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जो होना है सो निश्चित है

*जो होना है सो निश्चित है*
 
स्पष्ट है कि जैनागमों में तीनों कालों में और सभी क्षेत्रों में कहीं भी किसी भी रूप में सूर्यकीर्ति नाम के कोई तीर्थंकर नहीं हैं । 

अध्यात्मवेत्ता कांजी स्वामी जी ने स्वयं जीवन भर इस तरह के भ्रामक गृहीत मिथ्यात्व का निषेध किया था । उन्होंने भगवान् महावीर और आचार्य कुन्दकुन्द के अध्यात्म और तत्वज्ञान के मर्म को जन जन तक पहुंचाने का जो पुनीत कार्य किया ,उनकी अंध भक्ति में सोनगढ़ में उनके अनुयायी भावुकता में उन्हें  भावी तीर्थंकर सूर्यकीर्ति के रूप में जयकारा लगाकर उनके जीवन भर के कार्य और प्रभाव को क्षीण करने का कार्य कर रहे हैं और सोच रहे हैं कि यही प्रभावना है ।

ऐसा नहीं है कि यह प्रकरण पूर्व में नहीं उठा था । श्री कांजी स्वामी जी के देवलोकगमन के उपरांत भावुकता में ऐसा कार्य करने का प्रयास हुआ था किंतु दिग्गज विद्वानों के समर्थन के अभाव में यह कार्य नहीं हो सका था ।

उस समय पंडित कैलाशचंद जी,पंडित जगनमोहन लाल जी ,पंडित नाथूराम प्रेमी जी ,पंडित रतनचंद जी,डॉ हुकुमचंद भारिल्ल जी,पंडित नेमीचंद पाटनी जी ,पंडित अभिनंदन जी आदि अनेक शास्त्रीय विद्वानों ने इसका विरोध किया था और उनकी समीक्षाएं भी प्रकाशित हुईं थीं । 

टोडरमल स्मारक ,जयपुर ने तो इस अवर्णवाद के विरोध में 1985 में जैन पथ प्रदर्शक के एक विशेषांक के माध्यम से इसका सतर्क विरोध किया था ।

यद्यपि विश्वस्त सूत्रों से यह भी ज्ञात हुआ है कि वर्तमान में जहाँ पंचकल्याणक चल रहा है वहाँ सूर्यकीर्ति तीर्थंकर भगवान् की मूर्ति की प्रतिष्ठा नहीं हो रही है बल्कि भावी तीर्थंकर के रूप में एक मूर्ति प्रतिष्ठित हो रही है जिस पर कोई नाम अंकित नहीं है ।  किंतु  एक पक्ष इस आग्रह से उनकी मूर्ति किसी अन्य स्थान पर विराजमान करके रखा हुआ है ।

किन्तु मूल पांडाल में इस प्रकार का वितंडा फैलाना या इस प्रकार के जयकारे लगाना निश्चित रूप से भ्रम तो पैदा करता ही है तथा इस ओट में छिपे मूल अभिप्राय को भी प्रगट करता है ।

अब प्रश्न अतिशय भक्ति का है ,जिनवाणी के वस्तु स्वरूप के दीवाने समझे जाने वाले ,उसी जिनवाणी का अवर्णवाद कैसे कर सकते हैं ? 

अतिशय अंध भक्ति एक प्रकार का मनोवैज्ञानिक मनोरोग है जो भारतीय समाज में हमेशा से विद्यमान रहा है और मूल धर्म ने उसकी कीमत भी चुकाई है । यही भक्ति ओशो आदि को भी भगवान् कहती और मानती है । दक्षिण में कई फिल्मी नायकों के मंदिर और मूर्तियां भी हैं । 
यह
लगभग प्रत्येक सम्प्रदाय में होता आया है ।  
गुजरात की धरा इस मामले में कभी पीछे नहीं रही । जो उत्तर भारत में महज एक संत माने जाते थे ,गुजरात में वे ही भगवान् माने जाते हैं । गुजरात भगवान् बनाने वालों का देश है ।श्रीमदराजचंद्र, भगवान् स्वामीनारायण , अनेक प्रकार के बापू और भी न जाने क्या क्या । इतना ही नहीं राजनैतिक भगवान् भी वहीं जन्में - महात्मा गांधी आदि । महात्मा गांधी यदि सिर्फ राजनीति में नहीं होते तो उनके मंदिर भी बनते । बहुत पुराना एक दोहा प्रसिद्ध है -

*आतम ज्ञानी आगरे ,पंडित सांगानेर ।* 
*पक्षपात गुजरात में ,निंदा जैसलमेर ।।*

इस दोहे के मायने मैंने इस तरह डिकोड किये हैं - पंडित बनारसीदास जी आदि अध्यात्म की गंगा बहाने वाले आगरा के प्रसिद्ध हुए , जयपुर सांगानेर के पंडित टोडरमल जी ,पंडित सदासुख दास जी आदि अनेक पंडित प्रसिद्ध हुए । 
दोहे का तीसरा चरण है 'पक्षपात गुजरात में ' - इसका भाव मुझे श्रीमदराज चन्द्रजी एवं श्री कांजी स्वामी जी ,स्वामीनारायण आदि के भक्तों और उनकी भक्ति को देखकर अनुमानित होता है । तीसरे चरण को अभी तक डिकोड नहीं कर सका हूँ । चौथा चरण भी अभी समझना बाकी है ।

आप धर्म विरोधियों से लड़ सकते हैं किंतु धर्म के अंध अनुयायियों से नहीं - यद्यपि वास्तविक धर्म का नुकसान ये दोनों  ही करते हैं । 

अपनों को समझाना बहुत कठिन होता है । इसके साथ साथ आज के युग का एक यथार्थ यह भी है कि 'आडम्बराणि पूज्यन्ते' सर्वत्र आडंबर की ही पूजा होती है अतः आडंबर किसी भी धर्म को जनता में चलाने की एक अनिवार्य शर्त है ,अब चाहे वह जिस रूप में हो । 

शास्त्र के जानकार भले ही विरोध करते रहो,चिल्लाते रहो । अब लगभग सभी परंपराओं में यह हो गया है कि जिसे जो करना है सो करना है । उन्हें कोई भी रोक नहीं सकता । करने वाले यह जानते हैं कि अब धर्म का मानदंड धन है ।  इस कलिकाल में 'धन' ही 'धर्म' है । 
मेरे पास यदि अकूत धन है तो यदि चाहूँ तो मैं भी स्वयं को भगवान् घोषित करवा सकता हूँ । घोषित विद्वान् ,पत्रकार,मीडिया ,टैंट तंबू आदि विविध आडंबर,मंत्री नेता द्वारा महिमा मंडन और जनता आदि - सबकुछ धन से मैनेज हो जाता है । 

 पक्षपात का व्यामोह हमें कहीं का नहीं छोड़ता । *ये कुछ चीजें छोड़ दें तो बाक़ी तो अच्छा है*- यह दृष्टि हम पक्षपात के कारण विकसित करते हैं । क्यों कि यह दृष्टि हम अपर पक्ष के प्रति विकसित नहीं कर पाते हैं । 

पंडित टोडरमल जी का वाक्य - *मिथ्यात्व बैरी का अंश भी बुरा है*- हम कैसे भूल सकते हैं ?

लेकिन यह सब रोका भी नहीं जा सकता । महात्मा बुद्ध ने मूर्तिपूजा का निषेध किया था ,बाद में अनुयायियों ने उन्हीं की मूर्ति बनाकर पूजा शुरू कर दी ।आज विश्व में सबसे ज्यादा बुद्ध की मूर्तियां हैं ।

सही मार्गदर्शन करने वाले को हम कब तक अपना बैरी या विरोधी मानते रहेंगे ? यदि आलोचना को हम निंदा समझकर उपेक्षित करेंगे तो उसका अर्थ यह हुआ कि हमने संशोधन के  सारे रास्ते स्वयं ही बंद कर दिए हैं । 
जनता और विद्वानों के सामने हमने दो ही रास्ते छोड़े हैं 
या तो अंधभक्ति करो या विरोधियों की श्रेणी में रहो ।

सिंहनाद करने वाला कोई है नहीं कि दहाड़ से सब कांप जाएं और मिमियाने वाले यह सोचते हैं कि विरोध में मिमियाने से तो कोई फर्क पड़ेगा नहीं अतः अपनी घांस फूंस तो चलती रहे ,इसलिए पक्ष में मिमियाते रहो ।

असली 
सिंहनाद करने वाले तो आचार्य समन्तभद्र थे । विचार कीजिये कि
आचार्य समन्तभद्र ने  आडंबर की अनुपयोगिता जिस प्रकार प्रगट की है ,क्या वे जिनेन्द्र विरोधी थे ? - 

जिन्होंने तीर्थंकर-भगवान् की भी परीक्षा करते हुये कहा कि -

“देवागम-नभोयान,
चामरादि-विभूतयः।
मायाविष्वपि दृश्यन्ते,
नातस्त्वमसि नो महान्।।”
— (आप्तमीमांसा,1)

अर्थात् “हे जिनेन्द्र देव! मैं आपको इसलिये महान् नहीं मानता हूँ कि आप के पास सौ-सौ इन्द्र आते हैं, आप गगनविहारी हो, आपके ऊपर तीन छत्र रहते हैं, और आपको चौंसठ चँवर डुलाये जाते हैं– इत्यादि विभूतियों के कारण आपको मैं तो क्या कोई भी सच्चा जैन, आपको ‘महान्’ नहीं मानता है। क्योंकि ये विभूतियाँ तो मायावियों के पास भी देखी जा सकतीं हैं।”

अंत में इन सभी विकल्पजालों से मन को शांत करने के लिए एक ही सूत्र भाता है - 

*जो होना है सो निश्चित है*
या जो है सो है । 

- डॉ अनेकांत जैन

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