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श्रुतावतार ग्रन्थ का महत्व और षट्खण्डागम का अवतरण

श्रुतावतार ग्रन्थ का महत्व और षट्खण्डागम का अवतरण          

प्रोफेसर फूलचंद जैन प्रेमी,वाराणसी

श्रीमद्- आचार्य इन्द्रनन्दि विरचित "श्रुतावतार" नामक  गौरवशाली ग्रन्थ श्रमण जैन परम्परा का महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक दस्तावेज है। एक सौ सत्तासी संस्कृत पद्यों वाला यह ग्रन्थ जहाँ एक श्रेष्ठ काव्य है, वहीं प्राचीन भारतीय इतिहास की लेखन परम्परा का एक आदर्श, दुर्लभ एवं बहुमूल्य ग्रन्थ भी है।
 श्रुतावतार ग्रन्थ में आचार्य इन्द्रनन्दि ने जैन परम्परा का बहुत ही सुन्दर प्राचीन इतिहास संजोया है, किन्तु उन्होंने अपने नाम के अतिरिक्त स्वयं अपने विषय में अथवा अपनी परम्परा के विषय में कोई जानकारी नहीं दी। जैन साहित्य में 'इन्द्रनन्दि' नाम के लगभग पाँच आचार्यों का नामोल्लेख विभिन्न प्रसंगों, विभिन्न ग्रन्थकर्ताओं, परम्पराओं एवं विभिन्न कालों में मिलता है। किन्तु श्रुतावतार के कर्ता आचार्य इन्द्रनन्दि के समय (१० वीं सदी)का निर्धारण इस ग्रन्थ से ही हम कर सकते हैं। चूँकि इन्होंने आचार्य वीरसेन ( ९वीं शती) एवं जिनसेन ( १०वीं शती) तक के ही आचार्यों और इनकी धवला, जयधवला टीकायें, जो कि क्रमश: षट्खण्डागम तथा कसायपाहुडसुत्त पर लिखी गई हैं, के ही विस्तृत परिचय अपने इस श्रुतावतार ग्रन्थ में लिखे हैं।      श्रुतावतार इस शब्द में'श्रुत' शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य  हुए आचार्य पूज्यपाद ने कहा हैतदावरणकर्म क्षयोपशम सति निरूप्यमाणं श्रूयते अनेन शृणोति श्रवणमात्रं वा श्रुतम् (सर्वार्थसिद्धि ९. ९) तथा केवलिभिरुपदिष्टं बुद्ध्यतिशयद्धियुक्तगणधरानुस्मृतं ग्रन्थरचनं श्रुतं भवति, (सर्वार्थसिद्धि ६.१३) अर्थात् श्रुतज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम होने पर निरूप्यमाण पदार्थ जिसके द्वारा सुना जाता है, जो सुनता है, या सुनना मात्र श्रुत
कहलाता है। तथा केवली द्वारा उपदिष्ट और अतिशय बुद्धि ऋद्धि युक्त गणधर उनके उपदेशों का स्मरण करके जो ग्रन्थों की रचना करते हैं, वह श्रुत कहलाता है।
आचार्य अकलंकदेव ( तत्त्वार्थवार्तिक १.९.२.) के अनुसार “श्रुत" शब्द कर्मसाधन भी होता है। श्रुतज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम आदि अंतरंग - बहिरंग कारणों के सन्निधान होने पर जो सुना जाय वह "श्रुत" है और भावसाधन में-श्रवण क्रिया मात्र को 'श्रुत' कहते हैं।
इस तरह के 'श्रुत' के अवतरण की परम्परा और उसका वृत्तान्त इन्द्रनन्दि ने अपने इस ग्रन्थ में प्रतिपादित किया है। इसमें उन्होंने भरत क्षेत्र की स्थिति, सुषमासुषमा काल के भेदों का विवेचन, कुलकर व्यवस्था का क्रमशः प्रतिपादन करते हुए प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव से लेकर अन्तिम एवं चौबीसवें तीर्थंकर वर्धमान महावीर तक की परम्परा और उनकी विशेषताओं का संक्षेप में वर्णन किया है।                                     इसके बाद तीर्थंकर महावीर और उनके गणधरों का विशेषकर गौतम गणधर का कुछ विस्तार से वृत्तान्त प्रस्तुत करते हुए उनके बाद की परम्परा का और वर्तमान में आंशिक रूप में उपलब्ध श्रुत (आगमज्ञान) के मूल का कालक्रमानुसार जो इतिहास प्रस्तुत किया है, वह बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। पद्य संख्या ७५ में कहा है - गौतम गणधर, सुधर्माचार्य और जम्बूस्वामी अनुबद्ध केवली की सम्पदा को प्राप्त थे।
इनके मोक्ष चले जाने के बाद ही इस भरत क्षेत्र से केवलज्ञान रूप सूर्य अस्त हो गया। अर्थात् इनके बाद किसी को केवलज्ञान नहीं हुआ। जम्बूस्वामी के बाद विष्णु, नन्दिमित्र अपराजित, गोबर्धन और भद्रबाहु - ये पाँच श्रुतकेवली हुए। इसके बाद विशाखाचार्य, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जय, नाग, सिद्धार्थ, धृति, विजय, बुद्धिल,  गंगदेव और धर्मसेन–ये ग्यारह आचार्य दशपूर्व धारी हुए। इनके बाद नक्षत्र, जयपाल, पाण्डु, ध्रुवसेन और कंस - ये पाँच एकादशांगधारी हुए तथा इनके बाद सुभद्र, अभयभद्र जयबाहु और लोहार्य- ये चारों आचारांगधारी हुए। इनके बाद की भी यहां इस ग्रंथ में आचार्य परम्परा प्रस्तुत की गई है, किन्तु षट्खण्डागम आदि ग्रन्थों एवं कुछ पट्टावलियों में उपलब्ध परम्परा से कुछ नामों में यहां अन्तर सम्भवतः प्राकृत भाषा से संस्कृत रूपान्तर एवं लिपि आदि के कारण भी प्राप्त होता है ।
   आचार्य अर्हद्बलि द्वारा जैन परम्परा में विभिन्न संघों की स्थापना आदि का भी संक्षेप में यहां वृतान्त दिया गया है। आचार्य अर्हद्बलि के बाद आचार्य माघनन्दि का भी यहां उल्लेख है। इसके बाद आचार्य धरसेन और फिर इनके द्वारा आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलि को प्रदत्त श्रुतज्ञान, षट्खण्डागम नामक ग्रन्थराज पुस्तकारूढ होने, श्रुतपंचमी पर्व के शुभारम्भ अर्थात् प्रचलन आदि से लेकर आचार्य गुणधर एवं उनके द्वारा रचित कसायपाहुडसुत्त तथा इन दोनों सिद्धान्त ग्रन्थों पर रचित धवला एवं जयधवला टीका आदि का विस्तृत परिचय जिस भाषा, भाव और शैली में प्रस्तुत किया गया है, वह मर्मस्पर्शी, हृदयग्राही एवं ऐतिहासिक महत्त्व का है।                                   
 षट्खण्डागम का अवतरण–
षट्खण्डागम के विषयों का मूलस्रोत बारहवें मूल अंग आगम दृष्टिवाद के द्वितीय पूर्व अग्रायणीय के चयनलब्धि नामक पाँचवें अधिकार के 'कम्मपयडि’ नामक चतुर्थ पाहुड है। जिसका ज्ञान आचार्य धरसेन को था और इन्होंने इसे पूर्वोक्त दोनों आचार्यों को प्रदान किया, जिसके आधार पर इन्होंने षट्खण्डागम शास्त्र को पुस्तकारूढ़ किया।
   इस प्रकार आचार्य धरसेन दूसरे अग्रायणी पूर्व के अन्तर्गत चौथे महाकर्मप्रकृतिप्राभृत (महाकम्मपयडिपाहुड) के विशिष्ट ज्ञाता थे। तीर्थंकर महावीर के निर्वाण के ६८३ वर्षों बाद आचार्य धरसेन का समय सिद्ध होता है। आप सम्पूर्ण षट्खण्डागम के प्रत्यक्षज्ञाता श्रुतधर आचार्य थे। परवर्ती साहित्य के कुछ उल्लेखों के अनुसार आचार्य धरसेन को जोणिपाहुड सुत्त ( योनिप्राभृत सूत्रक) नामक मन्त्र-तन्त्रवाद महाग्रन्थ का रचयिता माना जाता है।   आचार्य धरसेन ने दक्षिणापथ से समागत आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलि की परीक्षा ली और योग्य समझकर उन्हें षट्खण्डागम का ज्ञान प्रदान किया। जिसे इन दोनों ने ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी के शुभ दिन पुस्तकारूढ़ कर इस महान् श्रुतज्ञान इसकी परम्परा को सुरक्षित किया। इसी की स्मृति में आज भी यह दिन 'श्रुतपंचमी पर्व' के रूप में मनाया जाता है।                           षट्खण्डागम नामकरण एवं इसकी आगमसिद्धि

षट्खण्डागम यह एक सूत्रबद्ध विशाल मूलग्रन्थ है। अत: इसके मूलसूत्रों में इस ग्रन्थ का नाम नहीं मिलना स्वाभाविक है, किन्तु आचार्य वीरसेन स्वामी ने इस पर लिखित अपनी धवला टीका की उत्थानिका में इसे 'खण्डसिद्धान्त' कहा है। साथ ही इसके १.जीवट्ठाण, २.खुद्दाबंध, ३.बंधस्वामित्वविचय, ४.वेदना, ५.वर्गणा और ६.महाबंध - इन छह खण्डों में सम्पूर्ण ग्रन्थ होने के कारण इसका नाम 'षट्खण्ड सिद्धान्त' नाम प्रकट करते हुए, यह भी कह दिया कि 'आगमो सिद्धंतो पवयणमिदि एयट्ठो (पृ. २०), आगमः सिद्धान्तः (पृ. ३१) अर्थात् आगम, सिद्धान्त और प्रवचन एकार्थवाची हैं, इसलिए आगम सिद्धान्त को कहते हैं। धनंजय नाममाला (४) में भी कहा है– कृतान्तागम सिद्धान्त ग्रन्थाः शास्त्रमतः परम् । इस तरह सामान्यतः सिद्धान्त और आगम को हम पर्यायवाची माना हैं, किन्तु दोनों में सूक्ष्म भेद यह है सभी आगमों को हम सिद्धान्त कह सकते हैं, किन्तु सभी सिद्धान्त आगम नहीं कहे जा सकते हैं। वस्तुत: सिद्धान्त सामान्य संज्ञा है और आगम विशेष । धवलाकार (अ० ७१६) ने कहा भी है– .
पूर्वापरविरुद्धादेर्व्यपेतोदोषसंहेतेः ।
द्योतकः सर्वभावानामाप्तव्याहृतिरागमः ।।
अर्थात् कोई भी निश्चित या सिद्धमत सिद्धान्त कहा जा सकता है, किन्तु आगम वही सिद्धान्त कहलाता है, जो आप्तवाक्य है और पूर्व परम्परा से आया है। आगम की विशेषता यह भी है कि उसमें हेतुवाद नहीं चलता, क्योंकि आगम अनुमान आदि की अपेक्षा नहीं रखता, अपितु स्वयं प्रत्यक्ष के बराबर प्रमाण माना जाता है। आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धांत चक्रवर्ती ने अपने गोम्मटसार ( टीका २१, ४४२) में षट्खण्डागम का नाम 'परमागम' कहा है।
इस तरह यह शास्त्र आचार्य प्रणीत होने पर भी पूर्ण रूपेण 'आगम सिद्धान्त' ही है। आचारांगसूत्र तथा अन्य सभी आगम शास्त्र भी सुत्त, या सूक्त ग्रन्थ कहलाते हैं। आचार्य धरसेन ने आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलि को उन्हीं आगम सिद्धान्तों का ज्ञान प्रदान किया था, जिस सिद्धान्त ज्ञान की मूल पूंजी उन्हें तीर्थंकर महावीर और उनकी महान् श्रुतधर ज्ञानधारी आचार्यों की सुदीर्घ परम्परा से प्राप्त हुई थी।
आचार्य पुष्पदन्त एवं भूतबलि ने भी इस षट्खण्डागम में इन्हीं आगम सिद्धान्तों को पुस्तकारूढ़ किया है। इस मूल आगम पर आचार्य वीरसेन स्वामी की विशाल धवला टीका भी इसी पूर्व आचार्यों की परम्परा और मर्यादा से परिपूर्ण है। इसलिए इन्द्रनन्दि ने श्रुतावतार में इस आगमशास्त्र के छह खण्डों के आधार पर इसे षट्खण्डागम कहा है।                                          इस तरह श्रुत पंचमी पर्व पर संक्षेप में श्रुतावतार ग्रन्थ का महत्व और 
षट्खण्डागम के पुस्तकारूढ़ होने अर्थात् इसके अवतरण का वृत्तांत प्रस्तुत किया गया है।           *******
          प्रोफेसर फूलचंद जैन प्रेमी, अनेकांत विद्या भवन B,23/45 शारदानगर कालोनी, खोजवाँ, वाराणसी, 221010, मोबा. 9670863335,/9450179254

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