थों का एक उद्देश्य यह भी होता
है कि धर्मी जनों की वृद्धि हो |यदि यह उद्देश्य कहीं खो गया है तो उसे पुनर्जीवित
किया जाय तभी नए तीर्थों और मूर्तियों का औचित्य ज्यादा सिद्ध होगा |
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