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महाकवि पूज्य आचार्य विद्यासागर जी की हाइकू का साहित्यिक आध्यात्मिक सौंदर्य

*महाकवि पूज्य आचार्य विद्यासागर जी की हाइकू का साहित्यिक आध्यात्मिक सौंदर्य*

प्रो डॉ अनेकान्त कुमार जैन,नई दिल्ली 
drakjain2016@gmail.com

हाईकू मूलरूप से जापान की कविता है। "हाईकू का जन्म जापानी संस्कृति की परम्परा, जापानी जनमानस और सौन्दर्य चेतना में हुआ और वहीं पला है। हाईकू में अनेक विचार-धाराएँ मिलती हैं- जैसे बौद्ध-धर्म (आदि रूप, उसका चीनी और जापानी परिवर्तित रूप, विशेष रूप से जेन सम्प्रदाय) चीनी दर्शन और प्राच्य-संस्कृति। यह भी कहा जा सकता है कि एक "हाईकू" में इन सब विचार-धाराओं की झाँकी मिल जाती है या "हाईकू" इन सबका दर्पण है।"हाईकू को काव्य विधा के रूप में बाशो (१६४४-१६९४) ने प्रतिष्ठा प्रदान की। हाईकू मात्सुओ बाशो के हाथों सँबरकर १७ वीं शताब्दी में जीवन के दर्शन से जुड़ कर जापानी कविता की युगधारा के रूप में प्रस्फुटित हुआ। आज हाईकू जापानी साहित्य की सीमाओं को लाँघकर विश्व साहित्य की निधि बन चुका है।1

हाइकू मात्र सत्रह मात्राओं में लिखी जाने वाली कविता है और अब तक की सबसे सूक्ष्म काव्य है और साथ ही सारगर्भित भी | हाइकू की लोकप्रियता व सारगर्भिता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि आज दुनिया कि हर भाषा में हाइकू लिखे जा रहे हैं | कुछ हिंदी विद्वान हाइकू काव्य को विदेशी बताकर आलोचना भी करते हैं पर साहित्य को किसी भाषा, क्षेत्र या तकनीक की सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता | बल्कि मैं तो यह कहूँगा की जिस प्रकार मारुति कार, जापानी होकर भी छोटी होने के कारण हमारे यहाँ आम आदमी तक पहुँच बना ली उसी प्रकार हाइकू भी आम आदमी तक बड़ी सरलता से पहुँच सकता है | क्योंकि इसमें आम और साधारण बातों को ही जो प्रकृति और हमारे जीवन से जुडी होती हैं, सुन्दर और विशेष विधि से कम से कम यानी सत्रह अक्षरों में कह दिया जाता है |

हाइकू लिखना गहरी सोच, अध्ययन व अभ्यास का परिणाम होता है | हाइकू लिखने वाला कोई भी अपने को पूर्ण रूप से पारंगत नहीं कह सकता |अपनी कला के कारण हाइकू एक अपूर्ण कविता होते हुए भी पूरा भाव देने में सक्षम होता है | हाइकू ऐसी चतुराई से कहा जाता है कि पाठक अथवा श्रोता अपने ज्ञान व विवेक का प्रयोग करते हुए उसके भाव या उद्देश्य को पूर्ण कर लेता है | चूंकि पाठक हाइकू को पढने के लिए उसमें पूर्ण रूप से घुसना पड़ता है, वह उसे अपने से जुड़ा व आनंदित अनुभव करता है | हाइकू में किन्ही दो भाव, विचार, बिम्ब या परिदृश्य को मात्र १७ वर्णों में तीन पंक्तियों में दो या अधिक वाक्यांशों में इस प्रकार व्यवस्थित किया जाता है ताकि प्रथम व अंतिम पंक्ति में ५-५ वर्ण व दूसरी पंक्ति में ७ वर्ण हों | दोनों भावों, विचारों या दृश्यों को तुलनात्मक रूप से इस प्रकार प्रस्तुत किया जाता है की वे पृथक पृथक होते हुए भी परस्पर सम्बंधित हों | हाइकू की तीन पंक्तियाँ भावात्मक दृष्टि से दो खण्डों में विभाजित होती है | एक साधारण खंड तथा दूसरा विशेष खंड |
साधारण खंड में विषय वस्तु की आधारभूत भाव, बिम्ब, दृश्य या विचार रखी जाती है तथा विशेष खंड में उससे सम्बंधित विस्मित करने वाला विशेष तत्व | दोनों खंड पृथक होते हुए भी परस्पर पूरक होते हैं | दोनों खंड व्याकरण की दृष्टि से स्वतंत्र होने चाहिए | अपनी कविता १७ वर्णों में तीन पंक्तियों में लिख देने से हाइकू नहीं बन जाता बल्कि अच्छे हाइकू की विशेषता है उसमे पाठक को चौकाने वाला तत्व |यहाँ यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी की हाइकू में साधारण बात को ही असाधारण तरीके से कही जाती है | हाइकू एक वाक्य का नहीं होता| हाइकू में लय, विराम, पूर्ण विराम आदि चिन्हों की आवश्यकता नहीं होती | हाइकू मूलतः प्रकृति विषयों पर लिखे जाते हैं पर आजकल जीवन संबधी विषयों पर भी हाइकू बढ़ चढ़ कर लिखे जा रहे हैं | जीवन व ईश्वरीय विषयों पर लिखे हाइकू को अंग्रेजी में सेनर्यू कहा जाता है | वैसे हाइकू और सेनर्यू में विषय के अतिरिक्त और कोई अंतर नहीं है |
तीन पंक्तियों में से दो विषय वस्तु एवं उसके आधारभूत भाव या व्यवहार को दर्शाता है तथा तीसरी विशेष पंक्ति जिसमे उससे सम्बंधित विस्मयकारी भाव होता है |3

हाइकू के सन्दर्भ में स्वयं महाकवि आचार्य विद्यासागर जी का मंतव्य है –

*हाई कू कृति
तिपाई सी अर्थ को 
ऊँचा उठाती
।४३|


दिगम्बर जैन आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज इन दिनों (Japanese Haiku, 俳句 ) जापानी हायकू (कविता) की रचना कर रहे हैं  | हाइकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है।

 महाकवि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने लगभग 500 हायकू लिखे हैं, जो अप्रकाशित हैं।किन्तु ये अद्भुत रचना मुझे http://www |vidyasagar |net/hayaku-nov-16/ लिंक पर अनायास ही पढने को मिल गयीं  |

आचार्य श्री की हाइकू अन्य रचनाकारों की हाइकू से बिल्कुल ही पृथक नज़र आई | उसका बहुत बड़ा कारण है उनका संयममय जीवन | उनकी अनुभूतियों से निष्पन्न जापानी छंद हाइकू की ये रचनाएँ उन्हें विश्व के एक विशाल पटल पर स्थापित करती हैं | ये रचनाएँ एक नज़र में देखने में छोटी जरूर लगती हैं किन्तु कम शब्दों में इतने गहरे आध्यात्मिक भावों को लिए हुए हैं कि उनकी व्याख्या के लिए शब्द कम पढ़ जाते हैं एक बानगी देखिये –

संदेह होगा,
देह है तो देहाती !
विदेह हो जा
|२|

यहाँ ‘देह’ शब्द का जबरजस्त प्रयोग है | प्रथम पंक्ति है -
' संदेह होगा' - अर्थात्....
मिथ्यात्व होगा ,भ्रम होगा ,संशय होगा कि यह देह मेरी है ,या यह देह ही मैं हूँ ,संसार में तो ये सब होता ही रहेगा |

द्वितीय पंक्ति है – 

'देह है तो देहाती'

 – अर्थात् देह जब तक रहेगी तब तक संसारी ही रहेगा |देहाती शब्द मूर्ख और गंवार के लिए भी जगत में विख्यात है | यहाँ आधार और आधेय भाव भी परिलक्षित है | देहात  में रहने वाला देहाती कहलाता है जैसे शहर में रहने वाला शहरी | साहित्य में ग्रामीण व्यक्ति प्रायः अज्ञानी की तरह अभिव्यंजित किया जाता रहा है ,यही अर्थ देहाती का भी है |लेकिन देहाती का आधार देह बताने की जबरजस्त अभिव्यंजना यहाँ कवि ने की है | इस कविता के सिर्फ साहित्यिक अर्थ नहीं निकाले जा सकते | अध्यात्म भी समझना जरूरी है | यहाँ भाव स्पष्ट दिख रहा है कि देहाती अर्थात अज्ञानी वह नहीं जो देहात में रहता है बल्कि वह है जो देह में आसक्त रहता है |देह में आसक्त आत्मा को देहाती अर्थात अज्ञानी कहा है |

तीसरी पंक्ति है - विदेह हो जा – अर्थात आत्मकल्याण के लिए या इस संसार रुपी दुःख से ऊपर उठने के लिए जरूरी है शरीर से आसक्ति का त्याग ..विदेह होना | विदेह होने का दूसरा अर्थ है बिना देह के होना अर्थात सिद्ध होना | हाइकू की इन तीन पंक्तियों में संसार का कारण और उससे मुक्ति का उपाय सीधा समझा दिया |
अध्यात्म में दार्शनिक बोध बहुत आवश्यक होता है |उसके बिना उसका धरातल ही निर्मित नहीं होता | कर्मों के रूप में जन्म जन्मान्तरों के संस्कार इस आत्मा के साथ जुड़े हुए होते हैं | आत्मा के साथ बहुत कुछ आया पर वो कम आया जो काम का था |आत्मा ने पर को खूब जाना ...वे ज्ञेय तो चिपकते गए ...किन्तु सम्यक्ज्ञान नहीं चिपका , अन्यथा इस भव में पूर्व का स्मरण हो जाता |दुनिया को जाना पर जो दुनिया को जानता है ऐसा ज्ञायक स्वभावी आत्मा को नहीं जाना ,ऐसा होता तो कल्याण हो जाता -

ज्ञेय चिपके
ज्ञान चिपकता तो
स्मृति हो आती
।२६|

महाकवि प्रदर्शन के बहुत खिलाफ नज़र आते हैं,उन्हें वो कोई भी कार्य नहीं भाता जिसमें निज आत्मा का प्रकाश न हो ....
निजी प्रकाश
किसी प्रकाशन में
क्या कभी दिखा ?
|४९|

इसी प्रकार की तड़फ अन्यत्र भी भरी पड़ी है ,एक और छंद है –

प्रदर्शन तो
उथला है दर्शन
गहराता है
|३३|

वे प्रश्न ,तर्क आदि से परे उस परम तत्त्व की तलाश में हैं जहाँ किसी उत्तर की आवश्यकता नहीं होती –

प्रश्नों से परे
 अनुत्तर है उन्हें
 मेरा नमन
|39|

उन्हें अपना ध्येय अन्दर ही दिखाई देता ...बाहर उसकी सम्भावना कम दिखाई देती है .....

मोक्षमार्ग तो
 भीतर अधिक है
बाहर कम
|६१‍ |

अपने गुरु के प्रति कृतज्ञता का उनका हाइकू अंदाज भी निराला है ..

गुरू ने मुझे
प्रगट कर दिया
दिया दे दिया
|४७|

स्वानुभव को लेकर उनका चिंतन बड़ा गहरा और गंभीर है –
स्वानुभव की
समीक्षा पर करे
तो आँखें सुने
।७६|

स्वानुभव की
 प्रतीक्षा स्व करे तो
 कान देखता
।७७|

इस प्रकार हम देखते हैं कि महाकवि आचार्य विद्यासागर जी की हाइकू रचनाएँ गहरे अध्यात्म से भरी हैं |उन्होंने अनेक हाइकू जीवन मूल्यों और उनसे जुड़ीं विसंगतियों पर भी लिखे हैं किन्तु उन सभी में उनके मूल अध्यात्म की सुगंध ही महकती है , वे संसार की बात भी करते हैं किन्तु अध्यात्म के परिप्रेक्ष्य में | उनके प्रत्येक छंद के अनेक अर्थ निकाले जा सकते हैं | हमने यहाँ नमूनों के तौर पर कुछ छंद ही चयनित किये हैं ,सभी छंदों की मीमांसा की जाए तो पूरा एक शोध ग्रन्थ लिखा जा सकता है |

अंत में परम योगी पूज्य १०८ आचार्य विद्यासागर महाराज जी पर केंद्रित  मैं भी अपने जीवन का प्रथम ‘हाइकू’ समर्पित करके विराम लेता हूँ -
                                                    "विद्यासागर
अनुभव गागर             नमन तुम्हें"
                                                          

Reference

1. https://hi |wikipedia |org/wiki/ हाइकू 

2. S .D . Tiwari article ,  https://www |poemhunter |com/poem/aao-seekhen-haiku/

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