मेरी आत्मकथा
- तीर्थंकर भगवान् महावीर
अनेक लोगों ने मेरे जीवन के बारे में बहुत कुछ लिखा है ,वो सब मेरे ज्ञान का विषय बनता रहता है ,अपने बारे में कुछ न कहो तो जो अन्यान्य लेखक लिखते हैं उसे ही मानकर चलना पड़ता है । इसलिए मैं आज स्वयं ही अपनी कहानी कहना चाहता हूँ ।
मेरा जन्म और बचपन
मुझे मेरी माँ ने ही बताया कि मेरे जन्म के पहले उन्होंने 16 प्रकार के मंगल स्वप्न देखे तो पिताजी ने कहा कि तुम भाग्यशाली हो ,तुम ऐसे पुत्र की माँ बनने वाली हो जो धर्म तीर्थ का प्रवर्तन करेगा ।
मुझे पूरा स्मरण तो नहीं लेकिन जब मैं गर्भ में था तब माता पिता इस जगत के विषय भोगों के प्रति अरुचि रखते हुए,बहुत तत्त्व चर्चा करते थे और संसार और शरीर की क्षण भंगुरता का चिंतवन करते हुए ,शाश्वत शुद्धात्मा की अनुभूति की बातें करते हुए प्रातः रोज ही उपवन में भ्रमण करते थे ।उनकी इन चर्चाओं का असर अनजाने ही मुझ पर उसी समय से होने लगा था ।
मेरी माँ प्रतिदिन णमोकार मंत्र की सुबह शाम कई जाप करती थीं,उस मंत्र की अंतर्ध्वनि और तरंगें मुझे उस समय अंदर ही अंदर महसूस होती थीं । वे प्रतिदिन तीन समय सामायिक भी करती थीं । उनका प्रतिक्रमण और स्तुति मुझे भी विशुद्ध परिणामों से सराबोर कर दिया करती थी ।
चैत्र शुक्ला त्रियोदशी को मुझे गर्भ बंधन से मुक्ति मिली और वह दुर्लभ मनुष्य जन्म, पुरुष पर्याय और जैन कुल मिला जो भव बंधन से मुक्ति के पुरुषार्थ के लिए नितांत आवश्यक था । जब मेरा जन्म हुआ तब बहुत प्रकार के लोग आए कोई उन्हें सौधर्म इंद्र कह रहा था,कोई शचि इंद्राणी ।
मेरा नामकरण
पता नहीं क्यों वे उस समय मुझे मेरी माँ से अलग करके सुमेरु पर्वत की पांडुक शिला पर ले गए और बहुत भक्ति पूर्वक मेरा जन्माभिषेक भी करवाया । जन्म के अनंतर यह आवश्यक होता होगा । गर्भ में 9 माह सिकुड़ कर रहते रहते, मैं भी अकड़ सा गया था । थोड़ा अंगड़ाई लेते समय मैंने सहज ही अपने पैर का अंगूठा मेरु से छू दिया तो मानो भूकम्प सा आ गया,इंद्र घबड़ा गए और मेरी तरफ अत्यंत श्रद्धा से देखते हुए मुझे 'वीर' नाम से पुकारने लगे । मुझ नन्हें बालक को निहार निहार कर अनेक लोग बहुत खुश हो रहे थे और मेरी भक्ति कर रहे थे । कई लोग रत्नों के मुकुट और हार पहने हुए थे । लोग उन्हें इंद्र और इंद्राणी कह रहे थे । बच्चे को देख आनंदित होना तो समझ आता था ,लेकिन उनका भक्ति करना मेरी समझ के बाहर था । भक्ति तो भगवान् की होती है और मैं बालक था ।पता नहीं वे भविष्य की किस अप्रगट पर्याय को प्रगट रूप में देख रहे थे ?
हमारा सुन्दर राजमहल
मेरे जन्म के समय पूरे वैशाली में उत्सव मनाया गया । मैं जिस महल में रहता था ,उसका नाम नंद्यावर्त था । वह सात खंड का था । मुझे खेलने में बहुत आनंद आता था । मैं धीरे धीरे चंद्रमा की कलाओं की भांति बड़ा हो रहा था । माँ,मुझे रोज देखतीं और कहतीं आज तो तू कल से भी ज्यादा सुंदर लग रहा है,तू रोज बड़ा हो रहा है । पिताजी ने बताया कि जब से तू माँ के गर्भ में आया ,उस दिन से ही पूरे वैशाली की समृद्धि बढ़ने लगी अतः इन सभी कारणों से उन्होंने मेरा नाम वर्धमान रख दिया ।
मेरी रुचियाँ और शौक
मुझे बचपन से ही प्रकृति और उसके बीच रहना पसंद था । मैं खूब खेलता कूदता था ,कभी नंद्यावर्त की छत पर कुंडग्राम की खूबसूरती निहारता तो कभी सूर्य की तेज रश्मियों से आलोकित प्रकृति को । ये सब देखते देखते मेरे मन में उसी समय से एक अलौकिक जिज्ञासा का प्रादुर्भाव होने लगा था । मैं मन ही मन सोचता था कि इतनी सुंदर प्रकृति,रंगबिरंगे फूल,फलों से लदे वृक्ष,अरुणाचल में उगता हुआ सूर्य,कलकल बहती नदियां,खुले आसमान में कलरव करते उड़ते वृहंग,वनों में अठखेलियाँ करते मृग, उपवन में नृत्य करते बहुरंगी मयूर - इतने सुंदर और मन भावन संसार को आखिर क्षण भंगुर क्यों कहा जाता है ?मां बापू इन्हें असार क्यों कहते रहते हैं ? यदि ये असार है तो सारभूत क्या है ?
मेरी जिज्ञासाएं
पूछने पर मेरे साथ खेलने वाले मित्र जो मंत्रियों और खजांचियों के बेटे थे अक्सर कहते कि ये सब ईश्वर ने बनाया है और सिर्फ यही नहीं बल्कि हमको आपको सबको ईश्वर ने बनाया है । वे समझाते थे कि बिना उसकी मर्जी के एक पत्ता भी नहीं हिलता । ईश्वर को खुश करने के लिए उनकी पूजन आवश्यक है , वे नाराज हो जाएं तो सब कुछ तबाह हो सकता है । आदि आदि न जाने कितनी बातें वे मुझे बताते रहते थे । मैं चुपचाप उनकी बातें सुनता और सोच में पड़ जाता ।मुझे लगता था कि वास्तविक सत्य कुछ और है । ईश्वर का स्वरूप वैसा नहीं है जैसा ये बताते हैं ।वास्तविक सत्य की खोज करने को मैं बहुत उत्सुक हो गया ।
मित्र मंडली
एक दिन में नंद्यावर्त के चतुर्थ तल पर वातायन की तरफ मुख करके प्रकृति के सौंदर्य का निरीक्षण कर सोच रहा था कि सत्य के बारे में सबकी राय अलग अलग क्यों है ? जबकि सत्य एक होता है ? इतने में मेरे अनेक मित्र मुझे खोजते हुए मेरे पास आ गए और खेलने की जिद करने लगे । एक ने कहा - वर्धमान,हम तुम्हें एक घंटे से खोज रहे हैं,तुम अब जाकर मिले हो ।
दूसरे ने शिकायत के स्वर में कहा कि तुम्हारे माता पिता के मिथ्या वचनों के कारण ऐसा हुआ । क्या हुआ ? ऐसे वचन क्यों कह रहे हो ,मेरे माँ बाप सत्याणुव्रत के धनी हैं ,वे कभी असत्य वचन नहीं कहते । - मैंने थोड़ी नाराजगी व्यक्त करते हुए कहा ।
इस पर तीसरे ने कहा कि देखो जब हम नंद्यावर्त में आये तो भूतल पर माता त्रिशला मिलीं उनसे हमने पूछा कि वर्धमान कहाँ है ? तब उन्होंने कहा कि ऊपर है ।हम ऊपर सातवें खंड पर गए तो वहाँ तुम नहीं मिले बल्कि पिताजी राजा सिद्धार्थ मिले तब उनसे हमने तुम्हारे बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि नीचे के तल पर है । हम फिर भूतल पर आए तो भी तुम नहीं मिले । फिर हम सभी ने प्रत्येक तल का निरीक्षण किया । अब तुम चतुर्थ तल पर मिले ,इसलिए तुम्हारे माता पिताजी ने हमसे असत्य वचन कहे हैं ।
अनेकान्तवाद की खोज
मैं सोच में पड़ गया । फिर विचार करके मैंने उनसे कहा कि देखो न मेरे पिताजी ने असत्य कहा और न ही माता जी ने । किन्तु दोनों की वाणी सापेक्षिक सत्य थी । पिता सातवें तल पर थे अतः उनकी अपेक्षा मैं नीचे ही था और मां भूतल पर थीं, अतः उनकी अपेक्षा मैं चतुर्थ तल पर ऊपर था ।
मित्रों में कुछ को कुछ बात समझ में आई और कुछ को नहीं आई । लेकिन उन्हें समझाते समझाते मेरी बहुत बड़ी समस्या का समाधान हो गया । मैंने सत्य के अनुसंधान में एक नवीन प्रमेय को पा लिया । मुझे यही बात सत्य के संदर्भ में दिखाई देने लगी कि लोग सत्य के बारे में अलग अलग कथन क्यों करते हैं ? दरअसल सत्य बहुआयामी होता है और प्रत्येक मनुष्य जिस स्थान या भूमिका में होता है वह उसके किसी एक आयाम को देखता है और उसका कथन करता है । इसलिए अलग अलग दृष्टिकोण सामने आ जाते हैं । वस्तु अनंत धर्मात्मक है । उसमें परस्पर विरोधी धर्म स्वभाव से ही विद्यमान हैं ।वस्तु के वास्तविक स्वरूप के बारे मेंअपने अंदर के इस रहस्य को सुलझाता हुआ मैं बहुत रोमांचित हुआ ,मुझे बहुत बड़ी निधि मिल गई थी ।
बस ,फिर क्या था मैंने इसका नाम ' अनेकांत' सिद्धांत रख दिया ,अब मैं मन ही मन इसके अनेक रूप सोचता हुआ एक दिन नंद्यावर्त के उद्यान में एक झूले पर बैठा आत्मा के स्वरूप का चिंतवन कर ही रहा था कि मेरे भाग्य से उसी समय आकाश मार्ग से चारण ऋद्धिधारी दो दिगम्बर मुनिराज पधारे । उन्हें देख मुझे अपने पूर्वजन्म की स्मृति हो आई जब मैं सिंह के रूप में जंगल में घूम रहा था और तभी इसी तरह दो मुनिराजों ने आकर मुझे संबोधन दिया था और मुझे रत्नत्रय का पहला रत्न सम्यग्दर्शन मिल गया था ।
सप्तभंग और स्याद्वाद का रहस्य `
वे मुनिराज भी वस्तु स्वभाव का ही चिंतन कर रहे थे और उन्होंने पदार्थ के स्वरूप विषयक एक शंका मेरे समक्ष रख दी । मुझे उसका समाधान अनेकान्तवाद से समझ तो आ गया था लेकिन कहते नहीं बन रहा था । मैं पुनः विचार करते करते नंद्यावर्त की ओर निहारने लगा कि इसी महल में मुझे अनेकान्तवाद समझ आया था अब उसे कहने के लिए भी यही महल निमित्त बनेगा । मैंने नंद्यावर्त के सात तलों को गिना और महसूस किया कि शंकाएं सात प्रकार की ही हो सकती हैं अतः सात प्रकार से ही सही जबाब दिए जा सकते हैं । स्यादस्ति आदि सात भंग का आइडिया मुझे तभी आया और मैंने सप्तभंग के माध्यम से उन मुनिराजों की शंका का समाधान कर दिया तो वे बहुत संतुष्ट हुए । इसी कारण विहार करने से पूर्व उन्होंने मुझे 'सन्मति' नाम से पुकारा और तब से लोग मुझे सन्मति नाम से भी पुकारने लगे । मैंने सप्तभंग की इस पद्धति का नाम स्याद्वाद रख दिया ।
फिर क्या था मैं अब सभी परिस्थिति,घटना और पदार्थ को सापेक्ष दृष्टिकोण से देखने लगा ,मुझे लगा कि लोग व्यर्थ ही संघर्ष करते हैं । उनके संघर्ष का मूल कारण है एकांतिक दृष्टिकोण । अब मेरी उत्सुकता सत्य को समझने के साथ साथ सत्य की अनुभूति की ओर भी बढ़ने लगी । मुझे लगता था कि इस संसार में रहकर और मनुष्य जन्म पाकर मैंने यदि अपनी शुद्धात्मा को प्राप्त नहीं किया तो यह जन्म व्यर्थ चला जायेगा ।
माँ की चिंताएं
माता से मैं अक्सर कई जिज्ञासाएं करता था ,वे मेरी सभी जिज्ञासाओं का समाधान भी करती थीं ,लेकिन पिताजी से चिंता व्यक्त करती थीं कि वर्धमान बहुत गहरी बातें करता है । बाल्यकाल में ही आज वयस्कों की भांति बातें करता है । पिताजी उन्हें निश्चिंत करते रहते थे ,कहते कि प्रत्येक जीव का परिणमन स्वतंत्र होता है । तुम्हारा सौभाग्य है कि तुम ऐसे पुत्र की माँ हो जो सब जीवों का कल्याण करने वाला है । उन्होंने उन्हें बताया कि तुम्हारा पुत्र जन्म से ही मति ,श्रुत और अवधिज्ञान का धारी है ।
ये बातें मैं भी सुनता था ,लेकिन मेरे लिए ऐसा क्यों कहा जा रहा है ? यह समझ में नहीं आता था ।मगर यह जरूर लगता था कि इस जीवन का कुछ अर्थ होना चाहिए । जीवन का मुख्य उद्देश्य स्व-पर कल्याण ही होना चाहिए ।
मैं ये बातें अपने मित्रों से भी करता था ,लेकिन वे समझते नहीं थे । फिर भी खेल खेल में मैं उन्हें अहिंसा की बात तो समझाता ही था । एक दिन उपवन में हम खेल रहे थे , खेलते खेलते जब हम सभी थक गए तो मैंने उनकी थकान मिटाने के बहाने उन्हें ध्यान का अभ्यास करवाया । पद्मासन में बैठकर आंखों को कोमलता से बंद करके अपनी इन्द्रिय चंचलता को समेटकर आत्मा को देखने का अभ्यास मैंने तब से ही प्रारंभ कर दिया था ।
अहिंसा का पहला प्रयोग
एक दिन उसी समय एक सर्प हम सभी के बीच आ गया । हमारे सभी मित्र घबड़ा गए ,कुछ भाग गए ,कुछ मित्र उसकी हत्या करने को भी उत्सुक हो गए । बिडम्बना यह थी कि मैं ध्यान में इतना डूब गया था कि मुझे सर्प का भान तक नहीं हुआ। जब ज्यादा शोर हुआ और मित्र मुझे पलायन को कहने लगे तो मुझे आभास हुआ और मैंने देखा वह सर्प मेरे सामने फण फैलाये बैठा हुआ था । उसी क्षण मैंने उसे शांत भाव से देखा और उसकी पर्याय का निरीक्षण कर उसके भी भीतर विराजमान शुद्ध चैतन्य तत्व के दर्शन किये और ये भावना की कि इस जीव का भी कल्याण हो । मुझे आश्चर्य हुआ कि मेरी इस विशुद्ध भावना का सम्प्रेषण ( टेलीपैथी) उस सर्प तक हो गई । विशुद्ध परिणामों की तरंगें प्रत्येक जीव तक पहुंचती हैं । वह सर्प बिना किसी को नुकसान पहुंचाए स्वतः वहाँ से चला गया ।
मेरे मित्रों को लगा कि जहरीले सर्प से बड़े बड़े भी भाग जाते हैं लेकिन मैं हिम्मत से वहाँ बैठा रहा और सर्प को भगा दिया । यह प्रसंग पूरी वैशाली में फैल गया । लोग मुझे वर्धमान,सन्मति और वीर नाम से तो पुकारते ही थे,उस दिन से मुझे महावीर भी कहने लगे । मुझे इसमें बहुत बड़े साहस जैसी बात न लग रही थी । मुझे सर्प वाली घटना सहज प्राकृतिक घटना जैसी लग रही थी । लेकिन लोगों को बहुत बड़ी बात लगी । इस घटना से मैंने एक निष्कर्ष निकाला कि मनुष्य अभय इसलिए नहीं है क्यों कि वह करुणाशील नहीं है । उसे वस्तु के स्वरूप का ज्ञान नहीं है । वह दूसरे प्राणियों के प्रति अहिंसक नहीं है इसलिए स्वयं की हिंसा से भयभीत रहता है । तब मुझे लगा कि वास्तव में सुखी होने का और दूसरों को सुखी करने का एक ही उपाय है - अहिंसा । उस दिन मैंने संकल्प किया कि अहिंसा विषय पर पूरा अनुसंधान कर मैं इसे पूरे विश्व को समझाऊंगा ।
अहिंसा का दूसरा प्रयोग
बाल्यावस्था के अनंतर मैंने किशोरावस्था में प्रवेश किया । मुझे ध्यान करना ,सामायिक करना और संसार की सभी चीजों को जानना -ये प्रमुख चीजें पसंद थीं । मित्रों के साथ नगर भ्रमण भी मुझे बहुत आनंदित करता था । एक दिन अजीब सा वाकया हुआ ,मैं मित्रों के साथ नगर में भ्रमण कर रहा था । अचानक गजशाला से भागे हुए एक विक्षिप्त गजराज नगर में उत्पात मचाने लगे ,लोगों को रौंदते और दुकानों को नष्ट करते हुए वे बहुत आतंक पैदा कर रहे थे । शुरू में मित्रों और अन्य राहगीरों की भयाकुलता देख थोड़ा मैं भी भयभीत हुआ ,किन्तु फिर विचार किया कि यह भी संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव है ,जरूर महावत के अत्याचारों से भयाक्रांत होकर यह विक्षिप्त हो गया होगा ।
मैंने एक प्रयोग किया ,अनादिनिधन णमोकार महामंत्र का उच्चारण करते हुए मैंने उसके समक्ष जाने का साहस किया । मन्त्र ध्वनि से वह अभिभूत हो गया ,और शांत भाव से खड़ा होकर मात्र अपनी मुखाकृति से अपने दुःख की अभिव्यक्ति करने लगा । मैंने उसे संबोधित करते हुए कहा - हे ! गजराज ,तुम तो स्वयं मंगल स्वरुप हो ,जगत का कल्याण करते हो ,आज अपने आपे से बाहर कैसे आ गए ,मुझसे कहो क्या पीड़ा है ? उसने दो तीन चिंघाड़ भरी ,मानो अपनी पीड़ा कह रहा हो ,मैं उसकी बात समझ गया। मैंने उससे कहा कि तुम्हारा शरीर बहुत बड़ा है और एक चींटी का शरीर बहुत छोटा ,किन्तु दोनों के ही देहालय में शुद्धात्मा विराजमान है । इस शरीर का अभिमान त्याग कर स्वयं के अनंत ज्ञान दर्शन वीर्य और सुख युक्त आत्मा का ध्यान करो ,इसी में तुम्हारा कल्याण है ।
वह बैठ गया ,उसकी आँखों से अश्रुधारा बह रही थी ,मानो उसका प्रायश्चित और प्रतिक्रमण एक साथ चल रहा हो । मैंने प्रेम से उसे सहलाते हुए उसकी सूंड को छुआ तो उसने मुझे अपने ऊपर बैठने का निमंत्रण दिया और मैंने उसकी पीठ पर बैठकर उसे प्रेम से वापस गजशाला में भिजवा दिया । लोग देख रहे थे ,कोई उसे पागल कह रहा था ,कोई शत्रु का षड्यंत्र ,कोई अपशब्द कह रहा था तो कोई करुण पुकार, लेकिन ये दृश्य देख कर नगर की जनता ने भी अहिंसा की ताकत देखी । जो कार्य हथियार युक्त सैनिक नहीं कर पा रहे थे ,वो कार्य मधुर संभाषण ,तत्त्वज्ञान और शुभभावों ने कर दिखाया । मगर लोगों ने हमारे संवाद को नहीं सुना ,उन्हें तो बस इतना लगा कि वर्धमान वीर ने इस कोमल अवस्था में विक्षिप्त हाथी पर विजय प्राप्त कर ली ,जो कोई और नहीं कर सका ,अतः तभी से नगर वासी मुझे 'अतिवीर' संबोधन देने लगे और इस तरह मेरा एक और नाम पड़ गया ।
आपको एक और बात बता दूं ,मेरे दिलोदिमाग में जो वस्तु की अनंत धर्मात्मकता वाला अनेकांत सिद्धांत चल रहा था ,उसे हाथी के दृष्टान्त के माध्यम से समझाने का आइडिया भी तभी आ गया था और अंधों के द्वारा जो हाथी को टटोल कर अलग अलग राय देने वाली बात भी मुझे राहगीरों की अलग अलग बातें सुनकर आई थी ।
मेरे विवाह का प्रस्ताव
संसार शरीर और भोगों के प्रति सच्ची उदासीनता ने मुझे आत्मविजयी होने के लिए स्वतः ही उत्साहित कर दिया था । मैं नंद्यावर्त में होने वाले नृत्य संगीत आदि समारोहों में भी बैठता था । मेरी माँ मोह वशात् कुछ ऐसी कोशिशें करती थीं कि मैं महल के सुखों में रम जाऊं ।
इसी कारण अचानक एक दिन कलिंग के राजा जितशत्रु मेरे महल में अपनी कन्या यशोदा का विवाह प्रस्ताव लेकर आये । मुझे लग गया था कि निश्चित ही यह आयोजन मेरी माँ ने पिताजी से कहकर जबरजस्ती करवाया होगा । यशोदा सुंदर राजकन्या थी । वह भी जिनधर्म के तत्त्वज्ञान को समझती थी । हमने आपस में काफी चर्चाएं कीं । एक बार तो मेरा मन किया कि विवाह पूर्वक गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए ,भारत वर्ष में प्रथम वैशाली की इस गणतंत्र व्यवस्था को और अधिक लोकतांत्रिक ,सम्पन्न और धर्म शासन युक्त बना कर लोक का कल्याण किया जाय ।मुझे पता था यह भविष्य में पूरे विश्व के गणतंत्र और लोकतंत्र का आधार बनेगी । किन्तु ,तत्क्षण मेरे मन में यह भाव भी आया कि ,संसार चलाने का यह कार्य तो अनादि से अनंत बार किया है । अब इस मनुष्य जन्म को पाकर ,जिनधर्म को पाकर जन्म मरण के चक्कर से पार होना ही एक मात्र उद्देश्य होना चाहिए ,नहीं तो चौरासी भवों का पुनः चक्र प्रारंभ हो जाएगा । विवाह करना बुरा नहीं है ,लेकिन जब मुझे यह संकल्प पूर्व से ही है कि मुझे जल्दी दीक्षा अंगीकार करनी है तो व्यर्थ के प्रपंच रच कर क्यों किसी का जीवन दुखी किया जाय ।
यह मनोभाव मैंने यशोदा से भी प्रगट किये ,वह मेरे विचारों से बहुत प्रभावित हुई और उसने मेरा समर्थन किया और कहा कि यदि आपको नेमिनाथ और राजुल का कथानक स्मरण है तो आप मुझे राजुल से कम न समझें । मुझे उसकी बातें सुनकर बहुत संतोष और प्रसन्नता का अनुभव हुआ ।
माँ की निराशा
मेरी माँ को बहुत निराशा हुई ,वे सोलह स्वप्नों की भविष्यवाणी सत्य होते देख रही थीं ,लेकिन सबकुछ जानते हुए भी उनका मोह उनसे यह सब करवा रहा था । उन्होंने नगर के सुप्रसिद्ध संगीतकार गंदर्भ विशारद सोमदत्त और सोमदत्ताश्री के श्रृंगार युक्त गीत और संगीत का आयोजन सिर्फ मेरे लिए किया । क्यों न हो किसी भी माँ को यदि उनका बेटा भरी जवानी में वैराग्य की बातें करे तो चिंता हो ही जाती है । लेकिन मेरे पिताजी निश्चिंत रहते थे ,अतः माँ के निर्णयों में टोकाटोकी करके झंझट मोल नहीं लेते थे । उन्हें पता था कि क्या चल रहा है और क्या होने वाला है । वे जानते थे कि हम सभी अपने मिथ्या विकल्पों के गुलाम होते हैं और मात्र उन विकल्पों की पूर्ति के लिए व्यर्थ पुरुषार्थ करते हैं । बाकी जो होनहार है वह तो होकर रहेगी ।
संगीत के प्रयोग
सोमदत्ताश्री जब विविध प्रकार से श्रृंगार गीत गा गा कर हार गई तो उसने मुझे खुश करने के लिए वैराग्य गीत भी सुनाए ,उसके वैराग्यपूर्ण गीत मेरे मन को भाने लगे । मैंने अंदर ही अंदर निश्चय किया कि मैं परम सत्य की खोज पूरी करके रहूंगा । मैं स्वयं को जानना चाहता था ,मैं कौन हूँ ? मेरा स्वरूप क्या है ? सच्चा सुख कहाँ है ? मुझे लगा कि जब तक मैं इंद्रियों के वशीभूत रहूंगा,तब तक मैं आत्मसाक्षात्कार नहीं कर पाऊंगा ।
परिजनों ,रिश्तेदारों मित्रों आदि ने मुझे समझाया कि वृद्धावस्था में निष्क्रमण करना ,लेकिन मुझे लगा कि यह भव भव का अभाव करने के लिए मिला है न कि प्रतीक्षा के लिये ,इसलिए अभी नहीं तो कभी नहीं की भावना मेरे मन में प्रबल हो गई ।
त्याग का प्रयोग
इसलिए मैंने राजपाट का त्याग कर दिया । मुझे अपना मनुष्य भव सार्थक करना था । राजपाट संभालने वाले बहुत हैं। मैं नहीं करूंगा तो कोई और कर लेगा । पर खुद का कल्याण तो मुझे स्वयं ही करना होगा ।मेरी उम्र लगभग 30 की रही होगी ,मुझे ज्यादा देर करना उचित नहीं लगा ,मुझे लगा महलों में रहकर और बन्धनों में रहकर मैं पूर्ण स्वतंत्रता की खोज नहीं कर सकता । मैंने स्वयं ही दीक्षा ले ली । मैंने समस्त आभूषणों सहित वस्त्रों का भी पूर्ण त्याग कर दिया ,मुझे दिगम्बरत्व भा गया । मुझे वीतरागता पसंद थी ,वस्त्रों को तो छोड़ो ,मुझे इस शरीर से भी राग नहीं बचा था । मैं दिन रात तपस्या करता हुआ पूरे मगध में भ्रमण करने लगा ।
मौन उपदेश का प्रयोग
मैंने वस्तु के वास्तविक स्वरुप का निर्णय करने में और आत्मसाक्षात्कार करने में स्वयं को पूर्ण रूप से समर्पित कर दिया । मैं जहाँ जाता लोग मुझसे आशीर्वाद मांगते और उपदेश की अपेक्षा करते । लेकिन मैंने भी निर्णय कर लिया था कि जब तक मैं पूर्ण ज्ञान को प्राप्त न कर लूँ तब तक मैं कोई उपदेश नहीं दूंगा और एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कर्त्ता नहीं है -यह मेरा पक्का निर्णय था, इसलिए मैंने कभी आशीर्वाद की मुद्रा भी नहीं बनाई ,मैं एक हाथ पर अपना दूसरा हाथ रख कर पद्मासन का प्रयोग करता था और नासाग्र दृष्टि रखकर आत्म ध्यान करता था । यही मेरा प्रवचन था और यही मेरा सन्देश ,लेकिन भव्य जीव ही इस भाव को ग्रहण कर पाते थे । कायोत्सर्ग की मुद्रा से मैं शरीर के प्रति ममत्व त्याग का उपदेश देता था ,और समझने वाले समझ जाते थे । बारह वर्षों तक मैंने मौन साधना की ,उपदेश दिया लेकिन मुंह से नहीं अपनी चर्या से,साधना से ।
पूर्णता का आनंद
फिर एक दिन ऐसा हुआ कि मुझे लोकालोक ,भूत भविष्यत् वर्तमान ,सभी द्रव्य और उनकी प्रत्येक पर्यायें स्पष्ट प्रत्यक्ष दिखने लगे ,लेकिन मुझे अब दुनिया जानने का प्रयोजन रह ही नहीं गया था ,मुझे अपना शाश्वत आत्मतत्व प्राप्त हो गया था ,ऐसा असीम अतीन्द्रिय आनंद ,सुख का अविनश्वर सरोवर मेरे भीतर प्रगट हो गया था ,अब कुछ और पाना शेष नहीं था मात्र ..केवल ज्ञान और उसका आनंद ।
मुझे इस तरह का एहसास भी हुआ कि मेरे जन्म के समय जो सौधर्म इंद्र आये थे वे पुनः आ गए हैं और पूजा अर्चना भी करने लगे ,कुबेर भाई पता नहीं किन व्यवस्थाओं में लगे हैं । इन सब बाहरी चकाचौंध से पहले साधनाकाल में मुझे बहुत तकलीफ होती थी ,लेकिन अब अंदर का अतीन्द्रिय सुख ऐसा अनुपम और अलौकिक था कि बाहर कुछ भी होता रहे मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता था । मैं बाहर कोई भी यत्न नहीं करता था,मेरा सारा पुरुषार्थ अब सहज हो गया था । मेरा गमन ,विचरण ,उठना ,बैठना सब कुछ सहज था और क्यों हो रहा था मुझे नहीं मालूम ,न ही मैंने जानने का कभी प्रयास किया ।
गौतम का संयोग
कुछ तो अलौकिक था ,मैं शांत रहता था और लोग मुझसे उपदेश की अपेक्षा रखते थे । सबसे ज्यादा चिंता सौधर्म को होती थी । सभी वस्तु का स्वरुप समझना चाहते थे ,वास्तविक धर्म और आत्मानुभूति का उपाय जानना चाहते थे । लोग चिंतित हो रहे थे ,रोज मेरे पास आते मुझे चातक की भाँती निहारते,कुछ प्रतीक्षा करते और चले जाते ।ऐसा क्रम 66 दिन तक चला । मेरा परिणमन भी सहज था , मैं कुछ कहने से स्वयं को रोक भी नहीं रहा था और कुछ कह भी नहीं रहा था ।
सौधर्म ने अपनी पहुँच से कुछ ऐसा जाना कि वस्तु तत्त्व की सूक्ष्मता को समझने वाला कोई विद्वान् पंडित इस सभा में नहीं है ,संभवतः इसलिए मैं मौन हूँ । लेकिन न मैं मौन था और न अमौन ,बस जो था सो था ,लोग अपने मन से अन्यान्य कयास लगा रहे थे । इतने में एक ब्राह्मण विद्वान् मुझे अपने करीब आते दिखाई दिये ,उन्हें देखकर मुझे लगा कि ये ज्ञानी जीव हैं,भव्यात्मा हैं । बस,मेरे माध्यम से ओंकार की ध्वनि होने लगी । मुझे लगने लगा कि अपनी अनुभूतियों से जो सत्य मैंने समझा है वह सारा उड़ेल दूँ । उन विद्वान् पंडित जी का नाम इंद्रभूति गौतम था ,वे अपने साथ अन्यान्य विद्वानों को लेकर आये थे । पहले मैंने सोचा उस परम रहस्य को इन्हें संस्कृत भाषा में समझाऊं ,फिर लगा कि ऐसे तो अहिंसा धर्म की सत्यता अन्य जनसामान्य तक न पहुँच सकेगी ,उन दिनों जब बारह वर्ष तक मैंने भ्रमण किया था तब मैंने देखा था कि अधिकांश लोग प्राकृत भाषा में संभाषण करते हैं ,उनकी यही मातृभाषा है ,अतः स्वतः ही प्राकृत भाषा में मेरी पूरी बात रूपांतरित होने लगी । मेरे मन में हमेशा से सभी छोटे बड़े जीवों के प्रति करुणा का भाव रहा अतः मुझे देखने सुनने नर नारियों के साथ साथ अनेक पशु पक्षी आदि तिर्यंच भी आने लगे ।
मेरा निर्वाण
मुझे लगता था कि प्रत्येक जीव मात्र अपनी भूलों के कारण दुखी है और अपनी भूलों को सुधार कर वह मेरी तरह सुखी हो सकता है । लोग मुझसे शरण मांग रहे थे और मैं उनसे कह रहा था कि तुम्हारी शुद्धात्मा ही तुम्हारी वास्तविक शरण है । मैं चाहता था कि ये जो मेरे चरणों को पूज रहे हैं ये मेरे आचरण को धारण करें और स्वयं मेरे समान बनकर सुखी हो जाएँ ।
अंत में मुझे यह लगने लगा कि बहुत कह लिया ,जो वास्तविक सत्य मैं अपनी आत्मा से प्रत्यक्ष देख रहा हूँ वह कहा नहीं जा सकता ,मैंने जितना जाना उसका अनंतवां भाग ही प्ररूपित हो पाया ,ज्यादा हो भी नहीं सकता था । जो स्वयं जाना जा सकता है वह कोई और नहीं बता सकता, अतः मैंने 'स्वयं सत्य खोजें और आत्म साक्षात्कार करें' कहकर बिहार के पावापुर क्षेत्र में दीपावली के दिन प्रातः पूर्ण समाधि धारण कर ली ,क्यों कि मुझे सिद्ध पद में स्थित होना था ।
मेरी मान्यता
मैंने अपना कार्य तो कर लिया और आप सभी को मेरे समान ही शाश्वत अविनाशी सुख प्राप्त करने का मार्ग भी बता दिया । अब यदि स्वयं का कल्याण करना है तो आप चाहें तो मेरा अनुसरण कर सकते हैं , यह मार्ग सच्चे सुख का मार्ग है ,ध्यान रखियेगा मैंने किसी भी संप्रदाय या पंथ का प्रतिपादन नहीं किया ,मैंने आत्मधर्म और मोक्षमार्ग बतलाया था । मेरा यह स्पष्ट मानना था कि कोई भी जीव अपने वास्तविक स्वरुप को समझ कर पूर्ण सुखी हो सकता है । संप्रदाय,जाति,भाषा,वेशभूषा,देशक्षेत्र ये बाधक तत्त्व नहीं हैं ,बाधक हैं हमारे अन्दर का राग और द्वेष ,और साधक है एक मात्र वीतरागता । जो वास्तव में सच्चे अर्थों में अपना कल्याण करता है ,वो ही पर का भी सच्चा कल्याण कर सकता है ।
वर्तमान परिस्थिति पर मेरा चिंतन
मैं देखता हूँ लोग धर्म के नाम पर दूसरों के कल्याण की चिंता ज्यादा करते हैं और खुद की उन्हें खबर ही नहीं रहती । मैं यह भी देखता हूँ कि लोग मंदिर में मेरी आकृति को प्रतिष्ठित करके ,मेरे गुणों की आराधना करते हैं ,मुझे जोर जोर से भक्तियाँ सुनाते हैं लेकिन मेरी सुनते नहीं हैं ,बहुत कम लोग हैं जो शास्त्रों का स्वाध्याय करते हैं । मैंने जो कहा उसे पढ़ते और सुनते हैं ।
मैं देखता हूँ संसार दुखों से भयाक्रांत भोले श्रावक जोर जोर से बोलते हैं 'वर्तमान को वर्धमान की आवश्यकता है',लेकिन हे ! भव्य जीवों ,भोले लोगों मुझे वर्तमान की आवश्यकता तनिक भी नहीं है,मैं जिस शाश्वत पद पर स्थित हो गया हूँ ,वह एक तरफ़ा मार्ग है ,वहां जाया जा सकता है, वहां से आया नहीं जा सकता । और यदि ऐसा हो भी तो मैंने जिस अतीन्द्रिय सुख को इतने जन्मों के पुरुषार्थ से प्राप्त किया है ,क्या तुम चाहोगे कि मैं उसे छोड़कर पुनः संसार में आ जाऊं ? निश्चित ही तुम भी कहोगे नहीं ,क्यों कि तुम स्वयं को मेरा भक्त कहते हो ,मेरा हित तो तुम भी चाहते ही हो ।
लेकिन अब मेरे भीतर किसी भी प्रकार की कोई चाहत आदि नहीं है ,जब थी तब यही थी कि स्वयं को मेरा भक्त कहने वाले मेरे समान ही भगवान् बन जाएँ और यदि वास्तव में मेरी सच्ची भक्ति करना चाहते हो तो स्वयं को जानो ,पहचानो और उसी में रम जाओ ,मैं मान लूँगा तुम मेरे वास्तविक भक्त हो ।
- प्रो अनेकांत
कुमार जैन ,जैनदर्शन विभाग ,श्री लाल
बहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विश्वविद्यालय ,नई दिल्ली
-110016 , phone 9711397716, anekant76@gmail.com , website-
www.jinfoundation.com
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