श्रावकाचार के सन्दर्भ में हमारी सीमित सोच
जैन धर्म दर्शन की आचार मीमांसा बहुत मार्मिक है | इसके अंतर्गत गृहस्थ के लिए श्रावकाचार और मुनियों के लिए मूलाचार का विधान किया गया है |आधुनिक काल में श्रावकाचार के पालन को लेकर हमें विभिन्न समस्याएं देखने को मिलती हैं |ऐसा क्यूँ है ?
इस विषय पर बहुत विचार करने की आवश्यकता है | आज हमने श्रावकाचार का अधिकांश सम्बन्ध मात्र खान-पान से जोड़ रखा है। हम आचारशास्त्र का मतलब मात्र पाकशास्त्र समझते हैं जो कि हमारी एक भूल है। यही कारण है कि एक पाश्चात्य धर्मशास्त्री विद्वान् ने जैनधर्म के बारे में अपने विचार व्यक्त करते हुये लिखा है- 'Jainism is nothing but it's only a kitchen Religion.' मैंने स्वयं जब यह पंक्ति पढ़ी तभी से इस विषय पर सोचना प्रारम्भ किया।
विचार कीजिए! क्या हम इन पंक्तियों से सहमत है? उस पाश्चात्य विचारक की यह प्रतिक्रिया सही है या गलत? क्या उत्तर है हमारा? मैं उसके विचारों से सहमत नहीं हूँ, किन्तु उस विचारक ने अपने प्रायोगिक अनुभव से जो प्रतिक्रिया दी है वह गलत भी नहीं लगती है।
बन्धुओं! सच यह है कि खान-पान की सात्त्विकता श्रावकाचार का एक महत्त्वपूर्ण अंग है, संपूर्ण श्रावकाचार नहीं।
आचार्य समन्तभद्र कहते हैं - रागद्वेषनिवृत्तेर्हिंसादिनिवर्तना कृता भवति ।(र.क.२/२) अर्थात् रागद्वेष की निवृत्ति होने से हिंसादि पापों से निवृत्ति स्वयमेव हो जाती है।
इसके विपरीत यदि राग द्वेष से निवृत्ति की शुरुआत भी नहीं हुई है और बाह्य में अन्य व्रतादि का पालन यदि कठोरता से हो रहा है तो क्या इस प्रकार के श्रावकाचार को सफल मान सकते हैं ?नहीं ,लेकिन इस प्रक्रिया को कभी गंभीरता से नहीं लिया जाता ।समाज में बाह्य आचरण के प्रति ही सम्मान देखा जाता है |दूसरी तरफ बाह्य आचरण में भी मात्र खान-पान सम्बन्धी नियमों को ही ज्यादा तवज्जो दी जाती है,अन्य के प्रति वह बहुमान नहीं है जो होना चाहिए |
विचार कीजिए श्रावक के बारह व्रतों में कितने व्रत हैं जिनका सम्बन्ध खान-पान की सात्त्विकता और उसके त्याग से है? पांच व्रतों में मात्र अहिंसाव्रत और उसमें भी खान-पान उसका एक भाग है। चार शिक्षाव्रत और तीन अणुव्रतों में भी मात्र प्रोषोधोपवास या भोगोपभोगपरिमाणव्रत हैं जिनका सीधा सम्बन्ध खान-पान से है। श्रावक के षडावश्यकों में भी संयम और तप आवश्यक में खान-पान जुड़ता है शेष आवश्यक अन्य क्रियाओं से सम्बन्धित हैं ।
अत; मेरा पहला निवेदन यह है कि खान-पान की सात्त्विकता तथा उसके त्याग सम्बन्धी श्रावकाचार के साथ हम अन्य क्रियाओं को भी मुख्य धारा में रखें, तभी हम श्रावकाचार को विस्तृत फलक पर देख पायेंगे, अन्यथा हम श्रावकाचार को लेकर जितने समस्याग्रस्त आज हैं कल और अधिक होंगे।
हम श्रावकाचार को लेकर जैनधर्म को मात्र रसोई धर्म नहीं कह सकते।इन व्रतों में खान-पान सम्बन्धी समस्या पर हम बाद में वार्ता करेंगे किन्तु अन्य व्रतों की स्थिति हम जरा देख लें। अहिंसा व्रत के लिए हम रात्रि भोजन त्याग, छने जल का सेवन, जमीकंदादि अभक्ष्य पदार्थों का त्याग, रसों का क्रमश: त्याग आदि करते हैं, जिसमें घर का बना भोजन, कुंये के पानी, घर का पिसा आटा, मर्यादित दूध इत्यादि का पालन भी श्रावक करते हैं। इन सभी साधारण नियमों का पालन, वो भी आज के युग में विरले ही कर पाते हैं। नियम इससे भी अधिक माने जाते हैं, मैंने कुछ साधारण नियमों का ही उल्लेख किया है।
ये सब बहुत अच्छा है किन्तु समस्या तब ज्यादा होती है जब इनका पालन करने वाला श्रावक अंधाधुंध देशों-विदेशों की यात्रायें करने से बाज नहीं आता। हर जगह इतने सरंजाम जुटाना संभव नहीं। समाज में भी हर व्यक्ति इतनी व्यवस्थायें नहीं जुटा पाता है। फलत: श्रावक की यह उचित धर्मानुकूल चर्या आज के युग में अप्रासंगिक लगने लगती है। यहाँ हम अपनी गलती नहीं देखते। हम भूल जाते हैं कि शास्त्रों में दिग्व्रत-देशव्रत का भी विधान है,और इनका खान पान की मर्यादा के साथ संतुलन है ।
यथार्थ के धरातल पर देखें तो अधिकांश श्रावक दिग्व्रत-देशव्रत को कोई व्रत समझते ही नहीं हैं। मैं कहता हूँ एक स्थान पर रहने वाला श्रावक सारी व्यवस्थायें व्रतों के अनुकूल बनाकर चलता है। अत: पालन करने में दिक्कत नहीं होती। शास्त्रों में कुछ सोचकर ही यह व्यवस्था दी गयी, मगर हम एकांगी हो गये इसलिए समस्या खड़ी होती है। परिणाम यह है कि जो जितना बड़ा व्रती है वह उतना ही अधिक भ्रमणशील है और परदेशों में व्रतों के पालन हेतु समाज पर आश्रित है। गृहस्थों के व्रतपालन जब पराश्रित हो जाते हैं तो अनेक प्रकार की समस्यायें खड़ी कर देते हैं।
अतिथि संविभाग भी वही कर पायेगा जो व्रत पूर्वक अपने घर में रहेगा। सामायिक व्रत तो श्रावकों के जीवन से लगभग दूर होता ही जा रहा है। पांच व्रतों में स्थूल अहिंसा की थोड़ी बहुत चिन्ता बची है बाकी सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह को तो हमने व्रत मानना जैसे छोड़ ही दिया है। परिग्रह एक पाप है और हम उसे पुण्य का फल बतलाकर दिन रात उसी की चिन्ता में मग्न रहते हैं।
एक व्यक्ति शोध का भोजन करे, अष्टमी-चौदस उपवास करे फिर चाहे वह पंचेन्द्रिय के विषय भोगों में लगा रहे, असत्य भाषण छल-प्रपञ्च, मायाचार, क्रोधादि तथा परिग्रह के प्रति अत्यधिक आसक्ति का धारक भी हो तो भी हमारी दृष्टि में वह उत्कृष्ट श्रावक कहलाता है, क्योंकि हम श्रावकाचार का अर्थ मात्र आहार समझते हैं- मानते हैं।
रात्रि भोजन त्याग करने वालों की लीला भी अद्भुत है |अनुमानतः वर्तमान में रात्रि भोजन त्याग करने वाले श्रावक निम्नलिखित प्रकार के हैं –
1.रात्रि में चारों प्रकार के आहारों का त्याग करते हैं |घड़ी देखकर सूर्य अस्त से पूर्व ही आहार ग्रहण कर लेते हैं ,तथा अगले दिन सूर्योदय तक निर्जला उपवास रखते हैं |इस बीच दूसरों के लिए भी खाना न बनाते हैं न परोसते हैं |
2.रात्रि में चारों प्रकार के आहारों का त्याग करते हैं |घड़ी देखकर सूर्य अस्त से पूर्व ही आहार ग्रहण कर लेते हैं ,तथा अगले दिन सूर्योदय तक निर्जला उपवास रखते हैं |लेकिन इस बीच परिवार में दूसरों के लिए भी खाना बनाते भी हैं और परोसते भी हैं |इस ग्रुप में अधिकांश श्राविकाएं आती हैं जो घर गृहस्थी चला रहीं हैं और सामंजस्य की अद्भुत साधना कर रहीं हैं |
3.सूर्यास्त के बाद अन्न ग्रहण नहीं करते किन्तु दूध मेवा फल मिठाई आदि ले लेते हैं |फिर कभी शाम को भोजन न कर पाने की कमी की भी पूर्ती इन पदार्थों से रात्रि में पूरी करते हैं |
4.सूर्यास्त का ध्यान नहीं रखते बल्कि उजाले को देखते हैं ,जब तक अन्धकार नहीं हो जाता तब तक भोजन ले लेते हैं | बाद में मात्र अन्न ग्रहण नहीं करते किन्तु दूध मेवा फल मिठाई आदि ले लेते हैं |
5.रात्रि भोजन नहीं करते ,किन्तु त्याग भी नहीं है,कभी जरूरत पड़ी तो कर लेते हैं |
6.रात्रि भोजन घर पर नहीं करते,किन्तु बाहर की छूट है |
7.रात्रि भोजन बाहर का नहीं करते,किन्तु घर की छूट है |
8.रात्रि में भोजन करते हैं किन्तु अभ्यास के लिए समय सीमा बांध लेते हैं जैसे रात ९ के बाद कुछ नहीं खाऊंगा आदि |जरूरत के अनुसार सीमा घटाते बढाते रहते हैं |
9.नौकरीपेशा,मधुमेह आदि रोगों के कारण मजबूरी वश रात्रि में कभी भी भोजन करते हैं किन्तु जिनका त्याग है उनकी अनुमोदना,व्यवस्था,सेवा आदि करते हैं तथा स्वयं त्याग नहीं कर पाने पर व्यथित रहते हैं |
10.रात्रि में भोजन बनाने में ज्यादा दोष मानते हैं ,किन्तु दिन में बना हुआ भोजन रात्रि में करने में कोई दोष नहीं समझते |
11.रात्रि में कभी भी भोजन करते हैं,और कहते हैं आज यह जरूरी है,पहले लाइट आदि नहीं थीं अतः कीड़े मकोड़ों से बचने के लिए नियम पहले बने थे अब रात्रि में दिन से ज्यादा प्रकाश की व्यवस्था रहती है अतः अब रात्रि में भोजन करने में कोई दिक्कत नहीं है |ये जिनका त्याग है उन्हें पिछड़ा और दकियानूसी ,पाखंडी तक कह देते हैं |
पहले हम यह विचार करें कि इसमें हम किस श्रेणी में आते हैं |उपर्युक्त ग्यारह से भी अतिरिक्त प्रकार हो सकते हैं |वो आप बताएँगे |इन सभी स्थितियों से कई तरह की आचारगत समस्याएं सिर्फ इसलिए आती हैं क्यूँ कि हम शास्त्र की मूल भावना न समझकर ,इस व्रत को या तो रूढ़ी से ग्रहण करते हैं या फिर स्वच्छंदी होकर जैसा मन करे वैसा आचरण करने लगते हैं |इस पर कई तरह के प्रश्न भी उठते हैं –
1.रात्रि भोजन त्याग यदि नीरोगता का भी कारण है तो अधिकांश त्यागी श्रावक हार्ट अटैक,व़ी.पी.,शुगर आदि के मरीज क्यूँ हैं ?
समाधान - सिर्फ भारत को ही लें तो २०११ की जनगणना के अनुसार १३० करोड़ की आबादी में सिर्फ ४५ लाख जैन हैं ,और यदि सर्वे किया जाय तो पाएंगे कि अनुमानतः ४० लाख जैन रात्रि भोजन करते हैं ,और मुश्किल से पांच लाख जैन वे हैं जिनमें उपर्युक्त आरम्भ से १० प्रकार वाले सभी गर्भित हो जायेंगे |एक आध हज़ार ऐसे लोग भी ले सकते हैं जो जैन नहीं हैं किन्तु स्वास्थ्य आदि कारणों से रात्रि में नहीं खाते |प्रथम और द्वितीय प्रकार के भी कुल मिला कर १५-२० हज़ार से ज्यादा नहीं होंगे |इसलिए अधिकांश श्रावक हार्ट अटैक,व़ी.पी.,शुगर आदि के मरीज हैं |
2. ऐसा क्यों है ?
समाधान – ऐसा इसलिए है क्यूँ कि अधिकांश ऐसे श्रावक जो अपने अनुसार नियम पालते हैं वे त्याग तो करते हैं किन्तु साथ में आयुर्वेद और आहार विज्ञान को नहीं समझते | जैसे दोपहर का खाना तो दुनिया के अनुसार १ या २ बजे करते हैं,और शाम को ५-६ बजे तक नियम के कारण भूख न होने पर भी खाने बैठ जाते हैं |बिना भूख के खाना बीमारी का कारण होता है |अतः प्रातः १०-१२ के बीच भोजन अवश्य कर लेना चाहिए |
3.जो लोग सूर्यास्त के बाद भी दिन रहने तक भोजन करते हैं वे बीमार क्यूँ पड़ते हैं ?
समाधान – क्यूँ कि सूर्यास्त के बाद संधिकाल आता है और आहार विज्ञान में कहा जाता है कि संधिकाल में भोजन विष हो जाता है अतःसूर्यास्त से पूर्व भोजन का विधान है |
4.जो रात्रि में अन्न नहीं खाते किन्तु अन्य मेवा आदि लेते हैं वे बीमार क्यूँ पड़ते हैं ?
समाधान - अतिरेक के कारण,रात्रि में रोटी नहीं खायी बस ,उसके एवज में शुगर,कोलेस्ट्रोल और वसा युक्त काजू,किशमिश,बादाम,इनका हलुआ,मावा ,उसकी जलेबी,केले की चिप्स,मूंगफली आदि का बहुतायत सेवन शरीर ख़राब कर देता है |भोजन की आसक्ति को और अधिक बढ़ा देता है | चाय,काफी आदि उत्तेजक पेय भी नुक्सान करते हैं |
5.प्रवचनों में ऐसा कहा जाता है कि जो रात्रि में पानी भी पीता है वह खून पीने जैसा है ,जो रात्रि भोजन करता है वो जैन नहीं है आदि
समाधान – सही है ,ऐसे उल्लेख भी शास्त्रों में मिलते हैं | किन्तु ये सब प्रेरणा देने के लिए लिखा या कहा जाता है ,बाकी पानी पीने और खून पीने में कषायों की मंदता और तीव्रता का फर्क तो रहता ही है और उसी के अनुसार कम या ज्यादा दोष भी लगता है | जैन नहीं होने की बात भी प्रेरणा के लिए ही है ताकि लोग इन नियमों का पालन करें | यदि वास्तव में इस आधार पर गणना करने बैठेंगे तो पूरे देश में जैनों की संख्या लाखों से घटकर हजारों में रह जाएगी |
6.तब क्या करना चाहिए ?
समाधान – शास्त्र के नियम के अनुसार, आयुर्वेद और आहार विज्ञान चिकित्सा शास्त्र को ध्यान में रखते हुए इसका पालन करना चाहिए |रात्रि भोजन त्याग का सबसे बड़ा उद्देश्य अहिंसा तथा भोजन के प्रति आसक्ति ,गृद्धता कम करना है,कषाय मंद करना है ताकि श्रावक सामायिक ,ध्यान और स्वाध्याय में अपने चित्त को लगा सके |इसके अलावा अच्छा स्वास्थ्य इसका आनुषांगिक उद्देश्य है |हम इतना समझ लें यदि इन उद्देश्यों की पूर्ती हो पा रही है तो हम सही मार्ग पर हैं और यदि नहीं तो हम सिर्फ प्रतीकात्मक रूप से यह नियम पाल रहे हैं उसका वास्तविक लाभ नहीं ले पा रहे हैं |
हमारे सामने समस्या भी है और समाधान भी। बस हमें अपनी सोच और नजरिया बदलना है।
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*आचार्य – जैन दर्शन विभाग ,श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विश्वविद्यालय ,नई दिल्ली -११००१६
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