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आत्मा ही वास्तविक गुरु है

' वास्तव में अपना आत्‍मा ही गुरु है' - डॉ अनेकान्त कुमार जैन  स्‍वस्मिन्‍सदाभिलाषित्‍वादभीष्‍टज्ञापकत्‍वत:।  स्‍वयं हि प्रयोक्‍तृत्‍वादात्‍मैव गुरुरात्‍मन:।। -इष्टोपदेश,34 वास्‍तव में आत्‍मा का गुरु आत्‍मा ही है, क्‍योंकि वही सदा मोक्ष की अभिलाषा करता है, मोक्ष सुख का ज्ञान करता है और स्‍वयं ही उसे परम हितकर जान उसकी प्राप्ति में अपने को लगाता है।  नयत्‍यात्‍मानमात्‍मैव जन्‍म निर्वाणमेव च। गुरुरात्‍मात्‍मनस्‍तस्‍मान्नान्‍योऽस्ति परमार्थत: ।स.श.७५।  आत्‍मा ही आत्‍मा को देहादि में ममत्‍व करके जन्‍म मरण कराता है, और आत्‍मा ही उसे मोक्ष प्राप्त कराता है। इसलिए निश्‍चय से आत्‍मा का गुरु आत्‍मा ही है, दूसरा कोई नहीं। आत्‍मात्‍मना भवं मोक्षमात्‍मन: कुरुते यत:। अतो रिपुर्गुरुश्‍चायमात्‍मैव व स्‍फुटमात्‍मन:।। ज्ञानार्णव/३२/८१ यह आत्‍मा अपने ही द्वारा अपने संसार को या मोक्ष को करता है। इसलिए आप ही अपना शत्रु और आप ही अपना गुरु है। निर्जरादिनिदानं य: शुद्धो भावश्चिदात्‍मन: ।  परमार्ह: स एवास्ति तद्वानात्‍मा परं गुरु:।।  -पं.ध./उ./६२८ वास्‍तव में आत्‍मा का शुद्धभाव ही निर्जरादि

शोध अनिवार्य या वैकल्पिक ?

समझ नहीं आता , कभी पीएचडी अनिवार्य कर देते हैं कभी हटा देते हैं  पहले अनिवार्य नहीं थी तो क्यों की ?  जरूरी थी तो अब हटा क्यों दी ?  दरअसल अन्य कलाओं की तरह शोध भी एक कला है । जो सबके बस की बात नहीं है । संगीत पर लेक्चर देना एक अलग बात है और गीत गाना एक अलग बात है ।  शोध अनिवार्य नहीं था तो वही करता था जिसे बहुत तड़फ होती थी कुछ नया खोजने करने की । शोध की गुणवत्ता भी कायम रहती थी । फिर जब शोध अनिवार्य हुआ तो भीड़ बढ़ गई । शोध लिखने,लिखवाने और शोध पत्र छपवाने वालों की दुकानें खुल गई । शोध का स्तर गिरने लगा ।  जो पारंपरिक वास्तविक विद्वत्ता पूर्ण शोध जनरल थे ,वे ISSN आदि ,peer reveiw , UGC care listed आदि के कृत्रिम मानदंड पूरे न करने से बाहर हो गए और बाजारू प्रकाशकों ने मात्र जुगाड़ से इन नियमों की पूर्ति करके खुद को केअर लिस्ट में डलवा कर प्रामाणिक का लाइसेंस बनवा लिया और पैसा ले लेकर शोध पत्र छापकर विदयार्थियों की पीएचडी और अध्यापकों की प्रोन्नति करने लगे ।  शोध की चोरी पकड़ने मशीनें लगाई गईं तो उसमें भी असली शोध वाले फंस गए और नकली वाले तकनीकी जुगाड़ से निकल गए ।  छह महीने के क

सिद्धांतों के तलस्पर्शी ज्ञाता :आदरणीय गुरु जी

सिद्धांतों के तलस्पर्शी ज्ञाता :आदरणीय गुरु जी   आदरणीय गुरु जी प्रो अशोक कुमार जैन जी से मेरा परिचय तो बहुत पुराना था ,क्यों कि पिताजी प्रो फूलचंद जैन प्रेमी जी के साथ स्याद्वाद महाविद्यालय में बाल्यकाल से ही आना जाना रहा और  वहाँ के लगभग सभी स्नातक मेरे घर पर पिताजी से मिलने आते ही थे । इसके अलावा अनेक संगोष्ठियों में पिताजी मुझे अपने साथ ले जाते थे तब मैं वहाँ भी आपको सुनता था और प्रभावित होता था ।  1996 में जब मुझे आपके सान्निध्य में जैन विश्व भारती संस्थान (मानित विश्वविद्यालय) लाडनूं के जैन विद्या एवं तुलनात्मक धर्म दर्शन विभाग में अध्ययन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ तब आपकी प्रज्ञा से विशेष परिचय प्राप्त हुआ । मैं आपके जैन सिद्धांतों के तलस्पर्शी ज्ञान से बहुत प्रभावित हुआ । आपके व्याख्यान विशिष्ट रूप से मूल गाथा और श्लोक के उद्धरण के साथ होते थे । मुझे आपकी स्मरण शक्ति पर भी बहुत आश्चर्य होता था । आज भी आप उसी धारा में अत्यंत प्रभावक शास्त्रीय व्याख्यान करते हैं तो हमें गर्व होता है ।  मैं छात्रावस्था में ही आपके साथ कई सेमिनारों में भी गया । मेरे शोधकार्य में अनेक व

श्रावकाचार के सन्दर्भ में हमारी सीमित सोच

प्रो अनेकांत कुमार जैन  श्रावकाचार के सन्दर्भ में हमारी सीमित सोच जैन धर्म दर्शन की आचार मीमांसा बहुत मार्मिक है | इसके अंतर्गत गृहस्थ के लिए श्रावकाचार और मुनियों के लिए मूलाचार का विधान किया गया है |आधुनिक काल में श्रावकाचार के पालन को लेकर हमें विभिन्न समस्याएं देखने को मिलती हैं |ऐसा क्यूँ है ?  इस विषय पर बहुत विचार करने की आवश्यकता है | आज हमने श्रावकाचार का अधिकांश सम्बन्ध मात्र खान-पान से जोड़ रखा है। हम आचारशास्त्र का मतलब मात्र पाकशास्त्र समझते हैं जो कि हमारी एक भूल है। यही कारण है कि एक पाश्चात्य धर्मशास्त्री विद्वान् ने जैनधर्म के बारे में अपने विचार व्यक्त करते हुये लिखा है- 'Jainism is nothing but it's only a kitchen Religion.' मैंने स्वयं जब यह पंक्ति पढ़ी तभी से इस विषय पर सोचना प्रारम्भ किया।  विचार कीजिए! क्या हम इन पंक्तियों से सहमत है? उस पाश्चात्य विचारक की यह प्रतिक्रिया सही है या गलत? क्या उत्तर है हमारा? मैं उसके विचारों से सहमत नहीं हूँ, किन्तु उस विचारक ने अपने प्रायोगिक अनुभव से जो प्रतिक्रिया दी है वह गलत भी नहीं लगती है। बन्धुओं! सच

हमारी धार्मिक सभाओं के स्तर और गरिमा का सवाल ?

प्रो अनेकांत कुमार जैन  हमारे उत्सवों के स्तर और गरिमा का सवाल ? चातुर्मास में भव्याति भव्य कार्यक्रम होते हैं । प्रायः सभी कार्यक्रमों को ऐतिहासिक और अभूतपूर्व भी बतलाया जाता है । खर्च और वैभव से तो हम भव्यता विकसित कर ही रहे हैं किंतु साथ में यदि इन कार्यक्रमों के गुणात्मक स्तर को भी सुधार लें तो ये वास्तव में ज्यादा प्रभावशाली और सार्थक हो सकते हैं ।  कभी कभी समस्या यह भी हो जाती है कि उस गुणात्मक स्तर का अंदाजा उन्हें तो है ही नहीं जो आयोजक प्रायोजक है ,उन्हें भी नहीं होता है जिनके निमित्त या जिनके लिए ये कार्यक्रम होते हैं ।  कुछ देखी सुनी परिस्थितयां बिंदुबार दे रहा हूँ जिन्हें यदि हम सुधार लें तो धर्म सभा की गरिमा बच सकती है - 1. मंच पर बिना वजह भीड़ और अनुशासन हीनता । 2. पहले मंच पर मात्र विद्वानों या अतिविशिष्ट आमंत्रित अतिथियों का ही सम्मान होता था । अब दान दातार और उनके परिवार का ,नारियल चढ़ाने आये दूसरे स्थान की समाज का , सेवकों का तथा अन्य अनेक लोगों का सम्मान भी होने से पूरा समय इसी में लगता है । 3.पहले मंच संचालन कोई विद्वान् या कुशल सद्गृहस्थ या पदाधिकारी ही करते

अध्यक्ष : समाज का या सिर्फ मंदिर /कमेटी का ?

अध्यक्ष : समाज का या सिर्फ मंदिर / कमेटी का ?  मैंने एक बार एक परिचित मित्रवत् पदाधिकारी आयोजक से हिम्मत करके पूछा कि अमुक धार्मिक कार्यक्रम का सार क्या निकला और संदेश क्या पहुंचा ? तो उन्होंने मुझे समझाया कि 15 लाख खर्च हुए और 55 लाख दान आये अतः 40 लाख की शुद्ध आय हुई और पूरी समाज भक्ति में डूबी खूब नाची गाई - यह तो सार निकला और इसी तरह धर्म प्रभावना सभी को करनी चाहिए - ये संदेश गया ।  मैंने कहा - यह तो आनुषांगिक लाभ हैं ,धार्मिक कार्यक्रम का मुख्य उद्देश्य और प्रयोजन क्या था ?  उद्देश्य और प्रयोजन भी यही होता है और क्या ? - उन्होंने भोले पन से जबाब दिया ।  मैंने थोड़ा हिम्मत करके कहा कि भाई साहब अमुक कार्यक्रम के बाद या वर्ष भर में कितने लोगों ने संयम ग्रहण किया ? कितने लोगों को तत्त्वज्ञान का लाभ हुआ ? कितने लोगों को तत्त्वज्ञान और धर्म में रुचि उत्पन्न हुई ? कितने नए लोग धर्म से जुड़े ? कितने बिछुड़े लोग धर्म मार्ग पर आए ? कितनों के शारीरिक,मानसिक आदि दुख दूर हुए ? कितनों के सांसारिक संकट आपके निमित्त से दूर हुए ? कितनों का इलाज हुआ ? कितनों की रक्षा हुई ? कितने परिवार आपक

आखिर क्या है जिन शासन ?

जिन शासन क्या है ?  प्रो डॉ अनेकांत कुमार जैन,नई दिल्ली जमल्लीणा जीवा, तरंति संसारसायरमणतं ।  तं सव्वजीवसरणं, गंददु जिणसासणं सुइरं ॥  (मूलाचार 3/8) अर्थ - जिसमें लीन होकर जीव अनन्त संसार-सागर पार कर जाते हैं  तथा जो समस्त जीवों के लिए शरणभूत वह जिनशासन चिरकाल तक समृद्ध रहे । दुनिया में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा जो सुखी न होना चाहता हो | मनुष्य का सारा पुरुषार्थ,उसकी कोशिश,उसकी पूरे जीवन काल की कमर तोड़ मेहनत आखिर किसलिये है ? सुख के लिये ही न,यदि सुख का उद्देश्य न हो तो इतनी मेहनत किसलिए ? यहाँ तक कि इस पुरुषार्थ की यात्रा में आने वाले अनेक दुखों को भी वह सहन करता है ,भोगता है क्यों कि सुख की अभिलाषा है |कहीं यह सुखी होने की अभिलाषा ही मेरे दुखी होने का एक महत्त्वपूर्ण कारण तो नहीं ?  प्रश्न यह है कि हम सुखी क्यों होना चाहते हैं ? और यह 'सुख' जिसे हम चाह रहे हैं उसके वास्तविक स्वरुप का हमें भान भी है ?  दरअसल हम जिस दुनिया में रहते हैं वह भोग प्रधान है और शिक्षा से लेकर विज्ञापनों का एक बहुत बड़ा स्वार्थी व्यापारी दल हमारे सुख की एक बनावटी परिभाषा गड़ता है और यह समझ

जैन मुनि का शौचोपकरण है कमंडलु

शौचोपकरण है कमंडलु जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव ने दिगंबर मुनि चर्या में संयमोपकरण मयूर पिच्छिका की भांति शौचोपकरण कमंडलु को भी अनिवार्य बताया था | एक दृष्टि से ये दिगंबर जैन मुनियों की मूल पहचान या चिन्ह भी माना जाता है |1 आचार्य कुन्दकुन्द (प्रथम शती) ने नियमसार ग्रन्थ में कमंडल शब्द का प्रयोग मुनियों की आदान निक्षेपण समिति के प्रसंग में किया है |2 मूलाचार ग्रन्थ की संस्कृत वृत्ति में इसे ‘कुंडिका’ नाम से कहा गया है |3 आचार्य विद्यानंद(नवमी शती ) ने तुम्बी फल(सामुद्रिक नारियल ) का उल्लेख किया है जिससे पता लगता है कि इसका प्रयोग कमंडल निर्माण में किया जाता था और उसे प्रासुक माना जाता था | 4 वर्तमान में उसे अफ्रीकन नारियल भी कहते हैं |काष्ठ के कमंडल का प्रयोग भी होता रहा है |वर्तमान में फाइवर के कमंडल प्रचलन में हैं |धातु के कमंडल का प्रयोग जैन परंपरा में नहीं होता है | शास्त्रों में इस कमंडल की हर पंद्रह दिन में अन्दर बाहर दोनों तरह से प्रक्षालन का भी निर्देश किया गया है ताकि इसमें सूक्ष्म जीवों की उत्पत्ति न हो |ऐसा न करने पर मुनियों को प्रायश्चित्त लेने

युवा पीढ़ी को धर्म से कैसे जोड़ा जाय ?

  युवा पीढ़ी को धर्म से कैसे जोड़ा जाय ?                                      प्रो अनेकांत कुमार जैन , नई दिल्ली    युवावस्था जीवन की स्वर्णिम अवस्था है , बाल सुलभ चपलता और वृद्धत्व की अक्षमता - इन दो तटों के बीच में युवावस्था वह प्रवाह है , जो कभी तूफ़ान की भांति और कभी सहजता   से बहता रहता है । इस अवस्था में चिन्तन के स्रोत खुल जाते हैं , विवेक जागृत हो जाता है और कर्मशक्ति निखार पा लेती है। जिस देश की तरुण पीढ़ी जितनी सक्षम होती है , वह देश उतना ही सक्षम बन जाता है। जो व्यक्ति या समाज जितना अधिक सक्षम होता है। उस पर उतनी ही अधिक जिम्मेदारियाँ आती हैं। जिम्मेदारियों का निर्वाह वही करता है जो दायित्वनिष्ठ होता है। समाज के भविष्य का समग्र दायित्व युवापीढ़ी पर आने वाला है इसलिए दायित्व - निर्वाह की क्षमता का अर्जन , स्थायित्व और समुचित उपयोग होना अत्यन्त अपेक्षित है और दायित्व निर्वाह से पहले अपेक्षित होता है दायित्व का बोध और दायित्व का बोध संस्कारों स