*न जाने तुम किस जहाँ में खो गए ,भरी महफ़िल में हम तन्हा हो गए* मेरी एक जिज्ञासा है । पिछले कुछ समय जैन विद्वतजगत के कई विद्वानों का वियोग हुआ । युवा भी वृद्ध भी । किन्तु कुछ के वियोग से इतना कोहराम मचा कि मानो सबकुछ लुट गया हो ..... और कुछ के जाने से समाज में कोई तूफान तो छोड़ो कोई खास प्रतिक्रिया या शोक संदेश भी दिखाई नहीं दिए । जो गया उसे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता ,लेकिन हम किस चीज को तवज्जो देते हैं और किसी चीज को महत्त्वपूर्ण होते हुए भी नहीं । यह हमारी आध्यात्मिक कृपणता का सूचक है । आदरणीय ब्र.रविन्द्र जी अमायन ,बड़े पंडित जी की समाधि प्रसंग हमारे लिए वैसे शोक और वैराग्य का निमित्त क्यों नहीं बन सका ? क्या इसलिए कि वे निस्पृही थे ? क्या इसलिए कि वे प्रशंसा ,प्रचार आदि से दूरी रखते थे और यही सलाह देते थे ? क्या इसलिए कि उन्होंने कभी अपने अभिनंदन आदि आदि प्रायोजित नहीं करवाये ? *आडंबराणि पूज्यन्ते* की सूक्ति को यथार्थ करता हमारा आचरण स्वयं हमारे भविष्य का निर्यापक है कि हम किस चीज को तवज्जो देते हैं । अंत में एक बात और ... उनके जन्म या पुण्य तिथि को कोई दिवस भी घोषित