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क्या मन्त्र साधना आगम सम्मत है ?

 


क्या मन्त्र साधना आगम सम्मत है ?

✍️प्रो.डॉ अनेकान्त कुमार जैन,नई दिल्ली#

drakjain2016@gmail.com

बहुत धैर्य पूर्वक भी पढ़ा जाय तो कुल 15 मिनट लगते हैं108 बार भावपूर्वक णमोकार मंत्र का जाप करने में ,किन्तु हम वो हैं जो घंटों न्यूज चैनल देखते रहेंगें,वीडियो गेम खेलते रहेंगे,सोशल मीडिया पर बसे रहेंगे ,व्यर्थ की गप्प शप करते रहेंगे लेकिन प्रेरणा देने पर भी यह अवश्य कहेंगे कि 108 बार हमसे नहीं होता ,आप कहते हैं तो 9 बार पढ़े लेते हैं बस और वह 9 बार भी मंदिर बन्द होने से घर पर कितनी ही बार जागते सोते भी नहीं पढ़ते हैं ,जब कि आचार्य शुभचंद्र तो यहाँ तक कहते हैं कि इसका पाठ बिना गिने अनगिनत बार करना चाहिए |

हमारे पास सामायिक का समय नहीं है । लॉक डाउन में दिन रात घर पर ही रहे  फिर भी समय नहीं है । हम वो हैं जिनके पास पाप बांधने के लिए 24 घंटे समय है किंतु पाप धोने और शुभकार्य  के लिए 15 मिनट भी नहीं हैं और हम कामना करते हैं कि सब दुख संकट सरकार दूर करे-ये उसकी जिम्मेदारी है ।

कितने ही स्थानों पर णमोकार का 108 बार जाप के साथ सामायिक का समय उनके पास भी नहीं है जो सुबह शाम शास्त्र स्वाध्याय करते हैं ,पूजन प्रक्षाल करते हैं । वे यह सोच कर मन को बहला लेते हैं कि  इतना समय तो हम तत्वविवेचन और चिंतन में , अन्य धार्मिक क्रियाओं में लगा ही रहे हैं अब 108 बार णमोकार मंत्र से क्या होगा ? वे यह विचार करते और कहते भी देखे जाते हैं कि *मणि तंत्र मंत्र बहु होई मरते न बचावे कोई*(छहढाला ५/२ ) अतः तंत्र मंत्र के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए । यह विचार हमारे प्रमाद को और अधिक पुष्ट कर देता है । तथा वास्तविक जैन दर्शन कुछ और है’- ऐसा कह-कहकर हम इस तरह की प्रवृत्ति की उपेक्षा भी बहुत आसानी से कर देते हैं बिना यह विचार किये कि अनेकान्त का नाम जैनदर्शन है न कि एकांत का नाम ।यदि छह ढाला के इस उद्धरण का अर्थ देखें तो यहाँ यह कह रहे हैं कि यदि अंत समय आ ही गया है तो मरते कोई भी नहीं बचा पाता है ,वे चाहे मणि हों,तंत्र हों या मन्त्र हों या अन्य कोई भी उपाय हो |किन्तु अंत समय में मन्त्र नहीं पढ़ना चाहिए – ये अर्थ तो नहीं निकल रहा है |

वास्तव में यदि देखा जाय तो जैन परंपरा में मन्त्रों और उनकी शक्तियों का विवेचन भी प्राचीन काल से ही होता आया है । हाँ ,यह अवश्य है कि मन्त्रों के दुरूपयोग होने के कारण,उनके लौकिक प्रयोजन की अनावश्यक वृद्धि के भय से कालांतर में वह आत्मकल्याण में कथंचित बाधक होने से उसके प्रयोगों को हतोत्साहित किया गया ।

आचार्य कुन्दकुन्द ने रयणसार में लौकिक प्रयोजन से जो तंत्र मन्त्र की साधना और प्रयोग करते हैं उन्हें दान देने का निषेध किया है –

                    जंतं मंतं तंतं परिचरियं पक्खाय पियवयणं।

                             पडुच्चपंचमयाले भरहे दाणं ण किं पि मोक्खस्स । । (रयणसार /गाथा २८)

भावार्थ यह है कि इस भरत क्षेत्र में ,पंचम काल में लौकिक सेवा के उद्देश्य से पक्षपात पूर्ण खुशामद के उद्देश्य से यंत्र,मंत्र और तंत्र के निमित्त जो दान दिया जाता है वह मोक्ष का कारण बिलकुल भी नहीं बनता है |

                                  जोइसविज्जामंत्तोपजीणं वा य वस्सववहारं ।

                                  धणधण्णपडिग्गहणं समणाणं दूसणं होइ ।।(रयणसार/१०९)

अर्थात् जो मुनि ज्योतिष शास्त्र से वा किसी अन्य विद्या से वा मंत्र-तंत्रों से अपनी उपजीविका करता है, जो बनियों के जैसा व्यवहार करता है और धनधान्य आदि सबका ग्रहण करता है वह मुनि समस्त मुनियों को दूषित करने वाला है।

भारत में एक समय ऐसा भी आया था जब जैन परंपरा में भी मन्त्र विद्या का प्रयोग आत्मानुभूति की वीतराग साधना के स्थान पर लौकिक प्रयोजनों की सिद्धि हेतु बढ़ने लगा था ,अतः इस प्रवृत्ति पर अंकुश लगाना अनिवार्य हो गया था | जिसका परिणाम यह हुआ कि जैन परंपरा में मन्त्र विद्या का ह्रास होता चला गया । दुरूपयोग का भय इतना बढ़ गया कि उस फेर में सही साधना के अभाव में सदुपयोग भी बाधित होने लगा । मन्त्र एक शक्ति है ,उसका उपयोग भी किया जा सकता है और दुरूपयोग भी | जैसे चाकू सब्जी बनाने के काम भी आती है और किसी की हत्या भी उससे की जा सकती है | यह उपयोगकर्ता के भाव पर निर्भर करता है | अब अनिष्ट प्रयोग के भय से चाकू का रसोई में उपयोग तो नहीं रोका जा सकता है न |

मन्त्र का महामंत्रत्त्व

यह मन्त्र महामंत्र क्यों कहा जाता है ? इसके कई कारण हैं ,उनमें से हम कुछ महत्त्वपूर्ण कारणों को यहाँ बताना चाहेंगे –

१.    यह अनादि और अनिधन मन्त्र है |

२.    यह निष्काम मन्त्र है | इसमें किसी चीज की कामना नहीं है |

३.    अन्य सभी मन्त्रों का यह जनक मन्त्र है |

४.    इस मन्त्र में व्यक्ति पूजा नहीं है |अर्थात् गुणों और उसके आधार पर उस पद पर आसीन शुद्धात्माओं को नमन किया गया है |

५.    यह सांप्रदायिक नहीं है अपितु परम आध्यात्मिक है |  

मन्त्र के प्रभाव का आगम प्रमाण

हमारे सामने ऐसे अनेक प्राचीन प्रमाण हैं जिनसे यह सिद्ध होता है कि पौदगलिक मन्त्र अपनी वर्ण संयोजना,अक्षर विन्यास,मात्राओं तथा ध्वनियों के वैज्ञानिक संयोजन का ऐसा फार्मूला होता था जिसकी शक्ति के प्रभाव से वह मनुष्यों के रोग आदि बाधाओं को भी दूर कर देता था । धवला में लिखा है कि योनिप्राभृत में कहे गए मंत्र-तंत्ररूप शक्तियों का नाम पुद्गलानुभाग है-

जोणिपाहुडे भणिदमंत-तंतसत्तीयो पोग्गलाणुभागो त्ति घेत्तव्वो।- (धवला 13/5,5,82/349/8)

 ईसा की पहली शती में आचार्य धरसेन ने श्रुत आगम का अवशिष्ट ज्ञान सुरक्षित रखने हेतु पुष्पदंत-भूतबली इन दो मुनिराजों की परीक्षा मन्त्र सिद्धि के आधार पर ही की थी ।  उन्हें भी देवियाँ सिद्ध हुईं थीं,उनकी अशुद्ध मन्त्र संशोधन की स्वविवेक बुद्धि ही उनकी श्रुत रक्षक की योग्यता का आधार बनी थी ।  ईसा की दूसरी शती के बाद आचार्य समन्तभद्र ने रत्नकरंड श्रावकाचार में सम्यक्त्व के आठ अंगों की अनिवार्यता के प्रसंग में मन्त्र का उदाहरण देते हुए कहा -    

न हि मन्त्रोऽक्षरन्यूनो निहन्ति विषवेदनाम् ॥ (श्लोक २१)

जिस प्रकार किसी मनुष्य को सर्प ने काट लिया और विष की वेदना सारे शरीर में व्याप्त हो गई तो उस विष वेदना को दूर करने के लिए अर्थात् विष उतारने के लिए मान्त्रिक मन्त्र का प्रयोग करता है। यदि उस मन्त्र में एक अक्षर भी कम हो जाय तो जिस प्रकार उस मन्त्र से विष की वेदना शमित-दूर नहीं हो सकती, उसी प्रकार संसार-परिपाटी का उच्छेद करने के लिए आठ अंगों से परिपूर्ण सम्यग्दर्शन ही समर्थ है, एक दो आदि अंगों से रहित विकलांग सम्यग्दर्शन नहीं-

सर्पादिदष्टस्य प्रसृतसर्वाङ्गविषवेदनस्य तदपहरणार्थं प्रयुक्तो मन्त्रोऽक्षरेणापि न्यूनो हीनो न हीनैव निहन्तिस्फोटयति विषवेदनाम्। तत: सम्यग्दर्शनस्य संसारोच्छेदसाधनेऽष्टाङ्गोपेतत्वं युक्तमेव.....(आचार्य प्रभाचंद्र की टीका )

गोम्मटसार जीवकांड की जीवतत्त्व प्रदीपिका टीका में स्पष्ट लिखा है कि विद्या, मणि, मंत्र, औषध आदि की अचिंत्य शक्ति का माहात्म्य प्रत्यक्ष देखने में आता है। स्वभाव तर्क का विषय नहीं, ऐसा वादियों को सम्मत है-

अचिंत्यं हि तपोविद्यामणिमंत्रौषधिशक्त्यतिशयमाहात्म्यं दृष्टस्वभावत्वात्। स्वभावोऽतर्कगोचर इति समस्तवादिसंयत्वात्।–(गो.जी.184/419/18)

भगवती आराधना की विजयोदया टीका(306/520/17) में अनेक परिस्थितियों में मंत्र प्रयोग की आज्ञा देते हुए कहते हैं कि जिन मुनियों को चोर से उपद्रव हुआ हो, दुष्ट पशुओं से पीड़ा हुई हो, दुष्ट राजा से कष्ट पहुँचा हो, नदी के द्वारा रुक गये हों, भारी रोग से पीड़ित हो गये हों, तो उनका उपद्रव विद्यादिकों(मंत्रादिकों) से नष्ट करना उनकी वैयावृत्ति है-

स्तेनैरुपद्रूयमाणानां तथा श्वापदै:, दुष्टैर्वा भूमिपालै:, नदीरोधकै: मार्या च तदुपद्रवनिरास: विद्यादिभि... वैयावृत्त्यमुक्तम्।

पंडित टोडरमल जी भी मोक्षमार्गप्रकाशक(छठवां अधिकार ,पृष्ठ १७१ ) में मानते हैं कि-

                                    ‘मंत्रादि की अचिन्त्य शक्ति है’

अतः यह निश्चित हो जाता है कि मन्त्र का प्रभाव बहुत होता है उसका सात्विक उपयोग करना जिनागम के विपरीत नहीं है ।

मन्त्रों के प्रभाव का वैज्ञानिक प्रमाण

साइंस कांग्रेस में टॉप करने वाली एक १४ वर्षीय लड़की अन्वेषा रॉय चौधरी ने कोलकाता के वैज्ञानिकों को ॐ के उच्चारण के प्रभाव को सिद्ध करके आश्चर्य में दाल दिया | उसने प्रमाणित किया कि ॐ की ध्वनि थकान को मिटाने में कारगर है | उसने सिद्ध किया कि ॐ के लगातार उच्चारण से ऱक्त में ऑक्सीजन का स्तर बढ़ता है, कार्बनडायऑक्साइड और लैक्टिक एसिड का स्तर घटता है, जिससे थकान का स्तर भी कम होता है और आप ऊर्जा महसूस करते हैं | एक निश्‍चित फ्रीक्वेंसी में ध्वनि का जब उच्चारण होता है, तो उसका प्रभाव हमारे न्यूरोट्रांस्मीटर्स और डोपामाइन जैसे हार्मोंस पर पड़ता है. यह लैक्टिक एसिड के स्तर में भी कमी लाता है, जिससे व्यक्ति को थकान कम महसूस होती है | कोलकाता यूनीवर्सिटी के फिज़ियोलॉजी डिपॉर्टमेंट के हेड देवाशीष बंदोपाध्याय ने कहा कि अन्वेषा की खोज और उसका प्रोजेक्ट काफ़ी रचनात्मक, बिना किसी दोष के है और उसका आधार भी बेहद ठोस है |(सोर्स-इन्टरनेट)

प्रणवमंत्र में अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधु ये पांचों परमेष्ठी समाविष्ट हैं। ऐसे के जाप्य से, ध्यान से व पूजा से सर्व मनोरथ सफल हो जाते हैं। जैन परंपरा में ओम् का अर्थ है

अरिहंता असरीरा, आइरिया तह उवज्झाय मुणिणो।

                 पढमक्खरणिप्पण्णो, ओंकारो पंचपरमिट्ठी ।    (दव्वसंगहो/४९)

अरिहंत का प्रथम अक्षर , अशरीर (सिद्ध) का ’, आचार्य का ’, उपाध्याय का ’, और मुनि (साधु) का म्इस प्रकार पंचपरमेष्ठियों के प्रथम अक्षर (अ + अ + आ + उ + म्) को लेकर कातन्त्र व्याकरण के सूत्र समान: सवर्णे दीर्घी भवति परश्च लोपंऔर उवर्णे ओसूत्र से संधि करने पर ओम्मंत्र सिद्ध होता है। पुन: विरामे वासूत्र से म् का अनुस्वार होकर शब्द बनता है।

इसी प्रकार णमोकार महामंत्र का प्रयोग मैंने स्वयं किया |विधिपूर्वक २७ श्वास उच्छवास पूर्वक मात्र ९ बार भाव पूर्ण णमोकार के पाठ से मैंने अपना ऑक्सीजन लेबल कई बार अच्छा किया | ओक्सिमीटर से उसकी जाँच की तो आश्चर्य जनक परिणाम सामने आये | इस महामारी के दौरान अप्रैल २०२१ में जब पूरे देश में मरीजों में ऑक्सीजन की कमी के चलते मौतें हो रहीं थीं तब यह प्रयोग मैंने कई लोगों को बताया और उन्हें इससे प्रत्यक्ष लाभ हुआ |यह प्रत्यक्ष सिद्ध तथ्य है |वर्तमान में मात्र वैज्ञानिक चिंतन करने वाले लोग बिना प्रत्यक्ष प्रमाण के कोई बात नहीं स्वीकार कर पाते हैं इसलिए वे कभी कभी घाटे में भी रहते हैं | 

मन्त्र जप की प्रेरणा और विधि  

जैन आचार्यों ने पग –पग पर मन्त्र जप की प्रेरणा दी है उसकी विधियाँ भी समझाई हैं । आचार्य योगिंदु कहते हैं कि यदि तुम्हें वास्तव में मोक्ष की इच्छा है तो सम्पूर्ण मन्त्रों के सारभूत ,अत्यंत मनोहारी ,सुन्दर प्रकाश की राशि ,जगत के सभी आराध्यों से भी आराधित होने योग्य अर्हन्त-अक्षर का संयम में स्थित होकर जप करो –

‘र्हं’ मंत्रसारमतिभास्वरधामपुंजम् , संपूज्य पूजितसमं जपसंयमस्थः ।  (कारिका-३३)

इसी प्रकार णमोकार महामंत्र की  एक सर्वमान्य विधि पंडित आशाधर जी ने बताई है

जिनेंद्रमुद्रया गाथां ध्यायेत् प्रीतिविकस्वरे।

हृतपंकजे प्रवेश्यांतर्निरुध्य मनसानिलम्।।

पृथग् द्विद्वयेकगाथांशचिंतांते रेचयेच्छनै:।

                                 नवकृत्व: प्रथौक्तैवं दहत्यंह: सुधीर्महत्।।    (अनगारधर्मामृत/९/२२-२३)

            प्राणवायु को भीतर प्रविष्ट करके आनंद से विकसित हृदयकमल में रोककर जिनेंद्र मुद्रा द्वारा णमोकार मंत्र की गाथा का ध्यान करना चाहिए। तथा गाथा के दो दो और एक अंश का क्रम से पृथक्-पृथक् चिंतवन करके अंत में उस प्राणवायु  का धीरे-धीरे रेचन करना चाहिए। इस प्रकार नौ बार प्राणायाम का प्रयोग करने वाला संयमी महान् पापकर्मों को भी क्षय कर देता है। पहले भाग में (श्वास में) णमो अरहंताणं णमो सिद्धाणं इन दो पदों का, दूसरे भाग में णमो आइरियाणं णमो उवज्झायाणं इन दो पदों का तथा तीसरे भाग में णमो लोए सव्वसाहूणं इस  पद का ध्यान करना चाहिए।  

णमोकार मन्त्र का महत्त्व  

शास्त्रों में इस जिस महामंत्र की महिमा हजारों प्रकार से गाई गयी है हम उसकी उपेक्षा कैसे कर सकते हैं ? उमास्वामि विरचित णमोकार महात्म्य में लिखा है यह मन्त्र सारे भय दूर कर देता है -

संग्रामसागरकरीन्द्रभुजंगसिंह-दुव्र्याधिवन्हिरिपुबंधनसंभवानि।

               चौरग्रहभ्रमनिशाचरशाकिनीनां, नश्यन्ति पंचपरमेष्ठिपदैर्भयानि।। (श्लोक )

णमोकार मंत्र जपने से युद्ध, समुद्र, गजराज (हाथी) सर्प, सिंह, भयानक रोग, अग्नि, शत्रु, बंधन (जेल आदि) के तथा चोर, दुष्टग्रह, राक्षस चुड़ैल आदि का भय दूर हो जाता है।यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि भय दूर करने की बात है जो श्रावक के मन में मनोवैज्ञानिक रूप से अप्रतिम प्रभाव डालता है ।  

इसीलिए वे पग पग पर इस मन्त्र पाठ की प्रेरणा देते हुए कहते है -

दु:खे सुखे भयस्थाने, पथि दुर्गे रणेपि वा।

               श्रीपंचगुरुमन्त्रस्य, पाठ: कार्य: पदे पदे।। (श्लोक १२)

 मनुष्य को दुख में, सुख में, भयभीत स्थान में, मार्ग में, वन में,युद्ध में पग-पग पर पंचनमस्कार मंत्र का पाठ करना चाहिए। एक प्राकृत के णमोकार महात्म्य ग्रन्थ में लिखा है (पंडित हीरालाल ,अनेकांत त्रैमासिक ,जन.-मार्च १२ )-

जिणसाणस्स सारो चउदस- पुव्वाइ जो समुद्धारो ।

                                      जस्स मणे णवयारो संसारो तस्स किं कुणइ ।।(गाथा-२५)

जिन-शासन के  सार और चौदह पूर्व-महार्णव का समुद्धार रूप णमोकार जिसके मन में बसा  है ,संसार उसका क्या बिगाड़ लेगा ?

निकृष्ट जीवों तक को दुर्गति से बचाने वाला है महामंत्र -

हम प्रथमानुयोग के उन हज़ारों दृष्टांतों को एक सिरे से झुठला नहीं सकते जिसमें दूसरे के मुख से भी अंत समय में णमोकार मंत्र मात्र सुन लेने से निकृष्ट से निकृष्ट जीव भी दुर्गति से बच गया -                                  

                                *मरणक्षणलब्धेन येन श्वा देवताsजनि ।

                                       पञ्चमंत्रपदं जप्यमिदं केन न धीमता ।।* (क्षत्रचूड़ामणि ४/१०)

अर्थात् मरणोन्मुख कुत्ते को भी जीवंधर स्वामी ने करुणावश णमोकार मंत्र सुनाया,इस मंत्र के प्रभाव से वह पापाचारी श्वान देवता के रूप में उत्पन्न हुआ । 

जीवंधर स्वामी क्या यह नहीं जानते थे कि मणि-मंत्र-तंत्र बहु होई, मरते न बचावे कोई”? निश्चित जानते थे और मानते भी थे । उन्हें इस बात पर तनिक भी अश्रद्धान नहीं था कि 'आयुक्खयेण मरणं' (वारसाणुवेक्खा,२८ )आयु कर्म के क्षय से ही मरण होता है । यदि किसी की आयु आ ही गई है तो उसे बचा कोई भी नहीं सकता । फिर भी सुनाया । क्यों मुझे नहीं लगता श्वान णमोकार का भाव भी समझता होगा |मात्र शब्द ही उसके कान में गए थे |ऐसे अनेक उदाहरण आपको शास्त्रों में मिल जायेंगे जिसमें ऐसे जीव भी दुर्गति से बच गए जिन्हें इसका भावभासन भी नहीं था | अब इससे हम क्या प्रेरणा लें ? हम श्वान और अंजन चोर जैसे तो नहीं हैं | उनसे तो उत्कृष्ट ही हैं ,फिर हमारे कान में पड़ जाये तो हम भी दुर्गति से बच जायेंगे ? यहाँ उत्कृष्ट और निकृष्ट की परिभाषा तो मैं नहीं करना चाहता किन्तु इतना अवश्य जानता और मानता हूँ कि यहाँ आचार्य यह अवश्य सिखाना चाह रहे हैं कि ‘जब ऐसों का कल्याण हो सकता है तो तुम्हें तो मनुष्य भव ,जैन कुल,जिनवाणी का समागम महापुण्य उदय से प्राप्त हुआ है ,तुम्हें सिर्फ सुनना नहीं हैं ,उसका भाव भी समझना है ,पञ्च परमेष्ठी का स्वरुप भी समझना है ,उनका ध्यान भी करना है ,उनका जप भी करना है ,उनके उपदेशों को समझना उसका पालन भी करना है | सिर्फ दुर्गति से बचना ही तुम्हारा एक मात्र उद्देश्य नहीं है बल्कि तुम्हें अपनी शुद्धात्मदशा भी प्राप्त करनी है,इस भव भ्रमण का अभाव भी करना है – समझे’ |  

णमोकार मन्त्र और हमारी असावधानियाँ

णमोकार मन्त्र सबसे अधिक लोकप्रिय तथा सभी के कंठों का हार है |यही मन्त्र है जो उन्हें भी याद है जिन्हें धर्म कार्य में तनिक भी रूचि नहीं है |इस मन्त्र ने अनेक तरह के लोगों को कैसे भी करके धर्म से जोड़कर रखा है |कभी कभी ऐसा भी होता है कि जो वस्तु हमें जन्म से ही सहजता से उपलब्ध है उसकी कीमत हमारे मन में उतनी नहीं रहती जितनी रहनी चाहिए |हम भी अक्सर सस्ती प्रभावना के अतिरेक में कैलेण्डर ,पेन,लोकेट आदि अनेक स्थानों पर इसे छाप देते हैं | इस मन्त्र का इतना साधारणीकरण हमने कर दिया है कि कई बार हमें ऐसा लगने लगता है कि इसके पढ़ने से कुछ नहीं होता,हम इससे भिन्न मन्त्रों की तलाश में जुट जाते हैं |कई बार हम इसे शुद्ध रूप में पढ़ना और लिखना भी नहीं जानते हैं |इस अनादर,उपेक्षा और अशुद्धता के पीछे अश्रद्धान भी कारण बन जाता है |हम यह न भूलें कि भले ही पुण्योदय से यह हमें सहज उपलब्ध है किन्तु आज भी उतना ही प्रभावशाली है जितना पहले था | इतना जरूर है कि इस पर श्रद्धान के हमारे स्तर से इसके फल में फर्क जरूर पड़ जाता है | यदि इससे कुछ नहीं होता ऐसा मानकर हम मात्र किसी दबाव में इसका जप करते हैं तो इसके हमारे ऊपर प्रभाव में रूकावट आ सकती है |इसको इस प्रकार समझें हम अपने मोबाइल फोन का ब्लू टूथ ऑन करके आपके मोबाइल फोन में डाटा ट्रान्सफर करना तो चाह रहे हैं किन्तु जब तक आप अपना ब्लू टूथ ऑन नहीं करेंगे और रिक्वेस्ट एक्सेप्ट नहीं करेंगे तो डाटा आप के फोन में रिसिव कैसे होगा ? इसलिए हमें स्वयं को भी तैयार रखना आवश्यक है |

सामान्य रूप से अक्सर हम इसका पाठ बहुत जल्दी में कर लेते हैं , न मन्त्र पर ध्यान देते हैं न उसकी विधि पर और न भाव पर | जिस प्रकार औषधि तभी प्रभावक होती है जब वह विधि पूर्वक ली जाय ,उसी प्रकार सम्पूर्ण फल के लिए इस मन्त्र का विधि पूर्वक जप करने से ही यह पूर्ण प्रभावक होता है |

यह महामंत्र स्वयं में निष्काम है,फिर किसी लौकिक कामना से युक्त होकर इस मन्त्र का पाठ करने से इसके प्रभाव में फर्क आता है |इसका पाठ भी निष्काम भाव से किया जाय तब यह ज्यादा प्रभावशाली होता है | निष्काम भाव से ही शातिशय पुण्य संचय होता है | जब हम यह मन्त्र शुद्ध विधि से पढ़ते हैं तो उतने समय तो हम अन्य पाप कार्यों से बचे ही रहते हैं,दूसरा नवीन पुण्य संचय भी होता है तीसरा सम्यक पुरुषार्थ से सत्ता में पड़े हुए पाप कर्म भी पुण्य रूप परिवर्तित हो जाते हैं और स्वास्थ्य आदि अनुकूलताएँ पुण्य के उदय से ही प्राप्त होती हैं | यदि हम कामना पूर्वक यह पाठ करते हैं तो उल्टा पाप बंध का खतरा रहता है |फिर उस पाप के उदय से हमें प्रतिकूलता प्राप्त होती है तो हम ‘इससे कुछ नहीं होता’ यह दोषारोपण करने लग जाते हैं |इसलिए अधिक लाभ के लिए हमें निष्काम पाठ करना चाहिए |

मंत्र जप का प्रभाव स्वयं जपने से ज्यादा पड़ता है । कर्म विज्ञान के अनुसार जो जपेगा उसकी आत्मविशुद्धि होगी । प्रायः अन्य परंपराओं की देखा देखी यह चलन जैन परंपरा में भी ज्यादा चल पड़ा है कि कोई दूसरा व्यक्ति हमारे लिए हमारा नाम लेकर जप कर ले । किसी परिस्थिति विशेष की बात अलग है ,जब व्यक्ति कुछ बोलने पढ़ने की हालत में न हो ,अत्यंत बीमार हो या मृत्यु के सन्मुख हो तब उसके स्थितिकरण के लिए दूसरों के द्वारा मंत्र पढ़कर उसे सुनाया जाता है । अन्य कोई उपाय नहीं होने की स्थिति में ऐसा किया जाता है । किंतु जप तो स्वयं ही करना श्रेष्ठ है ,कोई और जप-तप करे और कर्म हमारे कट जाएं यह संभव नहीं है ।

जैन दर्शन अकर्तावादी दर्शन है | वास्तव में एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कर्ता नहीं है ,मात्र निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध हैं | वास्तविकता यह है कि हमें न दवा ने ठीक किया ,न डॉक्टर ने और इसी प्रकार न किसी मन्त्र ने ,हमारा आयुकर्म शेष था सो बच गए अन्यथा ये सब कुछ होते हुए भी अन्य लोग चले क्यों गए ? आयु कर्म अन्तरंग निमित्त है और दवा,डॉक्टर,मन्त्र आदि बहिरंग निमित्त हैं | दवा,डॉक्टर,मन्त्र आदि के निमित्त से स्वस्थ्य हो गए तो इन पर व्यवहार से कर्तापने का आरोप आ जाता है और भाषा हमेशा कर्तापने की होने से संसार में ऐसा कहा जाता है कि दवा ने स्वस्थ्य किया या मन्त्र के कारण हम स्वस्थ्य हुए |समयसार में मन्त्रविद्या

समयसार, गाथा 91 की टीका करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी लिखते हैं-  

यथा साधक: किल तथाविधध्यानभावेनात्मना परिणममानो ध्यानस्य कर्ता स्यात्, तस्मिंस्तु ध्यानभावे सकलसाध्यभावानुकूलतया निमित्तमात्रीभूते सति साधकं कर्तारमन्तरेणापि स्वयमेव बाध्यन्ते विषव्याप्तयो, विडम्ब्यंते योषितो, ध्वंस्यन्ते बन्धा: ......

अर्थ- जिस प्रकार साधक तो अपने ध्यान भाव से परिणमित होता हुआ ध्यान भाव का ही कर्ता होता है, परन्तु उसके अनुकूल निमित्त होने से कर्ता हुए बिना भी स्वयमेव विष उतर जाता है, स्त्रियाँ विडम्बना को प्राप्त हो जाती हैं, बन्धन टूट जाते हैं......

मंत्र से प्रभावना ?

हम जब किसी साहित्य को पढ़ते हैं तो वे विषय चयनित कर लेते हैं जो हमारे या हमारी मान्यताओं के अनुरूप हैं । उसी ग्रंथ में प्रतिपादित वे विषय हमारी दृष्टि से ओझल हो जाते हैं जो हमें पसंद नहीं हैं ।हम यह कार्य अक्सर करते हैं । 

जिस भी समाज या समूह में जिस मान्यता की पूर्व से पुष्टि है उसका व्याख्यान करना बहुत आसान ,प्रभावपूर्ण और प्रसिद्धि कारक होता है । अतःहम उसे ही रट कर ,दोहराते रहते हैं । प्रचारक होना आसान है किन्तु साथ में विचारक और लेखक होना कठिन है । विचारक और लेखक को  प्रचार जन्य लाभ से परे होकर सोचना होता है । उसे विरोध झेलने की क्षमता भी रखनी होती है । उसे वर्तमान से बहिष्कृत होने का भी दर्द सहन करना पड़ सकता है । जैसा कि अधिकांश लोगों के साथ होता है । किन्तु सत्य के अनुसंधान में साहसी और स्याद्वादी दोनों होना बहुत आवश्यक है । अनेकांत दृष्टि बहुत कठिन होती है । क्यों कि अनेकांत की माला फेरते फेरते हम कब एकांत एकांत जपने लगते हैं हमें स्वयं पता नहीं लगता ।

मंत्र प्रयोग से असहमति रखने वाले विचारकों के लिए एक उदाहरण पांडेय राजमलजी का देना अनुचित नहीं होगा । नयज्ञान आदि की विशिष्ट व्याख्या करने वाले तथा आध्यात्मिक विचारक पाण्डे राजमल्ल जी तो मंत्र को प्रभावना मानकर कथन कर रहे हैं और इसके लिए तंत्र,मंत्र ,बल,और चमत्कार आदि की स्पष्ट अनुमति दे रहे हैं - 

बाह्यः प्रभावनांगोऽस्ति विद्यामंत्रादिभिर्बलैः । तपोदानादिभिर्जैनधर्मोत्कर्षो विधीयताम् ।।विद्या और मंत्रों के द्वारा, बल के द्वारा, तथा तप और दान के द्वारा जो जैन धर्म का उत्कर्ष किया जाता है, वह प्रभावना अंग कहलाता है । तत्त्वज्ञानियों को यह करना चाहिए ।

 परेषामपकर्षाय मिथ्यात्वोत्कर्षशालिनाम् । चमत्कारकरं किंचित्तद्विधेयं महात्मभिः ।।मिथ्यात्व के उत्कर्ष को बढ़ाने वाले मिथ्यादृष्टियों का अपकर्ष करने के लिए जो कुछ चमत्कारिक क्रियाएँ हैं, वे भी महात्माओं को करनी चाहिए ।(पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/818-819)

कोई सोच भी नहीं सकता कि अध्यात्म विद्या के उत्कृष्ट विचारक भी व्यवहार के धरातल पर यह उपदेश दे सकते हैं । लेकिन दे रहे हैं क्यों कि यह भी प्रभावना है ।

वर्तमान महामारी और महामन्त्र

मैंने ऐसा एक भी मरीज श्रावक नहीं सुना जो सिर्फ मंत्र पाठ कर रहा हो और अपना कोई भी इलाज न करवा रहा हो ।मणि-मंत्र-तंत्र बहु होई, मरते न बचावे कोई” इसको ऐसे भी कह सकते हैं - *दवा,इलाज बहु होई, मरते न बचावे कोई* बात एक ही है ,अभिप्राय यही है कि कुछ भी कर लो मरते को कोई नहीं बचा पाता है । किन्तु ऐसा कहकर या मानकर भी इलाज कराना अच्छे से अच्छे पंडित जी, विद्वान, तत्त्व-अभ्यासी, भेद-ज्ञानी भी नहीं छोड़ते ,किन्तु मंत्र पाठ की निस्सारता जान कर या बता कर ,यह अवश्य छूट जाता है । जिस प्रकार रोग का अन्तरंग निमित्त कारण तत्सम्बन्धी कर्म आदि का उदय है फिर भी हम बाह्य उपचार की कोशिश, डॉक्टर, दवाई,वेंटिलेटर आदि के साथ  (गारंटी न होते हुए भी) करते ही हैं उसी प्रकार मंत्र का जप, प्रार्थना , ये भी मृत्यु से बचाने की गारंटी न होते हुए भी श्रद्धावानों के द्वारा जपे ही जाते हैं । मैं तो महामंत्र का जप कभी लौकिक कामना से नहीं करता किन्तु आगम के आधार पर यह श्रद्धान अवश्य है कि -

                                                *एसो पंच णमोक्कारो, सव्वपावप्पणासणो।*

                                      *मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवइ मंगलं।* (मूलाचार)

यह पंच नमस्कार महामंत्र सर्व पापों का नाश करनेवाला है। सबके लिए मंगलमय है, तथा सभी मंगलों में प्रथम मंगल है।

श्रावक के द्वारा मेरे पापों का नाश हो- यह कामना कोई पाप तो नहीं है न ।इसके साथ साथ भैया भगवती दास जी तो यहां तक कहते हैं कि -

*जहां जपें णमोकार वहां अघ कैसे आवें।*

*जहाँ जपें णमोकार वहाँ विंतर भग जावें*।।

*जहाँ जपें णमोकार वहाँ सुख संपत्ति होई।*

*जहाँ जपें णमोकार वहां दुख रहे न कोई ।।*

*णमोकार जपत नवनिधि मिलें, सुख समूह आवे निकट ।*

*भैया नित जपवो करो , महामंत्र णमोकार है* ।।

केवल मंत्र पाठ से क्या होगा ?

इस पर प्रश्न होने लगता है कि सिर्फ इस जप को करते रहो , कोई शास्त्र स्वाध्याय मत करो,पूजा पाठ मत करो , संयम व्रत उपवास मत करो तो क्या मुक्ति मिल जाएगी ? सम्यग्दर्शन हो जाएगा ? आत्मानुभूति प्राप्त हो जाएगी भाई ,यह तो हमने नहीं कहा ।अरे ! इतने अधीर और उतावले क्यों हो रहे हैं ? मंत्र जप की प्रेरणा देने का यह अर्थ निकालना भी आपके प्रमाद को ही दर्शा रहा है । हम तो कुछ करने को कह रहे हैं ,उसका *अन्य कुछ भी नहीं करना* यह अर्थ क्यों निकाल रहे हैं दान से मोक्ष होता है - यह उपदेश भी प्रेरणा के लिए दिया जाता है और वास्तविक दान परंपरा से मोक्ष का कारण है भी । कम शब्दों में ऐसे ही कहा जायेगा । विस्तार से बात करें तब विशद विवेचन होगा । इस पर आप यह कहने लगें कि दान से मोक्ष मानना गृहीत मिथ्यात्व है तो हम मिथ्यादृष्टि किसे कहें जो विवक्षा नहीं समझ रहा उसे या जो दान से मोक्ष कह रहा है उसे ?इसी प्रकार णमोकार महामंत्र की साधना के भी अनेक स्तर हैं और जाप प्रारंभिक स्तर है और प्रारंभ हुए बिना तो कोई भी उच्च शिखर को प्राप्त नहीं कर सकता ।  जैसे दसवीं कक्षा का विद्यार्थी पूछे कि क्या मैं दसवीं पास करके डॉक्टर बन जाऊंगा तो उसे आरम्भ में प्रेरणा के लिए उत्तर ‘हाँ’ ही देना होगा ,क्यों कि एम्.बी.बी.एस. भी बिना दसवीं के तो नहीं कर पायेगा न । शास्त्रों की इस प्रकार की उपदेश शैली की लगातार उपेक्षा करते रहेंगे तो ‘माया मिली न राम’ वाली स्थिति हो जाएगी ।

अंतिम में शरण क्या है ?

कविवर जयचंद लिखते हैं – शुद्धातम अरु पंचगुरु ,जग में सरणो दोय (अशरण भावना)  अर्थात् इस जगत में अपनी शुद्धात्मा और पञ्च परमेष्ठी ये दो ही एक मात्र वास्तविक शरण हैं । अब जिस गुणस्थान की  भूमिका में मरीज है उसमें वह अपनी शुद्धात्मा की कामना तो कर सकता है किन्तु चाहकर भी शरण ग्रहण नहीं कर पाता है तो शुद्धात्मा की ओर ले जाने वाले स्वयं शुद्धात्म स्वरुप  पञ्च परमेष्ठी ही उसकी एक मात्र शरण बचते हैं । अतः मरीज को नमस्कार महामंत्र के माध्यम से उनकी शरण प्राप्त होती है और उसका मनोबल मजबूत होता है ।  ये भी एक थेरेपी है जो श्रद्धा के कारण मरीज के शरीर में अन्तःस्रावी ग्रंथियों से सकारात्मक रासायनिक स्राव करता है जिससे उसकी चेतना सकारात्मक उर्जा से भर जाती है ,उसका मनोबल मजबूत होता है और वह उपस्थित सभी विपदाओं का सामना करने की सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है और यदि आयु शेष है तो वह जल्दी स्वस्थ्य भी हो जाता है साथ ही  पञ्च परमेष्ठी के वास्तविक स्वरुप का चिंतवन करने से उसकी कषाय मंद होती है और उसे मानसिक और आत्मिक शांति दोनों प्राप्त होती है ।

वर्तमान में महामारी के इस विपत्ति काल में ICU में वेंटिलेटर पर जीवन संघर्ष करते हुए श्रावक को यदि मन की शांति ,मनोबल और आत्म विशुद्धि के लिए महामंत्र जाप की प्रेरणा यदि दी जा रही है और *अन्यथा शरणं नास्ति,त्वमेव शरणं मम* की भावना से वह अंदर ही अंदर महामंत्र का मानसिक जप भी कर रहा है तो उसको हर तरफ से लाभ ही लाभ है । जीवन रहा तो भी और नहीं रहा तो भी । अतः मेरा निवेदन है कि हमें जिनागम के आलोक में सर्वांगीण चिंतन करना चाहिए और उभय अतिवाद से बचना चाहिए । मन्त्रों के साधक अध्यात्म और विज्ञान से दूर न हों और विज्ञान तथा अध्यात्म के चिन्तक मन्त्र के महत्त्व को एक सिरे से न नकारें –यही मंगल भावना है ।

#आचार्य – जैनदर्शन विभाग ,श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विश्वविद्यालय,क़ुतुब संस्थानिक क्षेत्र ,नई दिल्ली -१६

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टिप्पणियाँ

बेनामी ने कहा…
Bahut aacha h🙏
बेनामी ने कहा…
Good

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