माध्यस्थभाव के प्रेरक तीर्थंकर पार्श्वनाथ
जैन धर्म के अंतिम और चौबीसवें तीर्थंकर भगवान् महावीर से लगभग ३०० वर्ष पूर्व अर्थात् आज से लगभग तीन हज़ार वर्ष पूर्व तेइसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ का जन्म बाईसवें तीर्थकर भगवान नेमिनाथ के तिरासी हजार सात सौ पचास वर्ष बाद काशी (बनारस) के राजा काश्यप गोत्रीय अश्वसेन तथा रानी वामादेवी के घर पौषकृष्ण एकादशी के दिन अनिल योग में हुआ था। राजघराने में सुलभ संसार की सभी भोग संपदाएं विरक्त पार्श्वनाथ को आसक्त नहीं बना सकीं। तीस वर्ष की युवावस्था में वे प्रव्रजित (वैरागी) हो गए ।
ऐसा अर्धमागधी प्राकृत साहित्य में उल्लेख है कि उन्होंने चातुर्याम धर्म पर विशेष बल दिया था । अहिंसा ,सत्य ,अस्तेय और अपरिग्रह की उन्होंने बहुत सूक्ष्म व्याख्या की । स्थूल हिंसा को तो सभी धर्म हिंसा मानते ही हैं; किन्तु भगवान् पार्श्वनाथ ने अन्य धर्मों की 'अहिंसा' में भी 'हिंसा' समझा दी ,और उन्हें महापाप से बचा लिया । तापस जो पंचाग्नि यज्ञ कर रहा था ,उसे यज्ञ की लकड़ी में नाग- नागिन के जोड़े की बात बता कर जीव हिंसा के महापाप से बचाने का कार्य उनके इसी उपदेश का परिचायक है । उन्होंने बताया कि 'द्वेष' का कारण ‘राग’ ही है, इसलिए 'राग' हिंसा की पहली सीढ़ी है। इसीलिए आपने देखा होगा कि जैन अपने भगवान् को 'वीतरागी' कहते हैं, न कि 'वीतद्वेषी' । रागभाव में धर्म मानना भगवान् पार्श्वनाथ के अनुसार मिथ्यात्व है। वे कहते थे आत्मा में राग-द्वेषादि की उत्पत्ति नहीं होना ही अहिंसा है और उनकी उत्पत्ति ही हिंसा है ऐसा जिनागम का सार है। कहने का तात्पर्य यह है कि रागी मनुष्य कभी पूर्ण अहिंसक बन ही नहीं सकता उसके लिए वीतरागी बनना आवश्यक है।किसी भी जीव को दुःख पहुँचाने, उसे सताने तथा उसका प्राण हरण कर लेने की बात मन में सोचनी तक नहीं चाहिए। मन में विचार मात्र लाने पर सर्वप्रथम हमारी आत्मा कलुषित होती है और यह सबसे बड़ी हिंसा है। हम भाव हिंसा से बचकर ही द्रव्य हिंसा से स्वतः बच सकते हैं। अतः हमें न हिंसा करनी चाहिए, न किसी और से करवानी चाहिए और न ही हिंसा का समर्थन करना चाहिए।उनके उपदेश का सार है -
सत्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् ।
माध्यस्थभावं विपरीतवृत्तौ,सदा ममात्मा विद्घातु देव ।।
हे प्रभु! मेरे हृदय में प्राणीमात्र के प्रति मैत्रीभाव, गुणीजनों के प्रति समादरभाव, दुःखियों के प्रति करुणाभाव और विरोधियों के प्रति मध्यस्थ भाव बना रहे ।
उन्होंने कहा कि अहिंसा के लिए सत्य का पालन भी करना चाहिए। गृहस्थ ऐसे झूठ का सर्वथा त्याग करता है जिसके कारण प्रतिष्ठा चली जाये, वह अप्रामाणिक बन जाये, वह राजदण्ड का भागी बन जाये या फिर जनता का अहित हो। झूठे बयान, नकली हस्ताक्षर, द्विअर्थी संवाद, चुगली, झूठा आरोप तथा दूसरों की निन्दा इत्यादि करना- ये सब झूठ के अन्तर्गत ही आता है। गृहस्थ अपनी अहिंसा भावना की रक्षा के लिए जहाँ तक बन सके वहाँ तक हित-मित और प्रिय वचनों का ही प्रयोग करे, यही प्रारंभिक सत्यव्रत है।
अस्तेय को समझाते हुए उन्होंने कहा कि जिस वस्तु पर हमारा अधिकार नहीं है उस परायी वस्तु को किसी से बिना पूछे ग्रहण कर लेना चोरी है। जब किसी की कोई चीज चोरी हो जाती है तब उसे बहुत मानसिक पीड़ा होती है। इससे अहिंसा भावना की रक्षा नहीं हो सकती। अतः चोरी का त्याग करना ही चाहिए।
उन्होंने आसक्ति या मूर्छा को परिग्रह बताया । मनुष्य अधिक से अधिक वस्तुएँ एकत्रित करना चाहता है। उसकी कोई सीमा नहीं है। जरूरत से अधिक वस्तुओं को एकत्रित करना तथा उसमें आसक्ति रखना परिग्रह है। यदि गहरायी से देखा जाये तो शेष सभी पापों की जड़ भी यही है। अधिक धन-सम्पत्ति एकत्रित करने के लिए हिंसा, झूठ, चोरी तथा कुशील का सहारा लेना पड़ता है। सीमित संसाधनों में रहने से अपनी आवश्यकता की पूर्ति तो हो ही जाती है दूसरों का अधिकार भी नहीं छिनता। समाज में समानता का वातावरण बना रहता है जिससे अपराध नहीं बढ़ते। अतः धन-धान्यादि वस्तुओं की सीमा निश्चित करना तथा उनमें भी कम आसक्ति रखना यही गृहस्थ का कर्त्तव्य है। विवाह और जीवन साथी में आसक्ति को वे परिग्रह मानते थे अतः ब्रह्मचर्य धर्म का अंतर्भाव भी अपरिग्रह व्रत में वे कर देते थे ।
तीर्थकर पार्श्वनाथ का जीवन में कष्टों में भी समता भाव धारण करने का एक महान उदाहरण है ।उनके उपदेशों का सार इस गाथा और श्लोक में गर्भित है –
जह ते न पियं दुक्खं, जाणिय एमेव सव्वजीवाणं ।
सव्वायरमुवउत्तो अत्तोवम्मेण कुणसु दयं । ।
अर्थात् जैसे तुम्हें दुःख प्रिय नहीं है वैसे ही सब जीवों को दुःख प्रिय नहीं है –ऐसा जानकर पूर्ण आदर और सावधानी पूर्वक आत्मौपम्य की दृष्टि से सब पर दया करो ।
प्रो. अनेकांत कुमार जैन
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