EDITORIAL णमो जिणाणं
क्या जैनधर्म सनातन है ?
जैन धर्म भी एक धर्म है ,कोई सम्प्रदाय नहीं है किन्तु प्रत्येक संप्रदाय की तरह सांस्कृतिक ,सामाजिक और पारंपरिक रीति रिवाजों से आच्छादित जैन धर्म भी वर्तमान में एक संप्रदाय की तरह ही प्रचलन में है ,उसके पूजा पाठ ,मंदिर ,मूर्ति,तीर्थ,पुरात्तत्व ,पर्व ,व्रत ,उपवास,तपस्या और मोक्ष साधना पद्धति के अपने मौलिक स्वरुप हैं जो उसे अन्य परम्पराओं से भिन्न करते हैं । अन्य परम्पराओं की तरह उनका अपना एक सुदीर्घ इतिहास है ,संस्कृति है ,आगम हैं ,साहित्यिक भण्डार है । साधना के क्षेत्र में उनकी अपनी एक अलग ही निराली गौरवशाली परंपरा है । उसकी दिगंबर परंपरा में नग्न दिगंबर रह कर ,करपात्री बन बिना,एकभुक्त होकर,बिना किसी अन्य संसाधन के अखंड ब्रह्मचर्य पूर्वक आत्मानुभूति में नित्य रम कर जन्म मरण से मुक्ति की साधना करना दुनिया के इतिहास में तपस्या का एक अविश्वसनीय उदाहरण है जो आज भी इस ऋषि प्रधान भारत भूमि पर देखा जा सकता है ।
मात्र आत्मानुभूति और मुनि चर्या से मनुष्य मोक्ष तो
प्राप्त कर सकता है किन्तु इस धरा पर यह मोक्षमार्ग जीवित रहे इसलिए आगम ,ग्रन्थ
,पुराण आदि का सर्जन होता है ,जिनालय देवालय बनते हैं ,पूजन भक्ति होती है और भी
अन्य क्रियाएं और परम्पराएँ निर्मित होती
हैं जिनका उद्देश्य होता है इस साधना मार्ग को और उस परम लक्ष्य को जीवित रखा जाए ।
ये समस्त चीजें साधन हैं किन्तु साध्य है
आत्मधर्म जो कि सनातन है । संप्रदाय कारण
है ,साधन है और कार्य या साध्य है आत्मानुभूति । कारण में कार्य का आरोप करके कथन करने की पद्धति
भारतीय परंपरा में सदैव से विद्यमान रही है अतः उस संप्रदाय को भी सनातन कहा जाने
लगा ।
जैन परंपरा में प्राकृत के मूल आगम[1] तथा
अन्य संस्कृत आदि ग्रंथों में सनातन शब्द का प्रयोग भी हुआ है किन्तु एक नहीं
बल्कि हजारों बार सनातन के अर्थ में अनादिनिधन शब्द का प्रयोग हुआ है । अनादिनिधन शब्द का वही अर्थ है जो सनातन का है
अर्थात् जिसका आरम्भ और समाप्ति न हो,नित्य ,शाश्वत
,स्थायी । [2]
तीर्थंकर भगवान् महावीर की वाणी द्वादशांग रूप में उपलब्ध
है ,उनके द्वारा उपदिष्ट प्राकृत आगम सूत्रकृतांग जिसे छठी शती पूर्व उन्होंने कहा
था ,में सर्वप्रथम ‘सणातण’ (सनातन) शब्द का प्रयोग हुआ है । वहाँ
दूसरे स्कंध में छठा अध्ययन है ‘आद्रकीय’,जो कि एक राजकुमार था और बाद में
प्रव्रजित होकर जैन मुनि बनकर भगवान् महावीर के समोशरण में जाता है तब उसके पहले
अन्यान्य तत्कालीन दार्शनिक और मत वाले उसे रास्ते में मिलते हैं और उससे तर्क
वितर्क करके उसे अपने संप्रदाय में दीक्षित करने का यत्न करते हैं ,वे सभी की शंका
का समाधान कर समोशरण में चले जाते हैं । उसमें एक सांख्य मत वाला परिव्राजक उनसे कहता है
- हे आद्रकुमार ,तुम्हारा
और हमारा धर्म समान है । हम दोनों धर्म में समुत्थित हैं,इस धर्म में हम स्थित हैं और
भविष्य में रहेंगे ।आचार ,शील
और ज्ञान भी हमारा समान है । तथा परलोक के विषय में भी हमारा कोई मतभेद नहीं है ।[3] वह कहता है कि जिस प्रकार
आर्हत दर्शन में आत्मा को अव्यक्त ,महान ,सनातन ,अक्षय,अव्यय तथा प्रत्येक शरीर
में समान रूप से स्थित मानते हैं वैसे ही हम भी मानते हैं -
अव्वत्तरुवं पुरिसं महंतं ,सणातण अक्खयमव्वयं
च ।
सव्वेसु भूएसु वि सव्वओ से ,चंदो
व तराहिं समत्तरूवे ।।
ईसा
से छठी शताब्दी पूर्व सूत्रकृतांग में ‘सणातण’ शब्द का प्रयोग एक खास मायने
रखता है ।
प्रथम शती में आचार्य
कुन्दकुन्द ने अपने प्राकृत परमागमों में
इसके लिए अनादिनिधन शब्द का प्रयोग किया है – इदि जिणवरेहिं भणिदो अणादिणिधणो
[4],इसी
तरह भावपाहुड में वे जीव को अनादिनिधन कह कर सनातन कह रहे हैं –
कत्ता भोइ अमुत्तो सरीरमित्तो अणाइणिहणो
य ।
दंसणणाणुवओगो
णिद्दिट्ठो जिणवरिंदेहिं ।।[5]
फिर अनादिनिधन(सनातन
)आत्मस्वरुप के चिंतवन का उपदेश भी दे रहे हैं -
भावहि पढं तच्चं बिदियं तदियं चउत्थ पंचमयं ।
तियरणसुद्धो
अप्पं अणाइणिहणं
तिवग्गहरं ।।[6]
अर्थ - हे
मुने !
तू
प्रथम तो जीवतत्त्व का चिन्तन कर, द्वितीय अजीवतत्त्व का चिन्तन कर, तृतीय आस्रव तत्त्व का चिंतन
कर, चतुर्थ
बन्धतत्त्व का चिन्तन कर, पंचम
संवरतत्त्व का चिन्तन कर और त्रिकरण अर्थात् मन वचन काय, कृत कारित अनुमोदना से शुद्ध
होकर आत्मस्वरूप का चिन्तन कर जो आत्मा अनादिनिधन है और त्रिवर्ग अर्थात् धर्म, अर्थ तथा काम इनको हरने वाला
है ।
प्राचीनतम साहित्य वेद[7] के इस
मन्त्र पर यदि हम दृष्टिपात करें तो इसमें नग्न(दिगंबर ) ,ब्रह्म(आत्म स्वरुप),
सनातन और आर्हत शब्द का प्रयोग एक ही मन्त्र में हो रहा है जिसे पढ़कर ऐसा लगता है
मानो अनादिनिधन सनातन दिगम्बर जैन
(आर्हत) आदित्य वर्ण पुरुष (ऋषभदेव ) की शरण की बात कही जा रही हो –
ॐ नग्नं सुधीरं दिग्वाससं ।
ब्रह्मगर्भ सनातनं
उपैमि वीरं| पुरुषमर्हतमादित्य वर्णं तसमः पुरस्तात् स्वाहा । ।
अर्थ- मैं नग्न धीर वीर दिगम्बर
ब्रह्मरूप सनातन अर्हत आदित्यवर्ण पुरुष की शरण को प्राप्त होता हूँ।
जिनसेनाचार्य(नौवीं शती ईश्वी ) ने हरिवंशपुराण[8] में ‘जैनं
द्रव्याद्यपेक्षातः साद्यनाद्यथ शासनम्’ कह कर यह स्पष्ट किया कि द्रव्य
दृष्टि (आत्म स्वभाव की दृष्टि से )से जैन धर्म अनादि है और पर्याय दृष्टि (इस
अवसर्पिणी काल में प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ ऋषभदेव ने इसका प्रवर्तन किया –इस दृष्टि
से) यह आदि है । जैन धर्म मुख्य रूप से
पूर्ण आत्म विशुद्धि का ही धर्म है अतः यह अनादि से है ,सनातन है । जैन धर्म में
अहिंसा आदि पांच अणुव्रत और महाव्रत को धर्म कहा गया है । आदिपुराण में आचार्य जिनसेन इसे ही सनातन
धर्म कह रहे हैं [9]–
अहिंसा सत्यवादित्वमचौर्यं त्यक्तकामता ।
निष्परिग्रहता चेति प्रोक्तो धर्मः सनातनः । ।
यही नहीं बल्कि अकृत्रिम जिनालयों (जैन मंदिरों) को भी आप अनादिनिधन
शाश्वत और सनातन मानते हैं –
अकृत्रिमाननाद्यन्तान् नित्यालोकान्
सुराचिन्तान् ।
जिनालयान् समासाद्य स परां मुदमाययौ । । [10]
गुणभद्राचार्य ने उत्तरपुराण में एक कथा के प्रसंग में
जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा प्रतिपादित आत्मधर्म को सनातन शब्द से ही कहा
है[11] –
गतोऽमित प्रभार्हद्भ्यःश्रुत्वा धर्म सनातनम् ।
मत्पूर्वं भवसंबन्धम प्राक्षमवदंश्च ते । ।
प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव द्वारा प्रवर्तित अहिंसा स्वरूपी
आत्मधर्म की व्याख्या अंतिम तीर्थंकर भगवान् महावीर ने की और उनके समकालीन महात्मा
बुद्ध ने भी आत्म धर्म अहिंसा का समर्थन किया और कहा कि वास्तव में, इस संसार में घृणा कभी भी
घृणा से शांत नहीं होती। यह केवल प्रेम-कृपा से ही प्रसन्न होता
है। ये सनातन धर्म है[12]
-
न हि वेरेण वेरानि सम्मन्तिधा कुदाकनं
अवेरेना च सम्मन्ति एसा धम्मो सनन्तनो ।
पहले महात्मा बुद्ध से सनातन जैन धर्म का गहरा सम्बन्ध था
|बुद्ध के चाचा ‘वप्प’ तेइसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ के अनुयायी थे |बौद्ध ग्रन्थ
अगुत्तर निकाय में चतुर्याम धर्म का उल्लेख आता है ,चतुर्याम अर्थात्
अहिंसा,सत्य,अचौर्य और अपरिग्रह |बुद्ध सबसे पहले जिस धर्म में दीक्षित हुए ,जिसके
अनुसार कठोर तप किया वह तीर्थंकर पार्श्वनाथ का चतुर्याम धर्म था |[13]
ओशो ने ‘एस धम्मो सनंतनो’ की बहुत व्याख्या की और उनकी प्रसिद्ध पुस्तक भी इसी नाम से है ,तो प्रायः आम अवधारणा यह
फ़ैल गई कि सनातन शब्द का प्रयोग सबसे पहले महात्मा बुद्ध ने किया था ,जबकि जैन आगमों एवं
प्राचीन वैदिक साहित्य में इसके पर्याप्त प्रमाण मौजूद हैं जो महात्मा बुद्ध से भी
ज्यादा प्राचीन हैं । फिर भी हमें शब्द पर
ध्यान देने की अपेक्षा उसके भाव पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए ,उपलब्ध शब्द और संज्ञाएँ
तो अर्वाचीन भी हो सकते हैं लेकिन जो ध्रुव है ,शाश्वत है ,अनादिनिधन है वह सनातन है –यह अर्थ तो नहीं बदलता है
न ।
सनातन एक संज्ञा भी -
साहित्य में सनातन संज्ञा किसी न किसी के नाम
के रूप में भी प्रयुक्त होती रही है । तीर्थंकर और देवी देवताओं के नाम के
पर्यायवाची के रूप में यह संज्ञा विद्यमान रही है ,जैसे ऋषभ,आदिनाथ
शिव,विष्णु,लक्ष्मी,दुर्गा,लक्ष्मी,पार्वती,सरस्वती आदि । [14]तैत्तिरिय संहिता में एक
देवशास्त्रीय ऋषि का नाम सनातन है । [15]
आचार्य जिनसेन ने तीर्थंकर ऋषभदेव की एक हजार आठ नामों से जो स्तुति की है उसमें
उनका एक नाम सनातन भी कहा है[16] –
युगादिपुरुषो ब्रह्म पञ्चब्रह्ममय: शिव: ।
परः परस्तरः सूक्ष्म: परमेष्ठी सनातनः । ।
अर्थात् - हे प्रभु आदिनाथ ,आप सदा से ही विद्यमान रहते हैं
इसलिए सनातन कहे जाते हैं । इसी
प्रकार उन्होंने आगे ऋषभदेव को आदि अंत रहित होने से अनादि-निधन कहा है –
अनादिनिधनो व्यक्तो व्यक्त्वाग् व्यक्तशासनः[17]
जैन धर्म की सनातनता –
जैन आगमों में यह बतलाया गया है कि यह धर्म अनादि से है और
अनंत काल तक रहेगा | सम्पूर्ण काल चक्र के दो विभाग हैं एक उत्सर्पिणी और दूसरा
अवसर्पिणी | इस प्रत्येक भाग के छह छह आरे हैं | उत्सर्पिणी काल में धर्म की
क्रमशः वृद्धि होती है और अवसर्पिणी काल में धर्म का क्रमशः ह्रास होता है |
प्रत्येक काल में चौबीस तीर्थंकर होते हैं जो उस सनातन जैन धर्म का मात्र प्रवर्तन
करते हैं ,उसका निर्माण नहीं करते हैं | अभी अवसर्पिणी काल का पांचवां आरा चल रहा
है | चौथे आरे में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव और अंतिम तीर्थंकर वर्धमान महावीर हुए |
भूतकाल के चौबीस तीर्थंकर के नाम और भविष्य में होने वाले तीर्थंकरों के नाम भी
भिन्न होते हैं जिनका जैन आगमों में उल्लेख है | इस जम्बूद्वीप के भरत और ऐरावत इन दो वर्षों या क्षेत्रों में एक साथ अर्हंत
या तीर्थंकर वंशों की उत्पत्ति अतीत में हुई है, वर्तमान में हो रही है और भविष्य में भी इसी प्रकार होती रहेगी-
जंबूद्दीवे भरहेरावएसु
वासेसु, एगसमए एगजुगे दो। अरहंतवंसा उप्पज्जिंसु वा, उप्पज्जिंति वा
उप्पज्जिस्संति वा ।।[18]
जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में यह भी लिखा है कि सर्वज्ञ भगवान्
तीर्थंकर के मुख से निकला शाश्वत धर्म ,पूर्वापर विरोध रहित है तथा यह द्वादशांग
श्रुत अर्थात् जैनागम को अक्षय तथा अनादिनिधन कहा गया है –
सव्वण्हुमुहविणिग्गय, पुव्वावरदोसरहिदपरिसुद्धं ।
अक्खयमणाहिणिहणं, सुदणाणपमाणं णिद्दिट्ठं ।।[19]
सनातन की एक विशिष्ट पहचान ॐ बीजमंत्र भी माना जाता है | एक
प्रसिद्ध प्राकृत ग्रन्थ दव्वसंगहो में इसका अर्थ भी बताया गया है तथा यह बताया गया
है कि ॐ का गठन किस तरह हुआ है –
अरहंता असरीरा आइरिया तह उवज्झया मुणिणो।
पढमक्खरणिप्पणो ओंकारो पंचपरमेट्ठी।।[20]
जैनागम में अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय एवं साधु यानी
मुनि रूप पाँच परमेष्ठी ही आराध्य माने गए हैं। इनके आद्य अक्षरों को परस्पर
मिलाने पर ‘ओम्’/‘ओं’ बन जाता है। यथा, इनमें से प्रथम परमेष्ठी ‘अरिहन्त’ या ‘अर्हन्त’ का प्रथम अक्षर ‘अ’ को लिया जाता है। द्वितीय
परमेष्ठी ‘सिद्ध’ है, जो शरीर रहित होने से ‘अशरीरी’ कहलाते हैं। अत: ‘अशरीरी’ के प्रथम अक्षर ‘अ’ को अरिहन्त’ के ‘अ’ से मिलाने पर अ+अ=‘आ’ बन जाता है। उसमें तृतीय
परमेष्ठी ‘आचार्य’ का प्रथम अक्षर ‘आ’ मिलाने पर आ+आ मिलकर ‘आ’ ही शेष रहता है। उसमें
चतुर्थ परमेष्ठी ‘उपाध्याय’ का पहला अक्षर ‘उ’ को मिलाने पर आ+उ मिलकर ‘ओ’ हो जाता है। अंतिम
पाँचवें परमेष्ठी ‘साधु’ को जैनागम में मुनि भी
कहा जाता है। अत: मुनि के प्रारंभिक अक्षर ‘म्’ को ‘ओ’ से मिलाने पर ओ+म् = ‘ओम्’ या ‘ओं’ बन जाता है। इसे ही
प्राचीन लिपि में ॐ के रूप में बनाया जाता रहा है।यह मन्त्र अनादि से है –
ध्यायतो अनादिसंसिद्धान् वर्णानेतान् यथाविधि[21]...
इस मन्त्र की एक विशेषता यह है कि गुणों को और उस गुण के आधार पर निर्धारित पद पर
विराजमान शुद्धात्माओं को नमस्कार किया गया है –जो किसी संप्रदाय से नहीं है |इस मन्त्र
का उल्लेख सम्राट खारवेल के विश्व प्रसिद्ध प्राचीन शिलालेख में किया गया है जो उड़ीसा
की उदय गिरी खंड गिरी गुफाओं में हैं |
आत्मधर्म ही सनातन है -
धर्म को लेकर जैन धर्म ने किसी संप्रदाय की बात नहीं कही
बल्कि वस्तु के स्वभाव,क्षमा आदि भाव,रत्नत्रय और जीव रक्षा को सनातन धर्म कहा है –
धम्मो वत्थु-सहावो, खमादि-भावो य दस-विहो धम्मो।
रयणत्तयं च धम्मो, जीवाणं रक्खणं धम्मो।।[22]
आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने आत्मा और आत्मधर्म को शाश्वत
सनातन कहा है और यह भी कहा है कि इसके अलावा अन्य सभी संयोग मुझसे बाह्य हैं –
एगो मे सासओ अप्पा, नाणदंसणसंजुओ।
सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोग लक्खणा ।।[23]
आचार्य शुभचंद्र (ग्यारहवी शती ईश्वी )ने आत्मधर्म को ही सनातन
कहा है –
यो विशुद्ध : प्रसिद्धात्मा
परं ज्योति: सनातन:।
सोऽहं तस्मात्प्रपश्यामि
स्वस्मिन्नात्मानमच्युतम्।।
निर्मल है और प्रसिद्ध है आत्मस्वरूप जिसका, ऐसा परमज्योति सनातन
जो सुनने में आता है ऐसा मैं आत्मा हूँ, इस कारण मैं अपने में ही अविनाशी परमात्मतत्त्व
को देखता हूँ।[24] आगे वे शुद्धात्मा में सदैव
लीन रहने वाले परमपद में स्थित ,उत्कृष्ट ज्ञान ज्योति से सहित ,परिपूर्ण ,सनातन
,संसार रूप समुद्र से पार को प्राप्त ,कृत कृत और स्थिर स्थिति से संयुक्त सिद्ध
परमात्मा को सनातन कहा है जो अतिशय संतुष्ट होकर सदा तीन लोक के शिखर
(लोकाग्र)सिद्धालय में सदा विराजमान है[25]
-
परमेष्ठी परं ज्योति: परिपूर्ण: सनातन:।
संसारसागरोत्तीर्ण: कृतकृत्योऽचलस्थिति:।।
इसीप्रकार सहजपरमात्मतत्त्व
में समस्त पर भावों से भिन्न एक मात्र शुद्धात्मा को सनातन कहा है[26] -
भिन्नं समस्तपरत: परभावतश्च पूर्णं सनातनमनंतमखंडमेकम्
।
निक्षेपमाननयसर्वविकल्पदूरं शुद्धं चिदस्मि
सहजं परमात्मतत्त्वम् । ।
इस प्रकार सैकड़ों नहीं
बल्कि हजारों सन्दर्भ प्राचीन प्राकृत,संस्कृत,अपभ्रंश भाषा में लिखे जैन ग्रंथों
में खोजे जा सकते हैं । इसी प्रकार
तमिल,कन्नड़,राजस्थानी,गुजराती,हिंदी आदि अन्यान्य भारतीय भाषाओं में रचित हजारों
ग्रंथों में भी इसके प्रमाण उपलब्ध हो जायेंगे । निष्कर्ष यह है कि आत्मा सनातन है और उसकी
विशुद्धि का मार्ग सनातन धर्म है ,चूँकि जैनधर्म मूलतः यही प्रतिपादित करता है
इसलिए जैन धर्म सनातन धर्म है –
उसहवीरपण्णत्तो अहिंसाणुकम्पो संजमो तवो ।
वत्थुसहावो धम्मो सयय अप्पधम्मसणातणो
। ।
©प्रो डॉ.अनेकांत कुमार जैन
प्राकृत
विद्या भवन
जिन फाउंडेशन,नई दिल्ली -74
[1] सणातण/ सणायण.त्रि० [सनातन] નિત્ય રહેનાર, શાશ્વત,
ચિરસ્થાયી,नित्य रहने वाला ,शाश्वत ,चिरस्थायी आगम-शब्दादि-संग्रह (प्राकृत_संस्कृत_गुजराती)
[भाग-४] कोष, रचयिता आगम दीवाकर मुनि दीपरत्नसागरजी ,2019
[2] संस्कृत हिंदी कोष ,वामन शिव राम आप्टे ,पृष्ठ 33 तथा 1066 MLBD,1996
[3] सूत्रकृतांग 2/6/46 (आद्रकीय )
[4]पंचास्तिकाय गाथा 130
[5] भावपाहुड,गाथा 147
[6] भावपाहुड,गाथा 114
[7] ऋग्वेद (पूरा सन्दर्भ अनुसंध्येय है )
[8] हरिवंशपुराण ,प्रथम सर्ग ,श्लोक 1 ,पृष्ठ 1 ,भारतीय
ज्ञानपीठ,दिल्ली
[9] आदिपुराण,पंचम पर्व
,श्लोक 23 ,पृष्ठ 92
[10] आदिपुराण,पंचम पर्व
,श्लोक 110 ,पृष्ठ 110
[11] उत्तरपुराण,गुणभद्राचार्य,पर्व 62,श्लोक 363,पृष्ठ 162, भारतीय ज्ञानपीठ,दिल्ली
[12] धम्मपद, कलायक्खिनी
वत्थु,गाथा 5
[13] मज्झिमनिकाय,महासिंहनादपुत्त,भाग 1,पृष्ठ 238 तथा
‘पार्श्वनाथ च चतुर्यामधर्म’-डॉ.धर्मानंद कौशाम्बी
[14] संस्कृत हिंदी कोश ,वामन शिव राम आप्टे ,पृष्ठ 1066 MLBD,1996
[15] तैत्तिरिय संहिता
4/3/3/1,देखें वैदिक कोश ,सूर्यकांत ,BHU,1963,पृष्ठ 451
[16] आदिपुराण,सर्ग 25,श्लोक 105,पृष्ठ 605
[17] आदिपुराण,सर्ग 25,श्लोक 149,पृष्ठ 616
[18] स्थानांग 2/30/20 (89); तथा जंबूद्दिवपण्णति-199
[19] जंबूद्दिवपण्णति-13/83
[20] दव्वसंगहो टीका -गाथा-49
[21] योगशास्त्र –हेमचन्द्र
[22] कार्तिकेयानुप्रेक्षा 478 तथा उत्तराध्ययन 9/20-21,13/23-33
[23] भावपाहुड -59
[24] ज्ञानार्णव,श्लोक 1547,पृष्ठ 516,जैन संस्कृति संरक्षक संघ
,शोलापुर
[25] ज्ञानार्णव,श्लोक 2217,पृष्ठ 696
[26] सहजपरमात्मतत्त्व,श्लोक 3
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