अध्यक्ष : समाज का या सिर्फ मंदिर / कमेटी का ?
मैंने एक बार एक परिचित मित्रवत् पदाधिकारी आयोजक से हिम्मत करके पूछा कि अमुक धार्मिक कार्यक्रम का सार क्या निकला और संदेश क्या पहुंचा ? तो उन्होंने मुझे समझाया कि 15 लाख खर्च हुए और 55 लाख दान आये अतः 40 लाख की शुद्ध आय हुई और पूरी समाज भक्ति में डूबी खूब नाची गाई - यह तो सार निकला और इसी तरह धर्म प्रभावना सभी को करनी चाहिए - ये संदेश गया ।
मैंने कहा - यह तो आनुषांगिक लाभ हैं ,धार्मिक कार्यक्रम का मुख्य उद्देश्य और प्रयोजन क्या था ?
उद्देश्य और प्रयोजन भी यही होता है और क्या ? - उन्होंने भोले पन से जबाब दिया ।
मैंने थोड़ा हिम्मत करके कहा कि भाई साहब अमुक कार्यक्रम के बाद या वर्ष भर में कितने लोगों ने संयम ग्रहण किया ? कितने लोगों को तत्त्वज्ञान का लाभ हुआ ? कितने लोगों को तत्त्वज्ञान और धर्म में रुचि उत्पन्न हुई ? कितने नए लोग धर्म से जुड़े ? कितने बिछुड़े लोग धर्म मार्ग पर आए ? कितनों के शारीरिक,मानसिक आदि दुख दूर हुए ? कितनों के सांसारिक संकट आपके निमित्त से दूर हुए ? कितनों का इलाज हुआ ? कितनों की रक्षा हुई ? कितने परिवार आपके निमित्त से टूटने से बचे ? समाज में कितने लोग कॉलोनी,शहर या दुनिया से चले गए ? कितनों ने जन्म लिया ?या कितने समाज में नए बस गए ? समाज में कितने परिवार गरीब हैं ,कितनों के व्यापार रोजगार आदि ठप्प हैं ,कितने लोगों की बेटियां और बेटे अभी तक अविवाहित हैं ?आदि का भी कोई हिसाब या प्रामाणिक डेटा और समाधान आपके पास है कोई ?
मेरी बात सुनकर वे हतप्रभ से हो गए , बोले यार मैं मंदिर का अध्यक्ष हूँ ,समाज का नहीं ।
मैंने कहा - सही कहा । इसलिए खुद को समाज का अध्यक्ष कहना छोड़ दो । मंदिर का अध्यक्ष समाज का अध्यक्ष कहलाने का तभी अधिकारी है जब उसके पास इस तरह के सही डेटा,जानकारियां और इससे संबंधित समाधान परक योजनाएं भी हों ।
नहीं तो अपनी दुकान छोड़कर मंदिर में बैठना सिवाय एक दुकान छोड़कर दूसरी दुकान पर बैठने के अलावा कुछ भी नहीं है ।
प्रो अनेकांत कुमार जैन ,नई दिल्ली
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