आत्मानुभूति
का महापर्व है दशलक्षण
प्रो अनेकांत कुमार जैन,नई दिल्ली
जैन परंपरा के लगभग सभी पर्व हमें सिखाते हैं कि हमें संसार में
बहुत आसक्त होकर नहीं रहना चाहिए । संसार में रहकर भी उससे भिन्न रहा जा सकता है
जैसे कमल कीचड़ में रहकर भी उससे भिन्न होकर खिलता है । यह कार्य अनासक्त भाव से
रहने की कला जानने वाला सम्यग्दृष्टि साधक मनुष्य बहुत अच्छे से करता है । दशलक्षण पर्व
भेद विज्ञान करना सिखाता है , वह कहता है कि पाप से बचने का और कर्म बंधन से छूटने
का सबसे अच्छा उपाय है-भेद विज्ञान की दृष्टि ।
मूलाचार
,भगवती आराधना आदि दिगंबर परंपरा के आगमों में
दसवें कल्प का नाम प्राकृत में पज्जोसवणा लिखा
है ,इसका संस्कृत रूप पर्युषणकल्प है , जिसका अभिप्राय है वर्षाकाल में चार महीने
भ्रमण त्याग कर एक स्थान पर वास । पर्युषण का अर्थ चातुर्मास से लगाया जा सकता है ।
अतः इस दौरान जो भी पर्व आते हैं उन्हें पर्युषण पर्व कहा जा सकता है ।आठ दिन
आत्मा की आराधना करने वाले श्वेताम्बर संप्रदाय में इस पर्व को पर्युषण पर्व ही
कहा जाता है । दशलक्षण भी इन्हीं चातुर्मास में आते हैं अतः उसे भी उपचार से
पर्युषण पर्व कह दिया जाता है । पर्युषण का शाब्दिक अर्थ है-
‘परि आसमंतात् उष्यन्ते दह्यन्ते पाप कर्माणि
यस्मिन् तत् पर्युषणम्’
अर्थात् जो आत्मा में रहने वाले कर्मों को
सब तरफ से तपाये या जलाये, वह पर्युषण
है । दशलक्षण पर्व में दस दिन तक आत्मा के दश लक्षणों की उपासना की जाती है ।
प्राय: प्रत्येक पर्व का संबंध किसी न किसी घटना,
किसी की जयंती या मुक्ति दिवस से होता है। दशलक्षणमहापर्व का
संबंध इनमें से किसी से भी नहीं है क्योंकि यह स्वयं की आत्मा की आराधना का पर्व है।दशलक्षण
पर्व आत्मा (अंतस) तथा उसे ज्ञान दर्शन चैतन्य स्वभावी मानने वालों के लिए अत्यंत
महत्वपूर्ण है। जैन परंपरा में इन दिनों श्रावक-श्राविकाएं,
मुनि-आर्यिकाएं
(जैन साध्वी) पूरा प्रयास करते हैं कि आत्मानुभूति को पा जाएं,
उसी
में डूबें तथा उसी में रम जाएं।
धम्मस्स दसलक्खणं खमा
मद्दवाज्जवसउयसच्चा
।
संजमतवचागाकिंयण्हं बंभं
य जिणेहिं उत्तं ।
जिनेन्द्र भगवान् ने धर्म के दस लक्षण कहे हैं – उत्तम क्षमा ,
उत्तम मार्दव , उत्तम आर्जव, उत्तम शौच, उत्तम सत्य, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम
त्याग, उत्तम आकिंचन्य और उत्तम ब्रह्मचर्य ।
क्षमा,
मार्दव
(अहंकार रहित),
आर्जव
(सरलता),
सत्य,
शौच
(शुद्धि),
संयम,
तप,
त्याग,
आकिंचन्य
(परिग्रह का त्याग) और ब्रह्मचर्य जैसे दस लक्षण शुद्धात्मा के स्वभाव हैं,
किंतु
हम अपने निज स्वभाव को भूलकर परभाव में डूबे रहते हैं। अंतस के मूल शुद्ध स्वभाव को
प्राप्त करने के लिए ही यह
पर्व मनाया जाता है। पर्युषण पर्व सात्विक जीवन शैली के अभ्यास तथा आत्मानुभूति
करवाने के लिए प्रति वर्ष आता है।ऐसा कहा जाता
है कि इस विषम पंचम काल में भी जो इन दस धर्मों को यथा शक्ति धारण करता
है ,वह अतीन्द्रिय आनंद और अनेकांत स्वरूपी आत्मा को प्राप्त करता है –
धारइ जो दसधम्मो पंचमयाले णियसत्तिरूवेण ।
सो अणिंदियाणंदं लहइ अणेयंतसरूवं
अप्पं ।।
दशलक्षण पर्व वर्ष में तीन बार मनाया
जाता है। भाद्र, माघ तथा चैत्र
मास के शुक्ल पक्ष में पंचमी से लेकर चतुर्दशी तक दस दिन सभी भक्त अपनी-अपनी भक्ति
तथा शक्ति के अनुसार व्रत का पालन करते हैं। चातुर्मास स्थापना के कारण भादों में
आने वाले दशलक्षण महापर्व का महत्व वर्तमान में सर्वाधिक है। भाद्रपद
शुक्ल पंचमी से भाद्रपद शुक्ल चतुर्दशी तक दस दिन
यह पर्व दिगंबर संप्रदाय में विशेष रूप से मनाते
हैं इसे ही दशलक्षण महापर्व कहते हैं ।
दशलक्षण पर्व की शुरुआत कब से हुई? इस प्रश्र का उत्तर किसी तिथि या संवत् से नहीं दिया जा
सकता। ये शाश्वत पर्व है चूँकि आत्मा द्रव्यार्थिक नय (द्रव्य दृष्टि) से नित्य
अजर-अमर है और धर्म के दशलक्षणों का भी संबंध आत्मा से है। अत: जब से आत्मा है तभी
से यह पर्व है। अर्थात् अनादि अनन्त चलने वाला यह पर्व किसी जाति संप्रदाय या मजहब
से नहीं बंधा है। आत्मा को मानने वाले तथा उसे ज्ञान दर्शन चैतन्य स्वभावी मानने
वाले सभी लोग इस पर्व की आराधना कर सकते हैं।
पुराणों में दशलक्षणधर्म के व्रतों को पूर्ण करके मुक्त
होने वाले अनेक भव्य जीवों की कथायें प्रसिद्ध हैं। मृगांकलेखा, कमलसेना, मदनवेगा और रोहणी नाम की कन्याओं ने दशधर्मों की आराधना मुनिराज के वचनानुसार
की तो उनको भी अगले भव में इस पर्याय से मुक्ति मिली तथा आत्मानुभूति प्राप्त हुई।
इसके अलावा भी सैकड़ों उदाहरण हैं जिनसे यह पता लगता है कि सम्यग्दर्शन पूर्वक
दशलक्षण धर्म की आराधना करने वाले जीवों को मुक्ति प्राप्त हुई।
दशलक्षण पर्व की पूजन
दशलक्षण पर्व पर अन्य पूजनों के साथ साथ कुछ विशेष पूजनों को भी किया जाता है
| प्रातः काल जिनमंदिरों में सार्वजानिक रूप से जिनेन्द्र भगवान् का अभिषेक होता
है जिसमें श्रावक बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते हैं | उसके उपरांत संगीत और बाजे गाजे के
साथ सामूहिक पूजन पाठ भी बहुत भक्तिभाव पूर्वक होता है |नित्य नियम देव शास्त्र
गुरु आदि पूजन के साथ साथ इसमें लगभग सभी जगह पंडित द्यानतराय जी की दशलक्षण पूजन
अवश्य होती है ,सोलहकारण और रत्नत्रय पूजन भी अवश्य की जाती है |किन्हीं किन्हीं
स्थानों पर दशलक्षण विधान का भी विशेष आयोजन होता है |
दशलक्षण पर्व मनाने की व्रत विधि
दशलक्षण पर्व पर तीन प्रकार के व्रत किये जा सकते हैं। अपनी-अपनी शक्ति के
अनुसार गृहस्थ इसका चुनाव करते हैं। उत्तम, मध्यम तथा सामान्य की अपेक्षा से व्रत की तीन विधियां हैं—(1) उत्तम विधि—इसमें दस दिन का दस उपवास
रखा जाता है। इसमें अन्न तथा फल दूध इत्यादि किन्हीं भी पदार्थों का सेवन साधक
नहीं करता। कुछ साधक निर्जला उपवास भी करते हैं इसमें जल भी ग्रहण नहीं करते। यह
विधि किसी उत्तेजना प्रतिक्रिया अथवा क्रोधवश नहीं अपनानी चाहिए; अन्यथा व्रत
का उद्देश्य पूर्ण नहीं होता। सामान्य विधि तथा मध्यम विधि का कई बार अभ्यास हो
जाने पर ही उत्तम विधि को क्रम से अपनाना चाहिए।(2) मध्यम विधि—पंचमी, अष्टमी, एकादशी और
चतुर्दशी इन चार तिथियों में उपवास करना तथा शेष छह दिनों में एकाशन किया जाता है।
एकाशन का अर्थ है दिन में एक बार, एक आसन में बैठकर, शुद्ध सात्विक भोजन ग्रहण करना तथा दोबारा मुंह भी जूठा न करना।
(3) सामान्य विधि—दसों दिन मात्र एकाशन करना। इसके आलावा भी बाजार में बनी खाद्य वस्तुओं का भोग ना करना ,रात्रि में
भोजन नहीं करना तथा सामायिक करना आदि नियम भी लोग कड़ाई से पालते हैं.
स्वाध्याय की अनिवार्यता
उक्त तीनों विधियों को अपनाते समय सकुशल व्रत पूरे हों इसके लिए कुछ बातों की ओर भी ध्यान रखना चाहिए। कोई भी व्रत आकुलता-व्याकुलता में तथा जबरदस्ती न करें। अपना अधिकांश समय स्वाध्याय, पूजन तथा ध्यान करके बितायें।दशलक्षण पर्व पर शास्त्र प्रवचनों का भी विशेष आयोजन होता है। जैनदर्शन का मूलसूत्र ग्रन्थ है – तत्त्वार्थसूत्रम् , जिसकी रचना आचार्य उमास्वामि ने संस्कृत भाषा में प्रथम शताब्दी में की थी । इसमें दश अध्याय हैं ,पर्व के दस दिनों में इस ग्रन्थ का विशेष स्वाध्याय अनिवार्य माना गया है ।
नगर में यदि किन्हीं मुनिराज या आर्यिका (जैन साध्वी) जी का चातुर्मास हो रहा
हो तो उनके मुख से तत्वार्थसूत्र का शुद्ध उच्चारण तथा दशों अध्यायों का भलीभांति
सही अर्थ अवश्य समझ लेना चाहिए। दशधर्मों का मर्म भी वे समझाते हैं। यदि चातुर्मास
स्थापना नहीं हो तो किन्हीं शास्त्र पारंगत विद्वान पंडित जी को इन दशदिनों में
आमंत्रित कर उनका उचित सम्मान व सत्कार करके उनके मुख से तत्वार्थ सूत्र का सही
उच्चारण सीखना चाहिए। तत्वार्थसूत्र के दशों अध्यायों का एक बार मनोयोग पूर्वक पाठ
करने से एक उपवास का फल मिलता है।अपने आत्मा के समीप बैठने को भी ‘उपवास’ कहते हैं। यदि
क्रोध ,मान ,माया ,लोभ आदि सभी कषायों को त्याग कर स्वसन्मुख पुरुषार्थ की मुख्यता
से शुद्धात्मानुभूति के लिए हम पर्युषण महापर्व को मनायेंगे और शास्त्रोक्त विधि
से पालन करेंगे तो एक दिन अखण्ड शुद्ध बुद्ध सत् चित् आनन्द स्वभावी अपनी
शुद्धात्मा की अनुभूति अवश्य प्राप्त कर लेंगे|
अनंत चतुर्दशी
पर्व के अंतिम दिन को अनंत चतुर्दशी पर्व के रूप में मनाया जाता है | इस दिन
छोटे छोटे बच्चे भी उपवास रखते हैं और विशेष पूजन आदि करते हैं |
क्षमावाणी
पर्व
जैन परंपरा में दशलक्षण महापर्व के ठीक
एक दिन बाद एक महत्वपूर्ण पर्व मनाया जाता है वह है- क्षमा पर्व ।
जीवखमयंति
सव्वे खमादियसे च याचइ सव्वेहिं ।
‘मिच्छा
मे दुक्कडं ' च बोल्लइ वेरं
मज्झं ण केण वि ।।
क्षमा दिवस पर जीव सभी जीवों को क्षमा
करते हैं सबसे क्षमा याचना करते हैं और कहते हैं मेरे दुष्कृत्य मिथ्या हों तथा
मेरा किसी से भी बैर नहीं है |
इस
दिन श्रावक(गृहस्थ)और साधू दोनों ही
वार्षिक प्रतिक्रमण करते हैं ।पूरे वर्ष में उन्होंने जाने या अनजाने यदि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के
किसी भी सूक्ष्म से सूक्ष्म जीव के प्रति यदि कोई भी अपराध किया हो तो उसके लिए वह
उनसे क्षमा याचना करता है ।अपने दोषों की निंदा करता है और कहता है- ‘ मिच्छा
मे दुक्कडं
'
अर्थात्
मेरे सभी दुष्कृत्य मिथ्या हो जाएँ । वह प्रायश्चित भी करते
हैं ।इस प्रकार वह क्षमा के माध्यम से अपनी आत्मा से सभी पापों को दूर करके
,उनका
प्रक्षालन करके सुख और शांति का अनुभव करते हैं
। श्रावक प्रतिक्रमण में प्राकृत
भाषा में एक गाथा है-
'खम्मामि
सव्वजीवाणं सव्वे जीवा खमंतु मे ।
मित्ती मे
सव्वभूदेसु, वेरं मज्झं
ण केण वि ।'
अर्थात
मैं सभी जीवों को क्षमा करता हूं सभी जीव मुझे क्षमा करें। मेरा प्रत्येक प्राणी के प्रति
मैत्री भाव है,
किसी
के प्रति वैर भाव नहीं है
टिप्पणियाँ