दशलक्षण धर्म : एक झलक
अनंत चतुर्दशी
*उत्तम ब्रह्मचर्य*
पर द्रव्यों से नितांत भिन्न शुद्ध बुद्ध अपने आत्मा अर्थात् ब्रह्म में लीनता ही उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म है ।
ब्रह्मचर्य व्रत को सभी व्रतों में श्रेष्ठ व्रत कहा गया है । मुनि इसे महाव्रत के रूप में तथा गृहस्थ इसे अणुव्रत के रूप में पालते हैं ।
इन्द्रियों के विषयों का सेवन करते रहने से अपने अतीन्द्रिय आत्म स्वरूप का अनुभव नहीं हो पाता है । इन्द्रिय विषयों में आसक्ति अब्रह्मचर्या है ।
दो में से एक कार्य ही संभव है या तो इन्द्रिय भोग या ब्रह्मलीनता । जो पांच इंद्रियों में लीन है वह आत्मा में लीन नहीं है जो आत्मा में लीन है वह पांच इंद्रियों में लीन नहीं है । हम यह कह सकते हैं कि पंचेंद्रिय विषयों से निवृत्ति नास्ति से और आत्मलीनता अस्ति से ब्रह्मचर्य धर्म की परिभाषा है ।
मुख्य रूप से स्पर्श इन्द्रिय के विषयों में स्वयं को संयमित रखने को ब्रह्मचर्य इसलिए कहा जाता है क्यों कि यह इन्द्रिय सबसे व्यापक है और शेष चार इन्द्रियां भी किसी न किसी रूप में इससे संबंधित हैं ।
व्यवहार से गृहस्थ जीवन में धर्म एवं समाज द्वारा स्वीकृत,विवाह संस्कार द्वारा प्राप्त जीवन साथी के साथ संतोष रखना तथा अन्य समस्त व्यभिचारी प्रवृत्तियों से दूर रहना ब्रह्मचर्य अणुव्रत है ।
शास्त्रों में शील की रक्षा का बहुत वर्णन किया गया है । स्त्री पुरुष दोनों को ही शील की मर्यादा का पालन करते हुए धर्म मार्ग में सदैव तत्पर रहना चाहिए ।
वर्तमान समाज में शील और मर्यादा को पिछड़ा पन समझा जा रहा है , उन सभी निमित्त को स्वीकृति प्राप्त हो रही है जो मान मर्यादा भंग करने में तत्पर रहते हैं ।
शील की मर्यादा के अभाव में परिवार टूट रहे हैं , अविश्वास का वातावरण समाज को खंडित कर रहा है ।
ऐसे संसाधन सहज उपलब्ध हैं जो बाल मन में भी कामुकता का बीज वपन कर रहे हैं । सारा संसार कामुकता को पुरुषार्थ समझ रहा है । असंयमित और उन्मुक्त भोग ही एक मात्र लक्ष्य माना जा रहा है । पवित्र समझे जाने वाले कुछ अनैतिक धार्मिक साधु भी जब इस कलंक से वंचित नहीं हैं तब सामान्य गृहस्थों की तो बात ही क्या ?
हम इसके दुष्परिणाम भी भोग रहे हैं लेकिन चेत नहीं रहे हैं ।
ऐसे विकट समय में ब्रह्मचर्य की शास्त्र सम्मत किन्तु वर्तमान समय के अनुकूल व्यावहारिक परिभाषा की आवश्यकता है । यह समझने की आवश्यकता है कि बिना आत्मलीनता के बाह्य ब्रह्मचर्य भी कोरा व्रत मात्र है जिसका कोई आध्यात्मिक धरातल नहीं है , मात्र वासनाओं को दबाना बड़ा विस्फोटक हो जाता है ।
वासना का अभाव ही उत्तम ब्रह्मचर्य की परिधि में आता है । वासना की संतुलित और संयमित परिणति अणुव्रत के अन्तर्गत आती है ।
वासनाओं को दबाना और वासनाओं से दबना दोनों ही असहज अवस्था है ।
ब्रह्मचर्य एक धर्म है , वह दिखावा या सम्मान का लालसी नहीं है । वह एक ऐसी आत्मिक अतिंद्रिय अनुभूति है जहां इन्द्रिय सुख की समस्त अनुभूतियां स्वतः ही तुच्छ लगने लगती हैं ।
डॉ अनेकांत कुमार जैन ,नई दिल्ली
drakjain2016@gmail.com
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