*आचार्य श्री से हमने क्या सीखा ?*
- डॉ अनेकांत कुमार जैन,नई दिल्ली
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आज सिद्धांत चक्रवर्ती आचार्य विद्यानंद मुनिराज हम सभी के बीच नहीं हैं । दिनांक २२/०९/२०१९ को ब्रह्म मुहूर्त में यम सल्लेखना पूर्वक साम्य भाव से उनका समाधि मरण दिल्ली स्थित कुंदकुंद भारती में हो गया ।
श्रमण जैन संस्कृति का एक महान् सूर्य अस्त हो गया ।
वैसे तो बचपन से उनके दर्शन कई बार किए और अपने पिताजी प्रो डॉ फूलचंद जैन प्रेमी जी से उनकी महिमा का गुणगान आरंभ से ही सुनते आ रहे थे किन्तु मेरा विशेष संपर्क उन दिनों हुआ जब मैं राजस्थान में पी एच डी का विद्यार्थी था ।
हम यूजीसी की नेट परीक्षा देते थे और सन् १९९८-९९ के लगभग यूजीसी ने प्राकृत एवं जैनागम विषय में से प्राकृत को समाप्त कर दिया था । उन दिनों इस विषयक मैंने कई आंदोलन किए और सभी बड़े अधिकारियों और विद्वानों को कई पत्र लिखे किन्तु कोई हल नहीं निकला । इसी बीच मैंने पता नहीं क्यों आचार्य श्री के नाम एक पोस्टकार्ड लिखकर कुंदकुंद भारती के पते पर भेज दिया और कुछ दिनों बाद साक्षात् आकर उनके दर्शन करके यह बात कही । इस बात पर उन्होंने तुरंत डॉ मंडन मिश्र जी को यूजीसी भेज कर प्राकृत को एक स्वतंत्र विषय के रूप में सम्मिलित करवा दिया ,जो आज तक विद्यमान है ।
इसके बाद २००१ में श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ,नई दिल्ली में जो कि कुंदकुंद भारती के समीप ही स्थित है , मैं जैन दर्शन विभाग में व्याख्याता पद पर नियुक्त हो गया ।
अतः २००१ से आज २०१९ तक १८ वर्षों का साक्षात् सन्निध्य और ज्ञान मुझे आचार्य श्री से निरंतर प्राप्त हुआ । इन वर्षों में उनसे बहुत कुछ सीखा और जाना । मैंने उनके श्री मुख से रत्नकरण्ड श्रावकाचार, सत्यशासन परीक्षा तथा समयसार पढ़ा है । उन दिनों उपाध्याय कनकोज्वल नंदी जी, मुनि निर्णय सागर जी, डॉ हुकुमचंद भारिल्ल जी, डॉ फूलचंद जैन प्रेमी, डॉ दामोदर शास्त्री जी, डॉ जयकुमार उपाध्ये जी, डॉ वीरसागर जी आदि विद्वानों के साथ अलग अलग समयों में स्वाध्याय चला जिसमें सभी में मैं सम्मिलित रहा ।
उनकी जो प्रमुख शिक्षाएं मैंने जो उनसे सीखी है उन्हें मैं यहां बिंदुवार लिख रहा हूं क्योंकि उनके अनेक गुणों में से ये कुछ प्रमुख गुण थे जो उन्हें खास बनाते थे । यह हम सभी के लिए अनुकरणीय है -
*१. बिना आगम प्रमाण के जिनवाणी संबंधी लेख न लिखना ।*
*२. आगम प्रमाण के साथ ही प्रवचन करना ।श्रोताओं के स्तर के अनुसार खुद को न गिराकर ,अपनी रोचक और सरल शैली में गंभीर निरूपण करके श्रोताओं का स्तर बढ़ाना ।*
*३.प्रवचन में अनर्गल प्रलाप न करना । कभी किसी पर अनावश्यक टिप्पणी न करना ।*
*४. बिना पूर्व तैयारी के कुछ न कहना न लिखना ।कभी हल्की और स्तर हीन बातें नहीं करना ।*
*५. ग्रंथों के स्वाध्याय के समय डायरी में महत्वपूर्ण संदर्भ लिखना ।*
*५. जैन आध्यात्मिक भजन संगीत के शास्त्रीय स्तर को प्रोत्साहित करना ।*
*६. जैन संस्कृति,इतिहास,कला एवं पुरातत्व की समझ तथा इसका महत्व दुनिया को बताना ।*
*७. संस्कृत प्राकृत आदि प्राचीन भाषाओं की गहरी समझ रखना और उसको उच्च स्थान देना ।*
*८. अपने से इतर धर्म, संप्रदाय और पंथ वालों से सद्भाव बनाकर चलना , उनको उचित सम्मान देना तथा किसी की सार्वजनिक निंदा न करना ।*
*९. विद्वानों,राजनेताओं तथा उद्योगपतियों से स्तरीय वार्तालाप करना ।उन्हें जैन धर्म तथा दर्शन का महत्व उन्हीं की भाषा में समझाने की कला रखना ।*
*१०. स्वयं अनुशासन में रहना तथा आत्म अनुशासित को ही महत्व देना । समाज को अनुशासित कार्यक्रम करना सिखाना ।*
*११. समय की कीमत समझना और व्यर्थ समय न गवां कर उसका सही उपयोग करना ।*
मैं समझता हूं वर्तमान में इन गुणों की आवश्यकता सभी साधुओं और विद्वानों को है । आज समाज के कितने कार्यक्रम सिर्फ समय खराब करने वाले होते हैं ,सम्मान और माला अधिकांश समय खा जाते हैं , कोई अनुशासन भी दिखाई नहीं देता, मंच अनावश्यक भीड़ से भर जाते हैं । बेतुके प्रवचन और फिल्मी धुन वाले भजन आर्केस्ट्रा, फूहड़ कवि सम्मेलन आदि ने हमारे धार्मिक कार्यक्रमों की गरिमा को कमजोर ही किया है । हम बुरी तरह धार्मिक मनोरंजन वाद के शिकार हैं ।कई बार कार्यक्रमों में लाखों खर्च करके भी अंत में सारहीन से खड़े रहते हैं ।
मुझे लगता है हमें आचार्य श्री एवं उनके जीवन से ये ११ शिक्षाएं अवश्य ग्रहण करनी चाहिए ताकि हम अपनी गरिमा और गौरव बरकरार रख सकें ।
*यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी ।*
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