दश धर्म एक झलक
द्वितीय दिवस
उत्तम मार्दव
मृदुता का भाव मार्दव कहलाता है । उत्तम मार्दव का अर्थ है सच्ची श्रद्धा से युक्त मृदुता । यह धर्म आत्मा में मान कषाय के अभाव स्वरूप प्रगट होता है ।
जिस प्रकार क्रोध आत्मा का स्वभाव नहीं है उसी प्रकार मान भी आत्मा का स्वभाव नहीं है । निंदा के निमित्त से आत्मा में क्रोध की उत्पत्ति होती है और प्रशंसा के निमित्त से आत्मा में मान उत्पन्न हो जाता है । दोनों ही स्थिति खराब है ।
क्रोधी और मानी में सबसे बड़ा फर्क यह है कि जिस निमित्त से क्रोध उत्पन्न होता है क्रोधी उसे दूर भगाना चाहता है किन्तु जिस निमित्त से मान उत्पन्न होता है मानी उसे रखना चाहता है ।
मान के कारण व्यक्ति दूसरों को नीचा और स्वयं को ऊंचा दिखाना पसंद करता है । इसके लिए वह दूसरे की निन्दा करता है और खुद की प्रशंसा खुद ही करता फिरता है । स्थिति प्रतिकूल हो तो क्रोध उत्पन्न हो जाता है और अनुकूल हो तो मान उत्पन्न हो जाता है ।
शास्त्रों में मान को महा विष रूप कहा गया है । मनुष्य ज्ञान,पूजा,कुल, जाति,बल,ऋद्धि,तप और रूप का घमंड करता है और दूसरों को नीचा दिखाता है ।
मान मनुष्य को कुछ सीखने नहीं देता । मान कषाय से युक्त मनुष्य को यह पता नहीं होता कि वह मानी है ,यह दूसरों को पता लगता है जो उनसे पीड़ित होते हैं ।
तत्वज्ञान से मान दूर हो जाता है किन्तु अज्ञानी को ज्ञान का ही मद हो जाता है ।
जब तक मान कषाय का अभाव नहीं होगा और जीवन में मृदुता का विकास नहीं होगा तब तक हम आत्मधर्म से कोसों दूर खड़े रहेंगे । उसका स्पर्श भी न हो सकेगा ।
विनय के बिना जीवन में धर्म की शुरुआत ही नहीं हो सकती । अतः हमें मान कषाय का अभाव करके आत्मा के स्वाभाविक मार्दव धर्म को प्रगट करने का प्रयास करना चाहिए । सुखी होने का यही उपाय है ।
प्रो अनेकांत कुमार जैन , नई दिल्ली
drakjain2016@gmail.com
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