सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

दसधम्मसारो (दशधर्मसार) - प्रो अनेकान्त कुमार जैन (प्रकाशित कृति)

Notice-
This published book is the collection of many articles which has been published in different newspapers time to time. This is for public domain , welfare and for religious purpose . Any news paper magazine can publish this matter with seqence during the dashlakshan parva upto the kshamavani parva (means Panchmi to Chaturdashi and on ekam.) with the name of author Prof.Dr Anekant Kumar Jain,New Delhi without any cost . No changes are allowed in the matter .

दसधम्मसारो
(दशधर्मसार )   

प्रो.डॉ.अनेकांत कुमार जैन
आचार्य -जैन दर्शन विभाग 
श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विश्वविद्यालय 
नई दिल्ली -११०१६ 
Phone 9711397716
anekant76@gmail.com 


प्रकाशक
जिन फाउंडेशन,नई दिल्ली

सन - 2020






भूमिका 

आत्मानुभूति  का महापर्व है दशलक्षण

जैन परंपरा के लगभग सभी पर्व हमें सिखाते हैं कि हमें संसार में बहुत आसक्त होकर नहीं रहना चाहिए । संसार में रहकर भी उससे भिन्न रहा जा सकता है जैसे कमल कीचड़ में रहकर भी उससे भिन्न होकर खिलता है । यह कार्य अनासक्त भाव से रहने की कला जानने वाला सम्यग्दृष्टि साधक मनुष्य बहुत अच्छे से करता है । यह पर्व भेद विज्ञान करना सिखाता है , वह कहता है कि पाप से बचने का और कर्म बंधन से छूटने का सबसे अच्छा उपाय है-भेद विज्ञान की दृष्टि ।  
मूलाचार ,भगवती आराधना आदि शास्त्रों में दसवें कल्प का नाम प्राकृत में  पज्जोसवणा लिखा है ,इसका संस्कृत रूप पर्युषणकल्प है , जिसका अभिप्राय है वर्षाकाल में चार महीने भ्रमण त्याग कर एक स्थान पर वास । पर्युषण का अर्थ चातुर्मास से लगाया जा सकता है । अतः इस दौरान जो भी पर्व आते हैं उन्हें पर्युषण पर्व कहा जा सकता है ।आठ दिन आत्मा की आराधना करने वाले श्वेताम्बर संप्रदाय में इस पर्व को पर्युषण पर्व ही कहा जाता है । दशलक्षण भी इन्हीं चातुर्मास में आते हैं अतः उसे भी उपचार से पर्युषण पर्व कह दिया जाता है । पर्युषण का शाब्दिक अर्थ है, परि आसमंतात् उष्यन्ते दह्यन्ते पाप कर्माणि यस्मिन् तत् पर्युषणम् अर्थात् जो आत्मा में रहने वाले कर्मों को सब तरफ से तपाये या जलाये, वह पर्युषण है । दशलक्षण पर्व में दस दिन तक आत्मा के दश लक्षणों की उपासना की जाती है ।
दशलक्षण पर्व आत्मा (अंतस) तथा उसे ज्ञान दर्शन चैतन्य स्वभावी मानने वालों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। जैन परंपरा में इन दिनों श्रावक-श्राविकाएं, मुनि-आर्यिकाएं (जैन साध्वी) पूरा प्रयास करते हैं कि आत्मानुभूति को पा जाएं, उसी में डूबें तथा उसी में रम जाएं। क्षमा, मार्दव (अहंकार रहित), आर्जव (सरलता), सत्य, शौच (शुद्धि), संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य (परिग्रह का त्याग) और ब्रह्मचर्य जैसे दस लक्षण शुद्धात्मा के स्वभाव हैं, किंतु हम अपने निज स्वभाव को भूलकर परभाव में डूबे रहते हैं। अंतस के मूल शुद्ध स्वभाव को प्राप्त करने के लिए ही पर्युषण पर्व मनाया जाता है। पर्युषण पर्व सात्विक जीवन शैली के अभ्यास तथा आत्मानुभूति करवाने के लिए प्रति वर्ष आता है।
 जैन परंपरा में दिगंबर तथा श्वेतांबर दोनों ही कुल 18 दिनों तक पर्युषण पर्व उत्साह से मनाते हैं। श्वेतांबर संप्रदाय में यह पर्व भाद्रपद मास के कृष्णपक्ष की त्रयोदशी से भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की पंचमी तक मनाया जाता है। पर्युषण पर्व का अंतिम दिन संवत्सरी कहलाता है। इस दिन सांवत्सरिक प्रतिक्रमण किया जाता है, जिसके द्वारा वर्ष भर में जाने-अनजाने हुई गलतियों का प्रायश्चित करते हैं। सांवत्सरिक प्रतिक्रमण के बीच में ही सभी जीव योनियों से क्षमा याचना की जाती है। यहां क्षमा याचना सभी जीवों से बैर-भाव मिटा कर मैत्री करने के लिए होती है। भाद्रपद शुक्ल पंचमी से भाद्रपद शुक्ल चतुर्दशी तक दस दिन यह पर्व दिगंबर संप्रदाय में विशेष रूप से मनाते हैं जिसे दशलक्षण महापर्व कहते हैं  । जैनदर्शन का मूल सूत्र ग्रन्थ है – तत्त्वार्थसूत्रम् , जिसकी रचना आचार्य उमास्वामि ने संस्कृत भाषा में प्रथम शताब्दी में की थी । इसमें दश अध्याय हैं ,पर्व के दस दिनों में इस ग्रन्थ का विशेष स्वाध्याय अनिवार्य माना गया है ।
इस पर्व की शुरुआत कब से हुई? इस प्रश्र का उत्तर किसी तिथि या संवत् से नहीं दिया जा सकता। हम यह कह सकते हैं कि जब से आत्मा है तभी से यह पर्व है। अर्थात् अनादि अनन्त से चलने वाला यह पर्व किसी जाति संप्रदाय या मजहब से नहीं बंधा है। आत्मा को मानने वाले तथा उसे ज्ञान दर्शन चैतन्य स्वभावी मानने वाले सभी लोग इस पर्व की आराधना कर सकते हैं।
लगभग पच्चीस वर्षों से मैं दशलक्षण पर्व पर विशेष प्रवचन तथा व्याख्यान हेतु विभिन्न स्थानों पर लगातार जा रहा हूँ ।उस दौरान कई बार ऐसा हुआ कि श्रोता कहते कि हमें बहुत ही सरल भाषा में दस धर्मों का सार बताने वाली एक छोटी सी पुस्तक चाहिए जो हम जैन तथा अन्य समाज में वितरित कर सकें  तथा सभी को  दश धर्मों से परिचित करवा सकें । मैंने अक्सर दैनिक जागरण तथा अमर उजाला आदि अनेक राष्ट्रिय स्तर के अख़बारों एवं सामाजिक पत्र पत्रिकाओं में पर्व तथा  जैन धर्म दर्शन को समझाने वाले सैकड़ों लेख लिखे हैं ,उनकी प्रतिक्रिया से भी मैं लिखते रहने हेतु बहुत उत्साहित रहा । किन्तु इन सब लेखनों के बाद भी एक सरल,रोचक और मांग के अनुरूप लघु पुस्तिका तैयार नहीं कर पाया ।
                                                        प्रो.डॉ.अनेकांत कुमार जैन          







1
धर्म का स्वरुप
(धम्मसरूवं)

दंसणमूलो धम्‍मो वत्थुसहावो खलु जीवरक्खणं  । 
चारित्तं सुदधम्‍मो दयाविशुद्धो वीयरायभावो ।।

दर्शन का मूल धर्म है ,वस्तु का स्वभाव धर्म है ,जीवों की रक्षा ही धर्म है ,चारित्र धर्म है ,श्रुत धर्म है ,दया धर्म है और विशुद्ध वीतरागभाव धर्म है –ऐसा जानो ।
धर्म की अनेक परिभाषाएं शास्त्रों में प्राप्त होती हैं जैसे दर्शन का मूल धर्म है ,वस्तु का स्वभाव धर्म है ,जीवों के प्रति अहिंसा धर्म है ,चारित्र धर्म है ,श्रुत धर्म है ,दया धर्म है और विशुद्ध वीतरागभाव धर्म है आदि ।इनके अलावा भी कहा गया है कि जिसे धारण किया जाये वह धर्म है या जो संसारी प्राणियों को दुक्ख से निकाल कर उत्तम सुख में स्थापित कर दे -वह धर्म है | और भी अनेक परिभाषाएं,लक्षण आदि उपलब्ध हो सकते हैं |
ये सभी व्याख्याएं अलग अलग सन्दर्भों में विषय की मुख्यता से शास्त्रों में बताई गईं हैं ।आज हमें विचार इस बात का करना है कि वर्तमान हमारे लिए धर्म की कौन सी परिभाषा हमें झकझोरने वाली है |मुझसे पूछा जाय तो मैं एक ही बात कहूँगा कि ‘ जो आज तक नहीं किया वह धर्म है’ |यह लक्षण सुन कर हो सकता है आप चौंक जाएँ | अरे ये कैसा लक्षण हुआ ? हमने आज तक क्या नहीं किया ? पूजा की ,अभिषेक किया ,तीर्थ किया ,दान दिया आदि न जाने क्या क्या किया | कठोर तप और व्रत आदि भी किये ,फिर भी आप कह रहे हैं कि ‘ जो आज तक नहीं किया वह धर्म है’ तो क्या ये सब अधर्म था ? अरे , नहीं भाई ,मैंने जो ये लक्षण आपको बताया उसको समझना इतना आसान नहीं है और घबड़ाने की जरूरत भी नहीं है | मैं तो बस इतना जानता हूँ कि अनादि काल से मैं इस संसार में भटक कर दुखी हो रहा हूँ ,अनेक जन्मों में दुक्ख मुक्ति के अनेक उपाय भी किये हैं ,जैसा कि आप धर्म के नाम से गिनवा रहे हैं ,लेकिन आज भी मैं इसी भव भ्रमण में हूँ और आपके सामने दशधर्म की व्याख्या करने का प्रयास कर रहा हूँ ,इससे ये पता चलता है और सिद्ध होता है कि हमने आज तक धर्म के नाम पर बहुत कुछ अवश्य किया है लेकिन वास्तविक धर्म नहीं किया ,क्यों कि जिन्होंने वास्तव में सही रीति से धर्म किया है वे आज सिद्धालय में विराजमान हैं ,हमारे आपके साथ नहीं है |इससे पता लगता है कि हमने जो धर्म किया उसमें या तो उसका सही स्वरूप समझने में भूल की या सही पालन में भूल की तभी तो आज तक हमारी यह दशा है | धर्म का फल मोक्ष है और वह लाख कोशिशों के बाद हमें अभी तक नहीं मिला है इसका सीधा सरल मतलब मैंने यह निकाला है कि ‘ जो आज तक नहीं किया वह धर्म है’ |वास्तव में धर्म के मामले में हमें अपने प्रति ईमानदार होने की बहुत आवश्यकता है ,यह दशलक्षण पर्व इसी तरह के आत्मानुसंधान (Self research ) के लिए जीवन में आते हैं | हम किसी मत,संप्रदाय,पंथ के पोषण में और लोकेषणा के चक्कर में अपना यह दुर्लभ मनुष्य भव बर्बाद नहीं कर सकते | क्यों कि यह दुर्लभ मनुष्य भव,भव के अभाव करने के लिए मिला है ,अन्य कार्य अब उतने महत्त्वपूर्ण नहीं हैं |
                                                          प्रो.डॉ.अनेकांत कुमार जैन          
















धर्म के दशलक्षण

धम्मस्स दसलक्खणं खमा मद्दवाज्‍जवसउयसच्चा ।
                         संजमतवचागाकिंयण्‍हं बंभं य जिणेहिं उत्तं ।। 

जिनेन्द्र भगवान् ने धर्म के दस लक्षण कहे हैं – उत्तम क्षमा , उत्तम मार्दव , उत्तम आर्जव, उत्तम शौच, उत्तम सत्य, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम आकिंचन्य और उत्तम ब्रह्मचर्य ।
जैन धर्म में दशलक्षण पर्व पर दस दिन तक आत्मा के दश धर्मों की विशेष उपासना की जाती है इसलिए इन्हें धर्म के दशलक्षण कहते हैं ।यहाँ  आराधना प्रत्येक दिन प्रत्येक धर्म की एक साथ की जाती है | उसका कारण यह है कि ये दश धर्म जब आत्मा में प्रकट होते हैं तब एक साथ ही प्रकट होते हैं क्रमशः नहीं | व्यवहार से स्वरूप समझने के अभिप्राय से प्रत्येक दिन क्रम से एक एक धर्म का स्वरूप समझा और समझाया जाता है और उसकी विशेष पूजा की जाती है |आचार्य उमास्वामि विरचित तत्त्वार्थ सूत्र ग्रन्थ के नवमें अध्याय के छठे सूत्र में इन दश धर्मों के नाम इस प्रकार बताये हैं –
उत्तमक्षमा-मार्दवार्जव-शौचसत्यसंयमतपस्त्यागाकिंचनब्रह्मचर्याणिधर्मः॥
यहाँ क्षमा आदि दशधर्मों में जो ‘उत्तम’ शब्द लगा है वह सम्यग्दर्शन का सूचक है। सम्यग्दर्शन न हो और कितना भी ज्ञान हो जाये, कितनी भी तपस्या, व्रत, उपवास करे—वह सब व्यर्थ हो जाता है। अत: सम्यग्दर्शन पूर्वक ही दशधर्मों की आराधना अभीष्ट फल को दिलवाती है।
पुराणों में दशलक्षणधर्म के व्रतों को पूर्ण करके मुक्त होने वाले अनेक भव्य जीवों की कथायें प्रसिद्ध हैं। मृगांकलेखा, कमलसेना, मदनवेगा और रोहणी नाम की कन्याओं ने दशधर्मों की आराधना मुनिराज के वचनानुसार की तो उनको भी अगले भव में इस पर्याय से मुक्ति मिली तथा आत्मानुभूति प्राप्त हुई। इसके अलावा भी सैकड़ों उदाहरण हैं जिनसे यह पता लगता है कि सम्यग्दर्शन पूर्वक दशलक्षण धर्म की आराधना करने वाले जीवों को मुक्ति प्राप्त हुई।आगे के अध्यायों में हम इन्हीं दश धर्मों का क्रम से विशेष अर्थ समझेंगें |
धारइ जो दसधम्मो पंचमयाले णियसत्तिरूवेण ।
सो अणिंदियाणंदं लहइ ‘अणेयंत’ सरूवं अप्पं ।।
इस विषम पंचम काल में भी जो इन दस धर्मों को यथा शक्ति धारण करता है ,वह अतिन्द्रित आनंद और अनेकांत स्वरूपी आत्मा को प्राप्त करता है |                                                                    - प्रो.डॉ.अनेकांत कुमार जैन          

प्रथम दिन (पंचमी )
उत्तम क्षमा
(उत्तमखमा)

खमा हु‌ अप्पसहावो कोहाभावे य जायइ अप्पम्मि ।
मिच्छत्तस्साभावे  जहा य सम्मत्तं हव‌इ अप्पम्मि ।।३।।

क्षमा आत्मा का स्वभाव है , वह क्रोध कषाय के अभाव स्वरूप आत्मा में उत्पन्न होता है जैसे मिथ्यात्व के अभाव में सम्यक्तत्व आत्मा में प्रगट होता है ।
पहला दिन उत्तम क्षमा का होता है । उत्तम शब्द से तात्पर्य है सम्यग्दर्शन अर्थात् सच्चा विश्वास । यह त्रिरत्नों में पहला रत्न कहलाता है ।मनुष्य की आध्यात्मिक उन्नति के लिए यह पहली शर्त है । इसके बिना मोक्ष मार्ग प्रारंभ ही नहीं होता है ।आत्मा में जब क्रोध रूपी विभाव का अभाव होता है तब उसका क्षमा स्वभाव प्रगट होता है ।
हमने हमेशा से क्रोध को स्वभाव माना है यह हमारी सबसे बड़ी भूल है ।हम अक्सर कहते हैं कि अमुक व्यक्ति क्रोधी स्वभाव का है । क्रोध विकार है स्वभाव नहीं । स्वभाव है क्षमा जो आत्मा का स्वाभाविक धर्म है ।
जैन परम्परा में प्रत्येक धर्म की व्याख्या दो नयों के आधार पर की जाती है ।अध्यात्म की दृष्टि से क्षमा स्वभाव वाली आत्मा के आश्रय से पर्याय में क्रोध रूप विकार की उत्पत्ति नहीं होना ही क्षमा है और व्यवहार की दृष्टि से क्रोध का निमित्त मिलने पर भी उत्तेजित नहीं होना ,उनके प्रतिकार रूप प्रवृत्ति के न होने को ही उत्तम क्षमा कहा जाता है ।
दूसरों की गलती की सजा खुद को देने का नाम क्रोध है ।हमारे क्रोध का सबसे बड़ा कारण है कि अज्ञानता के कारण हम दूसरों को अपने इष्ट या अनिष्ट का कारण मानते हैं ,दूसरों से ज्यादा अपेक्षाएं करते हैं । तत्त्वज्ञान के अभ्यास से जब हम यह समझने लगेंगे कि अपने अच्छे या बुरे के लिए हमारे खुद के किये कर्म दोषी हैं ,दूसरा तो निमित्त मात्र है , तब हमारे जीवन में क्रोध की कमी आना शुरू हो जाएगी और क्षमा स्वभाव प्रगट होना शुरू हो जाएगा ।
हम चाहें कितना भी तर्क कर लें लेकिन अंत में निष्कर्ष यही निकलता है कि क्रोध दुख रूप है और क्षमा सुख रूप ।
आज दिल के रंजोगम चलो मिलकर साफ कर दें ,
जीएंगे कब तक घुटन में अब सभी को माफ कर दें ।
मांग लें माफी गुनाहों की जो अब तक हमने किए,
अब नहीं कोई शिकायत दुनिया को ये साफ कर दें ।।
                                                           प्रो.डॉ.अनेकांत कुमार जैन          

द्वितीय दिवस(षष्ठी )
उत्तम मार्दव 

(उत्तममज्जवं)
मज्जवाप्पसहावो माणाभावे य जायइ अप्पम्मि ।
मिच्छत्तस्साभावे  जहा य सम्मत्तं हव‌इ अप्पम्मि ।।

मार्दव आत्मा का स्वभाव है , वह मान कषाय के अभाव स्वरूप आत्मा में उत्पन्न होता है जैसे मिथ्यात्व के अभाव में सम्यक्तत्व आत्मा में प्रगट होता है ।
                                          उत्तम मार्दव
मृदुता का भाव मार्दव कहलाता है । उत्तम मार्दव का अर्थ है सच्ची श्रद्धा से युक्त मृदुता । यह धर्म आत्मा में मान कषाय के अभाव स्वरूप प्रगट होता है ।जिस प्रकार क्रोध आत्मा का स्वभाव नहीं है उसी प्रकार मान भी आत्मा का स्वभाव नहीं है । निंदा के निमित्त से आत्मा में क्रोध की उत्पत्ति होती है और प्रशंसा के निमित्त से आत्मा में मान उत्पन्न हो जाता है । दोनों ही स्थिति खराब है ।
क्रोधी और मानी में सबसे बड़ा फर्क यह है कि जिस निमित्त से क्रोध उत्पन्न होता है क्रोधी उसे दूर भगाना चाहता है किन्तु जिस निमित्त से मान उत्पन्न होता है मानी उसे रखना चाहता है ।मान के कारण व्यक्ति दूसरों को नीचा और स्वयं को ऊंचा दिखाना पसंद करता है । इसके लिए वह दूसरे की निन्दा करता है और खुद की प्रशंसा खुद ही करता फिरता है । स्थिति प्रतिकूल हो तो क्रोध उत्पन्न हो जाता है और अनुकूल हो तो मान उत्पन्न हो जाता है ।
शास्त्रों में मान को महा विष रूप कहा गया है ।मनुष्य ज्ञान,पूजा,कुल,जाति,बल,ऋद्धि,तप और रूप का घमंड करता है और दूसरों को नीचा दिखाता है ।मान मनुष्य को कुछ सीखने नहीं देता । मान कषाय से युक्त मनुष्य को यह पता नहीं होता कि वह मानी है ,यह दूसरों को पता लगता है जो उनसे पीड़ित होते हैं ।तत्वज्ञान से मान दूर हो जाता है किन्तु अज्ञानी को ज्ञान का ही मद हो जाता है ।
जब तक मान कषाय का अभाव नहीं होगा और जीवन में मृदुता का विकास नहीं होगा तब तक हम आत्मधर्म से कोसों दूर खड़े रहेंगे । उसका स्पर्श भी न हो सकेगा ।विनय के बिना जीवन में धर्म की शुरुआत ही नहीं हो सकती । अतः हमें मान कषाय का अभाव करके आत्मा के स्वाभाविक मार्दव धर्म को प्रगट करने का प्रयास करना चाहिए । सुखी होने का यही उपाय है ।

                                        प्रो.डॉ.अनेकांत कुमार जैन          

तृतीय दिवस(सप्तमी)
उत्तम आर्जव

(उत्तमाज्जवं)

अज्जवाप्पसहावो मायाभावे य जायइ अप्पम्मि ।
मिच्छत्तस्साभावे  जहा य सम्मत्तं हव‌इ अप्पम्मि ।। ५ ।।

आर्जव आत्मा का स्वभाव है , वह माया कषाय के अभाव स्वरूप आत्मा में उत्पन्न होता है जैसे मिथ्यात्व के अभाव में सम्यक्तत्व आत्मा में प्रगट होता है ।

ऋजुता‌ अर्थात् सरलता का नाम आर्जव है । सच्ची श्रद्धा सहित जो वीतरागी सरलता होती है  उसे उत्तम आर्जव धर्म कहते हैं ।आत्मा में उत्तम आर्जव धर्म माया कषाय के अभाव में प्रगट होता है ।

शास्त्रों में कहा गया है कि मायाचारी व्यक्ति वर्तमान में भले ही छल कपट करके खुद को बहुत होशियार या सफल मानता फिरे , दूसरों को ठग कर बेवकूफ बनता रहे किन्तु इस मायाचारी प्रवृत्ति का फल तिर्यंच  गति होता है अर्थात् इसके फल से मनुष्य अगले जन्म में पशु पक्षी बन कर बहुत दुख उठाता है । ऐसा करके खुद को ठगता है और मन ही मन प्रसन्न होता है कि मैंने दूसरे को ठग लिया ।

जैन दर्शन कहता है कि मनुष्य के सभी कार्य पूर्व के पुण्य उदय से सिद्ध होते हैं मायाचारिता से नहीं । छल करने वाला मनुष्य अपनी प्रामाणिकता खो देता है । आपके व्यक्तित्व पर कोई भरोसा नहीं करता ।वर्तमान में  मायाचारिता को एक गुण समझा जा रहा है ।सरलता को वर्तमान समाज में मूर्खता कहा जाने लगा है । यह अशुभ संकेत है ।

वास्तविकता यह है कि मायाचारी व्यक्ति को पूरी दुनिया टेढ़ी दिखाई देती है , वह हमेशा सशंक और तनाव में रहता है । मन में चोर भरा हो तो पूजा ,पाठ , अभिषेक , ध्यान ,सामयिक से भी शांति नहीं मिल सकती । क्यों कि मायाचारी यह सब भी माया कषाय के वशीभूत होकर करने लगता है ।

माया के कारण हम समाज में एक मुखौटा लगा कर जी रहे हैं । रोज मुखौटे बदलते हैं । मुखौटे पहनने के इतने आदि हो गए हैं कि हमारा असली चेहरा क्या है हम वो भी भूल चुके हैं ।

सरलता आत्मा का मूल स्वभाव है और माया विभाव है । माया कषाय का जीवन में अभाव करके परम वीतरागी सरलता रूप स्वभाव प्रगट करने का सभी को प्रयास करना चाहिए ।

अंदर बाहर एक हो नर वो ही है महान् ।
तारे भव समुद्र से आर्जव धर्म महान् ।।
                                                       प्रो.डॉ.अनेकांत कुमार जैन          

चतुर्थ दिवस(अष्टमी)

उत्तम शौच
(उत्तम-स‌उचं)

स‌उचं अप्पसहावो लोहाभावे य जायइ अप्पम्मि ।
मिच्छत्तस्साभावे  जहा य सम्मत्तं हव‌इ अप्पम्मि ।।

शौच आत्मा का स्वभाव है , वह लोभ कषाय के अभाव स्वरूप आत्मा में उत्पन्न होता है जैसे मिथ्यात्व के अभाव में सम्यक्तत्व आत्मा में प्रगट होता है ।

दशलक्षण में प्रारंभ के चार धर्म क्रोध , मान, माया, लोभ -   इन चार कषायों के अभाव स्वरूप आत्मा में प्रगट होते हैं । पहले दिन क्रोध का अभाव कर क्षमा , दूसरे दिन मान का अभाव कर मार्दव तथा तीसरे दिन माया का अभाव करके आर्जव धर्म प्रगट किया । उसी क्रम में चौथे दिन लोभ कषाय का अभाव करके शौच धर्म प्रगट किया जाता है ।

शुचेर्भाव: शौचम् अर्थात् शुचिता या पवित्रता का नाम शौच है । जीवन में जैसे जैसे लोभ कम होने लगता है वैसे वैसे शुचिता प्रगट होने लगती है ।लोभ की एक बड़ी विशेषता यह है कि लोभी व्यक्ति जरूरत पड़ने पर क्रोध को दबा लेता है , मान को भी भूल जाता है और माया को भी रोक देता है ...बस काम बनना चाहिए । दृढ़ लोभी कभी लक्ष्य से हटते नहीं हैं ।

इसलिए अकेले लोभ का अभाव शौच नहीं है बल्कि क्रोध ,मान, माया, लोभ - इन चारों कषायों के अभाव का नाम पवित्रता है ।लोभ को पाप का बाप कहा गया है । क्यों कि इसके वशीभूत होकर ही मनुष्य पाप करता है ।

यह लोभ ही है जो मनुष्य पाखंड में भी धर्म मानने लगता है ।भगवती आराधना ग्रंथ में लिखा है कि लोभ करने पर भी पुण्य से रहित मनुष्य को कुछ नहीं मिलता और पुण्य वान को बिना लोभ के भी सब कुछ सहज मिल जाता है ।

लोभ के कारण हम अपनों से ही बैर कर बैठते हैं । जो धर्म हमें लोभ त्यागने की शिक्षा देता है , उस धर्म की पालना भी हम यदि किसी लौकिक लोभ के वशीभूत होकर करें तो यह कितना विसंगतिपूर्ण होगा ?यह तथ्य किस दिन समझ में आएगा कि लौकिक कामनाओं और लोभ के उद्देश्य से की गई भक्ति भी उल्टा पाप का ही बंध करती है ।

लोभ और कामना से रहित होकर हम आत्मा की आराधना करें यही पवित्रता अर्थात् शुचिता है और शौच धर्म है ।
                                                       प्रो.डॉ.अनेकांत कुमार जैन          

पंचम दिवस(नवमी)
उत्तम सत्य
(उत्तम-सच्चं) 

सच्चधम्मो  य वयणं मज्झे अत्थि भेओ जिणधम्मम्मि ।
एगो य वत्थु सहावो‌ दुवे अत्थि महव्व‌यं साहूणं ।।

जिन धर्म में उत्तम सत्य धर्म और सत्य वचन में भेद है । एक (उत्तम सत्य धर्म)तो वस्तु का स्वभाव है और दूसरा (सत्य वचन) मुनियों का महाव्रत है ।
उत्तम सत्य धर्म का वास्तविक अर्थ होता है वीतराग भाव । सत्य व्रत और सत्य धर्म में सबसे बड़ा फर्क यह है कि सत्य व्रत का संबंध वचनों तक सीमित है और सत्य धर्म सिर्फ वचनों तक सीमित नहीं है । अपने शुद्ध ज्ञान और आनंद आत्म स्वरूप की अनुभूति ही उत्तम सत्य धर्म है जो वाणी वचन आदि इन्द्रिय और पुद्गल से परे अतीन्द्रिय स्वरूप है ।
इस उत्तम सत्य धर्म की उपलब्धि उत्कृष्ट साधना करने वाले महा तपस्वी मुनिराजों को ही हो पाती है अतः हम उत्तम सत्य धर्म को वचनों की सत्यता के माध्यम से व्याख्यायित करते हैं ।
आज सत्य धर्म को स्वीकारने और उसे आदर देना भी सीखना चाहिए । विचारणीय है कि अनेक ऋषि मुनि और महापुरूषों ने परम सत्य की प्राप्ति के लिए घर संसार को छोड़ कर जंगलों में तपस्या की तो क्या ' झूठ नहीं बोलकर सत्य बोलना चाहिए ' मात्र इतने लक्ष्य के लिए की थी क्या ?सत्य बोलना यह सत्य महाव्रत या अणुव्रत है किन्तु परम सत्य स्वरूप अपनी आत्मा के वास्तविक स्वरूप की अनुभूति करना यह उत्तम सत्य धर्म है ।
व्यवहार से भी हम देखें तो जो मनुष्य मौन व्रत मात्र ले ले तो क्या वह उत्तम सत्य धर्म का धारी हो जाएगा ? क्यों कि जब वह बोल ही नहीं रहा तो झूठ और सत्य का भेद भी कहां रहा ? इसलिए हमें उत्तम सत्य धर्म को वाणी की सत्यता से परे जाकर अवश्य सोचना चाहिए ताकि हम इसका सही स्वरूप समझ सकें ।
फिर भी वाणी की सत्यता भी एक किस्म का सत्य तो है ही ।आज वास्तविकता यह है कि वस्तु के सत्य स्वरूप को हम स्वीकारते ही नहीं है । हम भ्रम में जीना पसंद करते हैं । उसमें रहने के इतने आदि हो गए हैं कि यथार्थ तत्व से सामना भी नहीं करना चाहते ।
जैन दर्शन ने एक सबसे बड़े सत्य का दर्शन यह करवाया कि जीव अपने सुख दुख का कर्ता भोक्ता स्वयं है कोई और ईश्वर इस कार्य को नहीं करता है ।किन्तु इस वास्तविक तथ्य से अनजान हम किसी चमत्कार की आशा में इन्हीं वीतराग स्वरूप परमात्मा की भोगों की लालसा के निमित्त भक्ति करते हैं ।अपने आत्मकल्याण का पुरुषार्थ छोड़कर मिथ्या देव, शास्त्र और गुरु के चक्कर में पड़कर अपना मनुष्य भव खराब करते हैं ।सबसे बड़ा सत्य यह है कि हम सत्य का सामना ही नहीं करना चाहते हैं । अपने पुराने मिथ्या भ्रमों को बरकरार रख कर चमत्कार को नमस्कार किए जा रहे हैं । मिथ्या मान्यताओं के नए नए रिकॉर्ड बना रहे हैं । सत्य धर्म का उद्घाटन करने वाले धर्म को भी अनेक क्रिया कांडों में उलझा कर उसके स्वरूप पर पर्दा डाल दिया है ।
उत्तम सत्य धर्म समझने की सबसे पहली शर्त यह है कि वह हमें स्वीकार तो हो , उसकी वास्तविकता का सामना करने का हमारे पास साहस तो हो । यह योग्यता हो तो हम उसे एक दिन प्राप्त भी कर सकते हैं ।
हम चाहें तो अपने जीवन में ग्रहण किए गए विपरीत अभिनिवेश अर्थात् गृहीत मिथ्यात्व को दृढ़ता पूर्वक त्याग कर हम भी उत्तम सत्य धर्म की उपासना कर सकते हैं ।
                                                       प्रो.डॉ.अनेकांत कुमार जैन          














षष्ठ दिवस(दशमी)

उत्तम संयम
(उत्तम-संजमो)

संजमणमेव संजम जो सो खलु हवइ समत्ताणुभाइ ।
णिच्छयेण णियाणुभव ववहारेण पचेंदियणिरोहो ।।

संयमन ही संयम है जो निश्चित ही सम्यक्त्व का अनुभावी होता है । निश्चयनय से निजानुभव और व्यवहार से पंचेन्द्रिय निरोध संयम कहलाता है ।
संयमन को संयम कहते हैं । आचार्य वीरसेन कहते हैं उत्तम संयम वही है जो  सम्यक्त्व का अविनाभावी हो अर्थात् बिना सम्यग्दर्शन के‌ संयम मोक्ष का कारण नहीं बनता है ।आध्यात्मिक दृष्टि से अपने उपयोग को समस्त पर पदार्थों से समेट कर आत्म सन्मुख करना ,अपने में सीमित करना ,अपने आत्मा में लगाना अर्थात् चित्त की सन्मुखता ,स्वलीनता ही निश्चय संयम है ।व्यवहार से पांच इंद्रियों के विषय भोगों को नियंत्रित करना इन्द्रिय संयम और एक इन्द्रिय से लेकर पांच इन्द्रिय तक के जीवों की रक्षा में तत्पर और जागरूक रहना प्राणी संयम है ।
संयम के बिना हमारा जीवन बिना ब्रेक की कार की तरह है । कार में ब्रेक हो तो कार अन्यथा बेकार । उसी प्रकार जिसके जीवन में जरा सा भी संयम नहीं है उसका जीवन भी बेकार । सभी जन्मों में मनुष्य जन्म ही ऐसा जन्म है जिसमें संयम धारण करने की सामर्थ्य है ।इसलिए हमें मनुष्य भव का उपयोग संयम धारण कर के कर लेना चाहिए  ।
आजकल पर्यावरण की दृष्टि से , सामाजिक दृष्टि से ,राष्ट्र की दृष्टि से भी अनेक प्रकार के संयम रखने की अपील की जाती है । उन्मुक्त भोग एक बहुत बड़ी समस्या है । यह एक ऐसा रोग है जो सब कुछ तबाह कर देता है । संयम एक प्रकार का आत्मानुशासन है । लोग दूसरों पर शासन करना चाहते हैं ,लेकिन खुद अनुशासित नहीं हो पाते हैं । अच्छा शासन भी वही कर सकता है जो निज पर शासन करना जनता हो । हमें ईमानदारी से विचार करना है कि हम इन्द्रियों के दास हैं या इन्द्रियां हमारी दास हैं ?
इन्द्रियां जो डिमांड करें उसे हम पूरा करते रहेंगे तो बीमार हो जायेंगे , बर्बाद हो जाएंगे । जिस दिन हम अपनी ही इन्द्रियों के मालिक बन जाएंगे उस दिन जितेंद्रिय हो जाएंगे । इन्द्रियां कहेंगी फिल्म देखने चलो , आप दृढ़ता से कहोगे नहीं , आप उसे सख्त आदेश देंगे  भगवान् के दर्शन करने जाना है । आपका आदेश स्वीकार करके वे प्रभु दर्शन को जाएंगी । इसी प्रकार प्रत्येक इन्द्रिय आपके आदेश का पालन करेगी ।
इन्द्रिय कहेगी कि मद्य मांस आदि अभक्ष्य  पदार्थ में स्वाद है उसे खाओ ।आप कहोगे मैं मात्र अपने स्वाद और पेट भरने के लिए किन्हीं भी प्राणी का वध नहीं  कर सकता ।
यह संयम है , यह धर्म है । जीवन का उत्कर्ष संयम से ही आरंभ होता है ।
अपनी शक्ति को छुपाए बिना , अपनी शक्ति के अनुसार यदि हम छोटा से छोटा नियम भी लें और उसे दृढ़ता पूर्वक पालें तो हमारे जीवन में जो आत्म विश्वास पैदा होगा वह अद्वितीय होगा । एक छोटा सा नियम भी बीज के समान होता है जो एक दिन बड़ा वृक्ष बन जाता । एक छोटे से संयम की शुरुआत हमें अपनी ही विस्मृत आत्मा से मुलाकात करवा सकती है , अपने मूल ज्ञायक सत चित आनंद स्वरूप आत्मा की अनुभूति करवा सकती है  क्यों कि इन्द्रियों से परे अतिंद्रिय निज आत्मा की अनुभूति ही उत्तम संयम धर्म है ।

लक्ष्य हैं मेरे अटल तो , मंजिलें निश्चित मिलेंगी ।
बो दिया है बीज तो फिर ,क्यारियां निश्चित खिलेंगी ।।

                                              प्रो.डॉ.अनेकांत कुमार जैन          
















सप्तम दिवस(एकादशी)

उत्तम तप
(उत्तम-तवो)

इच्‍छाणिरोहो तवो कम्मखवट्ठं सगरूपायरणं ।
णियबहि वारसभेयं तेसु झाणं परमतवोद्दिट्ठो ।।

इच्छा का निरोध तप है , कर्म क्षय के लिए अपने स्वरूप में रमण करना तप है ।तप अन्तरंग और बहिरंग के भेद से बारह प्रकार का होता है उनमें भी ध्यान को परम तप कहा गया है ।
इच्छा के निरोध को तप कहते हैं । आध्यात्मिक दृष्टि से समस्त राग और द्वेष के त्याग पूर्वक अपने शुद्ध आत्म स्वभाव में लीन होना उत्तम तप है । व्यावहारिक दृष्टि से अनशन व्रतादि तप हैं ।जैन दर्शन में तप और तपस्या को बहुत महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है । भोगवादी दृष्टिकोण वाले मनुष्य हमेशा दुखी ही रहते हैं । इसके विपरीत जो जीवन में स्वयं ही तप को अपनाता है उसे कौन दुखी कर सकता है ?
अपनी इच्छाओं को वश में रखना ही सबसे बड़ा तप है । जैन दर्शन कहता है इच्छाएं आज तक कभी भी किसी की पूरी नहीं हुई ।जब तक हम इच्छाओं के दास हैं तब तक पूर्णता को प्राप्त नहीं कर सकते ।स्वर्ग के देवों के पास तप करने की शक्ति नहीं है , वे चाह कर भी तप को धारण नहीं कर पाते हैं । मनुष्य तप पूर्वक कर्मों के बज्र शिखर भी नष्ट कर देता है ।
स्वाध्याय और ध्यान को उत्कृष्ट तप कहा गया है । ज्ञान और ध्यान के बिना मुक्ति संभव ही नहीं है ।जैन आचार्यों ने अज्ञानी के तप को बाल तप की संज्ञा दी है । आचार्य कुंदकुंद ने तो यहां तक कहा है कि कोई मनुष्य सम्यक्तव से रहित होकर करोड़ों वर्षों तक भी बहुत उग्र तप करे तो भी वह बोधि को प्राप्त नहीं कर पाता है ।
जिस प्रकार अग्नि में तप कर सोने के सभी दोष नष्ट हो जाते हैं उसी प्रकार तपस्या से आत्मा के सभी कर्मों का नाश हो जाता है और वह अपने शुद्ध स्वरूप का अनुभव करने लगती है ।जैन दर्शन के अनुसार दूसरों के द्वारा किया गया तप खुद को जरा सा भी लाभ नहीं पहुंचाता है । जिसे कर्मों को नाश करके अतीन्द्रिय आत्म सुख को प्राप्त करना है उसे स्वयं ही तप करना पड़ेगा । उसमें भगवान् भी केवल मार्ग बतलाते हैं , चलना आपको स्वयं ही पड़ेगा ।
जैन संस्कृति को श्रमण संस्कृति इसीलिए कहा गया क्यों कि यहां श्रम अर्थात् पुरुषार्थ अर्थात् स्वयं की गई तपस्या को ही कार्यकारी माना गया है ।
जैन दृष्टि से भगवान् आपको मोक्ष का सिर्फ रास्ता दिखाते हैं आपको मोक्ष दिला नहीं सकते । उसके लिए स्वयं ही उग्र पुरुषार्थ करना पड़ेगा । इसीलिए जैन परंपरा में उपवास आदि का महत्व बहुत ज्यादा है और इसकी विधि भी बहुत शुद्ध , प्रामाणिक और कठिन है ।
                                                      प्रो.डॉ.अनेकांत कुमार जैन          























अष्टम दिवस(द्वादशी)

उत्तम त्याग
(उत्तम-चागं)

सगवत्थुणं य दाणं चागपरदव्वेसु रागाभावो ।
णाणचागं ण होदि य भेयणाणं अत्थि पच्चक्खाणं ।।

स्व वस्तुओं का दान होता है और पर वस्तुओं में रागद्वेष का अभाव त्याग है । निश्चित ही ज्ञान का त्याग नहीं होता है (जबकि दान होता है ) और वास्तव में पर द्रव्यों से भेदज्ञान होना ही प्रत्यख्यान(त्याग) है ।  
जो मनुष्य सम्पूर्ण पर द्रव्यों से मोह छोड़कर संसार , देह और भोगों से उदासीन रूप परिणाम रखता है उसके उत्तम त्याग धर्म होता है ।सच्चा त्याग तब होता है जब मनुष्य पर द्रव्यों के प्रति होने वाले मोह , राग ,द्वेष को छोड़ देता है ।
शास्त्रों में प्रेरणा के लिए व्यवहार से दान को ही त्याग कहा गया है । किन्तु त्याग और दान में सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण अंतर यह है कि त्याग हमेशा बुराई का किया जाता है और दान हमेशा उत्कृष्ट पदार्थ का किया जाता है ।राग ,द्वेष,  मिथ्यात्व और अज्ञान का त्याग तो हो सकता है , दान नहीं ।इसी प्रकार ज्ञान का दान हो सकता है , त्याग नहीं ।दान हमेशा स्व और पर के उपकार के लिए किया जाता है ।पैसे का त्याग पूर्वक दान होता है । अगर हम उसे त्यजेंगे नहीं तो देगें कैसे ?
वर्तमान में धर्म के क्षेत्र में भी धन का महत्व ज्यादा है इसलिए त्याग धर्म को दान धर्म के रूप में ही समझा और समझाया जाता है ।
जैन शास्त्रों में भी दान के चार प्रकार ही वर्णित हैं -
१. आहार दान
२. औषधि दान
३. ज्ञान दान
४. अभय दान
इसमें भी धन दान का कहीं कोई जिक्र नहीं है किन्तु उक्त में से तीन की व्यवस्था धन के माध्यम से ही होती है अतः आज धन का दान ही दान समझा जाने लगा है ।धन के दान में सबसे बड़ी समस्या उसके दुरुपयोग की है । जैसे किसी भूखे ने भोजन मांगा तो हमने उसे भोजन के स्थान पर कुछ रुपयों का दान कर दिया । उन रुपयों से यदि उसने शराब मांस आदि का सेवन कर लिया तो दोष दाता को भी लगेगा । इसलिए पात्र व्यक्ति को उपकरण ,भोजन आदि का साक्षात् दान देना श्रेष्ठ है । यदि कोई इलाज के लिए पैसे मांगे तो खुद दवाई खरीद कर देना और उसका इलाज कराना श्रेष्ठ है ।
सच्चे मोक्षमार्गी को जो दान दिया जाता है वह मोक्ष का कारण बनता है ।आज दान के नए रूपों की भी आवश्यकता है जैसे श्रम दान , समय दान आदि । आज लोग धार्मिक कार्य के लिए  पैसा जितना चाहे देने को तैयार हैं किन्तु समय और श्रम देना बहुत मुश्किल हो रहा है । इसलिए भलाई के काम में जो धन नहीं दे पा रहा है किन्तु समय दे रहा है और ईमानदारी से श्रम कर रहा है वह भी उस पुण्य का उतना ही हकदार है जितना धन देने वाला ।
जगत में धन की तीन ही गतियां मानी गईं हैं - दान , भोग और नाश । यदि आपने मेहनत और ईमानदारी से कमाए धन का दान या भोग नहीं किया तो अंत में उसका नाश ही होता है ।
भ्रष्टाचार , बेईमानी और पाप से संचित धन को यदि धर्म के कार्य में लगाया जाता है तो उसके भी दुष्परिणाम धर्म की हानि के रूप में हम साक्षात् देखते हैं ।इसलिए जैन शास्त्रों में साधन शुद्धि पर बहुत बल दिया गया । साधन शुद्ध होंगे तो साध्य भी शुद्ध होंगे ।
दान करने की भावना नहीं होना भी बहुत आसक्ति का सूचक है । दान करने वाला सर्वप्रथम उक्त पदार्थ या धन के प्रति आसक्ति का त्याग करता है । इसलिए  आम जन को समझाने के लिए त्याग को दान कह दिया जाता है । इस प्रकरण में कारण में कार्य का उपचार करके कथन किया गया है ।
हमें स्वयं तो दान देना ही चाहिए अपने बच्चों को भी धर्म स्थल के गुल्लकों में रोज कुछ दान करने का अभ्यास करवाना चाहिए । उनके यह संस्कार उनके धर्म की वृद्धि में सहायक बनेंगे ।
गृहस्थ के छह आवश्यक कार्यों में दान प्रतिदिन का कर्तव्य कहा गया है । अतः यथा शक्ति बिना किसी विज्ञापन की लालसा के मेहनत और ईमानदारी का धन आदि उचित पदार्थ थोड़ा बहुत भी जो मनुष्य पात्र जीव को दान करता है वह इस लोक में भी यश प्राप्त करता है और उसका पर लोक भी उत्कृष्ट बनता है ।

चागाणन्दो य जत्थ ,तत्थ विवाओ ण हवइ परिवारे ।
जो सहइ सो खलु रहइ ,लोही य असहणसीला ण रहंति ।।

त्याग में आनंद मानने वाला (त्यागानंद नामक व्यक्ति) जिस घर में रहता है उस परिवार में कभी विवाद नहीं होता । (परिवार में एक साथ रहने का नियम है कि) जो सहता है वह रहता है ।लोभी और असहनशील व्यक्ति परिवार में एक साथ नहीं रहते ।
                                                      प्रो.डॉ.अनेकांत कुमार जैन          




नवम् दिवस(त्रियोदशी)

उत्तम आकिंचन्य
(उत्तमाकिंचण्‍हं)

ण किंचिवि मम भावणा उत्तमाकिंयण्‍हं य जिणोत्तं ।
अंतबहिगंथचागो अणासत्तो हवइ अप्पासयेण ।।

इस जगत में चेतन और अचेतन परिग्रह कुछ भी मेरा नहीं है ,और इस तरह की भावना ही उत्तम आकिंचन्य धर्म है –ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है ।अन्तरंग और बहिरंग परिग्रहों का त्याग और उनके प्रति अनासक्ति आत्मा के आश्रय से उत्पन्न होती है ।

उत्तम आकिंचन्य

' यह मेरा है ' इस प्रकार के अभिप्राय का त्याग करना आकिंचन्य है । जिसका कुछ नहीं  है वह आकिंचन्य है । आध्यात्मिक दृष्टि से समस्त पर पदार्थ और पर के लक्ष्य से आत्मा में उत्पन्न होने वाले मोह राग द्वेष के भाव आत्मा के नहीं हैं - इस प्रकार जानकर और मानकर अपनी शुद्ध आत्मा के आश्रय से मोह राग द्वेष छोड़ना ही उत्तम आकिंचन्य धर्म है ।
व्यवहार से सभी प्रकार के अंतरंग और बहिरंग परिग्रहों का त्याग करना आकिंचन्य धर्म है ।शास्त्रों में मूर्छा अर्थात् आसक्ति को परिग्रह कहा गया है । अल्प परिग्रह का धारी जीव ही मनुष्य जन्म को प्राप्त कर पाता है ।
अंतरंग में मिथ्यात्व (मिथ्या दृष्टिकोण ) सबसे बड़ा परिग्रह है और अन्य सभी परिग्रहों का यह सबसे बड़ा कारण है ।आचार्य कुंदकुंद कहते हैं कि बाह्य परिग्रहों का त्याग भावों की विशुद्धि के लिए किया जाता है इसलिए मिथ्या भाव ,राग द्वेष के त्याग के बिना मात्र बाह्य परिग्रह का त्याग निष्फल हो जाता है ।
अधिक परिग्रह दुख का सबसे बड़ा कारण है । आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह हमें परेशानी में डाल देता है । हम उसमें ही उलझे रहते हैं , अपनी शुद्धात्मा का ध्यान ही नहीं कर पाते हैं ।किसी कवि ने ठीक ही कहा है
आगाह अपनी मौत से कोई वशर नहीं ।
सामान सौ बरस का पल की खबर नहीं ।।

हम जरूरत से ज्यादा बेजान वस्तुओं और मशीनों से घिरे हुए एक ऐसे चेतन हो गए हैं जो अपने स्वभाव और आनंद को भूल कर इन्हीं अचेतन पदार्थों में ही सुख खोज रहा है । इस प्रतियोगिता में हमने अपने अन्य चेतन साथियों को भी भुला दिया है जो ज्ञान और दर्शन की प्रेरणा देते हैं ।
पैसा और अन्य बेजान सुविधा प्रदान करने वाली वस्तुएं हमें उपयोग करने के लिए मिली थीं लेकिन हम उनसे प्रेम करने लगे हैं । अन्य चेतन साथी हमें प्रेम और सद्भाव के लिए मिले ,लेकिन हम उनका उपयोग करने लगे हैं ।
अचेतन से प्रेम और चेतन का उपयोग आज के युग की सबसे बड़ी विडम्बना बन गया है । पैसे जैसे अचेतन पदार्थ के लिए किसी जीव को दुःख पहुंचाना,  उसे परेशान करना अब हमें अनैतिक नहीं लगता है ।
यह तो साफ है कि जिस वस्तु के प्रति हमारी जितनी ज्यादा आसक्ति रहेगी उसके वियोग में उतना ही ज्यादा दुख होगा । अतः दुख कम करने का सबसे आसान तरीका यह है कि आसक्ति खत्म नहीं कर सकते तो सीमित अवश्य की जाए ।
इसका प्रबंधन इस प्रकार किया जा सकता है कि प्रथम वस्तुएं उतनी ही रखी जाएं जितनी उपयोगी हों और अनावश्यक वस्तुओं को  या तो जरूरतमंदों को दान दे दिया जाय या छोड़ दिया जाय ।जिन अचेतन वस्तुओं का परिग्रह है उनसे ज्यादा मोह न रखा जाय । उन पर *यूज एंड थ्रो* की मान्यता रखी जाए ।
जो पति,पत्नी, बच्चे , नौकर आदि चेतन परिग्रह हैं उनसे भी ज्यादा आसक्ति न रख कर मात्र अनासक्त प्रेम भाव रखकर यथा शक्ति अपने कर्त्तव्य की ईमानदारी से पूर्ति की जाय ।ये जीवन जीने की कला है । अपने आनंदस्वरुप शुद्ध स्वभाव को विस्मृत करके यदि हम सदैव पर भावों में रहेंगे तो आकिंचन्य उत्पन्न ही नहीं होगा ।
जगत का क्षणभंगुर स्वरूप समझकर ,अनित्य भावना पूर्वक हम संसार में निर्वहन करेंगे तो आसक्ति विकसित ही नहीं होगी और हम आकिंचन्य बने रहेंगे ।

                                                   प्रो.डॉ.अनेकांत कुमार जैन          









दशम् दिवस( अनंत चतुर्दशी)

उत्तम ब्रह्मचर्य
(उत्तमबंभचरियं)

बंभणि चरणं बंभं जीवो विमुक्कपरदेहतित्तिस्स  ।
विवरीयलिंगेसु खलु आसत्ति कारणं च भवदुक्खस्स ।।

यह जीव जब परदेह की सेवा से रहित होकर अपनी शुद्ध आत्मा में रमण करता है तब उसे ब्रह्मचर्य कहा जाता है । निश्चित रूप से विपरीत लिंग में आसक्ति ही भव दुःख का मूलकारण  है ।
पर द्रव्यों से नितांत भिन्न  शुद्ध बुद्ध अपने आत्मा अर्थात् ब्रह्म में लीनता ही उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म है ।ब्रह्मचर्य व्रत को सभी व्रतों में श्रेष्ठ व्रत कहा गया है । मुनि इसे महाव्रत के रूप में तथा गृहस्थ इसे अणुव्रत के रूप में पालते हैं ।
इन्द्रियों के विषयों का सेवन करते रहने से अपने अतीन्द्रिय आत्म स्वरूप का अनुभव नहीं हो पाता है । इन्द्रिय विषयों में आसक्ति अब्रह्मचर्या है ।दो में से एक कार्य ही संभव है या तो इन्द्रिय भोग या ब्रह्मलीनता । जो पांच इंद्रियों में लीन है वह आत्मा में लीन नहीं है जो आत्मा में लीन है वह पांच इंद्रियों में लीन नहीं है । हम यह कह सकते हैं कि पंचेंद्रिय विषयों से निवृत्ति नास्ति से और आत्मलीनता अस्ति से ब्रह्मचर्य धर्म की परिभाषा है ।
मुख्य रूप से स्पर्श इन्द्रिय के विषयों में स्वयं को संयमित रखने को ब्रह्मचर्य इसलिए कहा जाता है क्यों कि यह इन्द्रिय सबसे व्यापक है और शेष चार इन्द्रियां भी  किसी न किसी रूप में इससे संबंधित हैं ।
व्यवहार से गृहस्थ जीवन में धर्म एवं समाज द्वारा स्वीकृत,विवाह संस्कार द्वारा प्राप्त जीवन साथी के साथ संतोष रखना तथा अन्य समस्त व्यभिचारी प्रवृत्तियों से दूर रहना ब्रह्मचर्य अणुव्रत है ।
शास्त्रों में शील की रक्षा का बहुत वर्णन किया गया है । स्त्री पुरुष दोनों को ही शील की मर्यादा का पालन करते हुए धर्म मार्ग में सदैव तत्पर रहना चाहिए ।
वर्तमान समाज में शील और मर्यादा को पिछड़ा पन समझा जा रहा है , उन सभी निमित्त को स्वीकृति प्राप्त हो रही है जो मान मर्यादा भंग करने में तत्पर रहते हैं ।
शील की मर्यादा के अभाव में परिवार टूट रहे हैं , अविश्वास का वातावरण समाज को खंडित कर रहा है ।ऐसे संसाधन सहज उपलब्ध हैं जो बाल मन में भी कामुकता का बीज वपन कर रहे हैं । सारा संसार कामुकता को पुरुषार्थ समझ रहा है । असंयमित और उन्मुक्त भोग ही एक मात्र लक्ष्य माना जा रहा है । पवित्र समझे जाने वाले कुछ अनैतिक धार्मिक साधु भी जब इस कलंक से वंचित नहीं हैं तब सामान्य गृहस्थों की तो बात ही क्या ?
हम इसके दुष्परिणाम भी भोग रहे हैं लेकिन चेत नहीं रहे हैं ।ऐसे विकट समय में ब्रह्मचर्य की  शास्त्र सम्मत किन्तु वर्तमान समय के अनुकूल व्यावहारिक परिभाषा की आवश्यकता है । यह समझने की आवश्यकता है कि बिना आत्मलीनता के बाह्य ब्रह्मचर्य भी कोरा व्रत मात्र है जिसका कोई आध्यात्मिक धरातल नहीं है , मात्र वासनाओं को दबाना बड़ा विस्फोटक हो जाता है ।
वासना का अभाव ही उत्तम ब्रह्मचर्य की परिधि में आता है । वासना की संतुलित और संयमित परिणति अणुव्रत के अन्तर्गत आती है ।वासनाओं को दबाना और वासनाओं से दबना दोनों ही असहज अवस्था है ।
ब्रह्मचर्य एक धर्म है , वह दिखावा या सम्मान का लालसी नहीं है  । वह एक ऐसी आत्मिक अतिंद्रिय अनुभूति है जहां इन्द्रिय सुख की समस्त अनुभूतियां स्वतः ही तुच्छ लगने लगती हैं ।

                                                  प्रो.डॉ.अनेकांत कुमार जैन          














क्षमावाणी पर्व 

क्षमापव्वं जीवखमयंति सव्वे खमादियसे च याचइ सव्वेहिं ।
‘मिच्छा मे दुक्कडं ' च बोल्लइ वेरं मज्झं ण केण वि ।।

क्षमा दिवस पर जीव सभी जीवों को क्षमा करते हैं सबसे क्षमा याचना करते हैं और कहते हैं मेरे दुष्कृत्य मिथ्या हों तथा मेरा किसी से भी बैर नहीं है 
        जैन परंपरा में पर्युषण दशलक्षण महापर्व के ठीक एक दिन बाद एक महत्वपूर्ण पर्व मनाया जाता है वह है- क्षमा पर्व ।इस दिन श्रावक(गृहस्थ)और साधू दोनों ही  वार्षिक प्रतिक्रमण करते हैं ।पूरे वर्ष में उन्होंने  जाने या अनजाने यदि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के किसी भी सूक्ष्म से सूक्ष्म जीव के प्रति यदि कोई भी अपराध किया हो तो उसके लिए वह उनसे क्षमा याचना करता है ।अपने दोषों की निंदा करता है और कहता है-  ‘ मिच्छा मे दुक्कडं ' अर्थात् मेरे सभी दुष्कृत्य मिथ्या हो जाएँ । वह प्रायश्चित भी  करते  हैं ।इस प्रकार वह क्षमा के माध्यम से अपनी आत्मा से सभी पापों को दूर करके ,उनका प्रक्षालन करके सुख और शांति का अनुभव करते हैं  । श्रावक प्रतिक्रमण में  प्राकृत भाषा में एक गाथा है-
'खम्मामि सव्वजीवाणं सव्वे जीवा खमंतु मे ।
मित्ती मे सव्वभूदेसु, वेरं मज्झं ण केण वि ।'

अर्थात मैं सभी जीवों को क्षमा करता हूं सभी जीव मुझे क्षमा करें। मेरा प्रत्येक वाणी के प्रति मैत्री भाव है, किसी के प्रति वैर भाव नहीं है।
          क्षमा आत्मा का स्वभाव है,किन्तु हम हमेशा क्रोध को स्वभाव मान कर उसकी स्वीकारोक्ति और अनिवार्यता पर बल देते आये हैं ।क्रोध को यदि स्वभाव कहेंगे तो वह आवश्यक हो जायेगा ।इसीलिए क्रोध को विभाव कहा गया है स्वभाव नहीं ।क्षमा शब्द क्षम से बना है जिससे क्षमता भी बनता है ।क्षमता का मतलब होता है सामर्थ्य और क्षमा का मतलब है किसी की गलती या अपराध का प्रतिकार नहीं करना ,सहन करने प्रवृत्ति यानि माफ़ी क्योंकि क्षमा का अर्थ सहनशीलता भी है ।क्षमा कर देना बहुत बड़ी क्षमता का परिचायक है ।इसीलिए नीति में कहा गया है –‘क्षमावीरस्य भूषणं’ अर्थात क्षमा वीरों का आभूषण है ।
         लोग सहन करने को कमजोरी समझते हैं लेकिन आध्यात्मिक अर्थों में सहनशीलता एक विशेष गुण है जो कमजोर लोगों में पाया ही नहीं जाता ।भौतिक विज्ञान का एक प्रसिद्ध नियम है कि हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है ।अध्यात्म विज्ञान में प्रतिक्रिया कुछ है ही नहीं ,सिर्फ क्रिया है ।क्षमा क्रिया है ,क्रोध प्रतिक्रिया है ।हम अक्सर प्रतिक्रिया में जीते हैं ।क्रिया को भूल जाते हैं। क्रिया धर्म है और प्रतिक्रिया अधर्म है ।हम प्रतिक्रियावादी इसलिए हैं क्योंकि हम सहनशील नहीं हैं ।
       बहुत महत्वपूर्ण शब्द है ‘सहन’।एक बार सुनने में ऐसा लगता है जैसे हमें कोई डरने को कह रहा है या दब कर चलने को कह रहा है ।किन्तु बात वैसी है नहीं जैसा हम समझ रहे है ।बातचीत में हम अक्सर पूछा करते हैं कि उनका रहन-सहन कैसा है ? खासकर विवाह हेतु लड़का या लड़की देखते समय यह जरूर पूछा जाता है ।आमजन रहन-सहन का अर्थ करते हैं सिर्फ आर्थिक स्तर,स्टैण्डर्ड यानि कि वो कितना महंगा पहनते हैं,कितना महंगा खाते हैं ,कितने बड़े मकान या कोठी में रहते हैं।आपके घर में बेजान वस्तुओं का कितना भंडार है ?यह अर्थ हमारी भोग प्रधान दृष्टि ने निकाला है ।
हम विचार करें कि रहन के साथ सहन शब्द भी है ।विवाह योग्य लड़की के लिए दोनों चीजें देखना जरूरी हैं कि लड़के वाले कैसे रहते हैं और कैसे सहते हैं ,रहन के साथ-साथ उनके सहन का स्तर भी यदि नाप लिया जाये तो कभी धोखे में नहीं रहेंगे ।परिवार ,समाज और राष्ट्र की पूरी व्यवस्था और समन्वय इसी आधार पर टिका है ।परिवार टूटा –इसका अर्थ है सह नहीं पाए ,किसी सदस्य की सहनशीलता कमजोर हो गयी ।दूसरी असहनशीलता अन्य सदस्यों की कि वे एक की असहनशीलता को सह नहीं पाए।इसके पीछे स्नेह भाव छुपा हुआ है ।हम जिसके प्रति प्रेम करते हैं उसकी हर गुस्ताखी को सह जाते हैं और जब प्रेम नहीं होता तो छोटी सी बात भी सहन नहीं होती । रहन-सहन में से अंत का न हटा दें तो बचेगा रह-सह और इसे पलट दें तो हो जायेगा ‘सह-रह’ और इस सूत्र का अर्थ होगा कि जो सहे सो रहे और जो न सहे सो न रहे ।सहनशीलता सह-अस्तित्व की सूचक है जो बिना क्षमा के ,क्षमता के कथमपि संभव नहीं है ।
दश धर्मों की आध्यात्मिक और व्यावहारिक दोनों दृष्टि से आराधना करने के अनंतर आत्मा समस्त बुराइयों को दूर करके परम पवित्र और शुद्ध स्वरूप प्रगट कर लेती है तब मनुष्य अंदर से इतना भीग जाता है कि उसे अपने पूर्व कृत अपराधों का बोध होने लगता है । अपनी भूलें एक एक कर याद आने लगती हैं । लेकिन अब वह कर क्या सकता है ? काल के पूर्व में जाकर उनका संशोधन करना तो अब उसके वश में नहीं है । अब इन अपराधों का बोझ लेकर वह जी भी तो नहीं सकता । जो हुआ सो हुआ - लेकिन अब क्या करें ? कैसे अपने अपराधों की पुरानी स्मृतियां मिटा सकूं जो मेरी वर्तमान शांति में खलल डालती हैं ।
ऐसी स्थिति में तीर्थंकर भगवान् महावीर ने एक सुंदर आध्यात्मिक समाधान बतलाया - "पडिक्कमणं " (प्रतिक्रमण)  अर्थात् जो पूर्व में तुमने अपनी मर्यादा का अतिक्रमण किया था उसकी स्वयं आलोचना करो और वापस अपने स्वभाव में आ जाओ । यह कार्य तुम स्वयं ही कर सकते हो , कोई दूसरा नहीं ।
प्रतिक्रमण करके तुम अपनी ही अदालत में स्वयं बरी हो सकते हो  तुम उन अपराधों को दुबारा नहीं करोगे ऐसा नियम लोगे तो वह " पचक्खाण " अर्थात्  प्रत्याख्यान हो जाएगा । प्रत्याख्यान शब्द का अर्थ है ज्ञान पूर्वक त्याग । जो जाने अनजाने किया उसका प्रतिक्रमण और आगे से नहीं करेंगे उसका प्रत्याख्यान ।भगवान् महावीर ने प्रायश्चित करने को आत्म शुद्धि का सबसे बड़ा कारण कहा ।
अनंत चतुर्दशी के एक दिन बाद एकम को क्षमावाणी पर्व इसीलिए मनाया जाता है कि हम सबसे पहले अपने प्रति अन्य से हुए अपराधों के लिए उन्हें क्षमा का दान करके भार मुक्त हो जाएं और फिर उनके प्रति अपने द्वारा किए गए अपराधों की क्षमा याचना करके स्वयं भी शुद्ध हो जाएं और अन्य को भी भार मुक्त होने का अवसर प्रदान करें ।
अव्वल तो किसी से बैर धारण करना ही नहीं चाहिए और यदि हो गया है तो उसे ज्यादा दिन संभाल कर नहीं रखना चाहिए । ये बैर एक ऐसा वायरस है जो आपकी आत्मा के सारे सॉफ्टवेयर और सिस्टम को करप्ट कर देगा । इसलिए क्षमा का एंटीवायरस अपने भीतर हमेशा इंस्टॉल रखें और बीच बीच में बैर का वायरस रिमूव करते रहें ।
एंटीवायरस एक साल की वैलिडिटी के आते हैं इसलिए दशलक्षण पर्व के एक दिन बाद क्षमावाणी पर्व उसका नया वर्जन अपडेट करने के लिए मिलता है ।
हमें जिनसे क्षमा याचना करनी है उनसे कहेंगे नहीं तो उन्हें पता कैसे चलेगा कि हम क्षमा मांग रहे हैं अतः हार्डवेयर की भी जरूरत है इसलिए" वाणी" शब्द का प्रयोग किया गया है ।
' क्षमा वाणी ' - उत्तम क्षमा का व्यावहारिक रूप है । वचनों से अपने मन की बात को कह कर जिनसे बोलचाल बन्द है उनसे भी क्षमा याचना करके बोलचाल प्रारंभ करना अनंत कषाय को मिटाने का सर्वोत्तम साधन है ।
संवाद हीनता जितना बैर को बढ़ाती है उतना कोई और नहीं । अतः चाहे कुछ भी हो जाए संवाद का मार्ग कभी भी बंद न होने दें । संवाद बचा रहेगा तो सभी संभावनाएं जीवित रहेंगी ।सिर्फ सोशल मीडिया पर मैसेज न करें । अपनी वाणी से साक्षात् या फोन करके कहें - यह क्षमावाणी होगी अन्यथा इसका नाम बदल जाएगा और ' क्षमा मेसेज पर्व ' कहना पड़ेगा ।
और सिर्फ कोरा कहें ही नहीं बल्कि हृदय से मांगें तभी क्षमा दाता को पानी पानी कर पाएंगे और उस क्षमा नीर में स्वयं भी भीग पाएंगे ।
क्षमा क्षमा सब कोई कहें , क्षमा करे नहीं कोय ।
   क्षमा कर दिया जाय तो , भव भव भ्रमण न होय ।।
हम लोग वर्ष में अनेक दिवस मनाते हैं जैसे विश्व अहिंसा दिवस ,विश्व योग दिवस आदि उसी प्रकार हम सभी मनुष्यों को विश्व क्षमा दिवस भी अवश्य मनाना चाहिए ।
                                               प्रो.डॉ.अनेकांत कुमार जैन          




टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

वर्तमान में बढ़ते मंदिर और मूर्तियों का औचित्य

                                                              वर्तमान में बढ़ते मंदिर और मूर्तियों का औचित्य                                                                        प्रो अनेकांत कुमार जैन ,नई दिल्ली जैन परंपरा में मंदिर और मूर्ति निर्माण का इतिहास बहुत पुराना है | खारवेल के हाथी गुम्फा अभिलेख में कलिंग जिन की मूर्ति वापस लाने का उल्लेख है | वर्तमान में सबसे प्राचीन जैन मूर्ति पटना के लोहनीपुर स्थान से प्राप्त हुई है। यह मूर्ति मौर्यकाल   की है और पटना म्यूजियम में रखी हुई है। इसकी चमकदार पालिस अभी तक भी ज्यों की त्यों बनी है। लाहौर , मथुरा , लखनऊ , प्रयाग आदि के म्यूजियमों में भी अनेक जैन मूर्तियाँ मौजूद हैं। इनमें से कुछ गुप्तकालीन हैं। श्री वासुदेव उपाध्याय ने लिखा है कि मथुरा में २४वें तीर्थंकर वर्धमान महावीर की एक मूर्ति मिली है जो कुमारगुप्त के समय में तैयार की गई थी। वास्तव में मथुरा में जैनमूर्ति कला की दृष्टि से भी बहुत काम हुआ है। श्री रायकृष्णदास ने लिखा है कि मथुरा की शुंगकालीन कला मुख्यत: जैन सम्प्रदाय की है। खण्डगिरि और उदयगिरि में ई. पू. १८८-३० तब क

आचार्य फूलचन्द्र जैन प्रेमी : व्यक्तित्व और कर्तृत्त्व

 आचार्य फूलचन्द्र जैन प्रेमी  : व्यक्तित्व और कर्तृत्त्व   (जन्मदिन के 75 वर्ष पूर्ण करने पर हीरक जयंती वर्ष पर विशेष ) #jainism #jainphilosophy #Jainscholar #Jain writer #jaindarshan #Philosophy #Prakrit language #Premiji #Prof Phoolchand jain ( विशेष निवेदन  : 1.प्रो प्रेमी जी की  इस जीवन यात्रा में  निश्चित ही आपका भी आत्मीय संपर्क इनके साथ रहा होगा ,आप चाहें तो उनके साथ आपके संस्मरण ,रोचक वाकिये,शुभकामनाएं और बधाई आप नीचे कॉमेंट बॉक्स में लिखकर पोस्ट कर सकते हैं | 2. इस लेख को पत्र पत्रिका अखबार वेबसाइट आदि प्रकाशन हेतु स्वतंत्र हैं । प्रकाशन के अनन्तर इसकी सूचना 9711397716 पर अवश्य देवें   - धन्यवाद ) प्राच्य विद्या एवं जैन जगत् के वरिष्ठ मनीषी श्रुत सेवी आदरणीय   प्रो.डॉ. फूलचन्द्र जैन प्रेमी जी श्रुत साधना की एक अनुकरणीय मिसाल हैं , जिनका पूरा जीवन मात्र और मात्र भारतीय प्राचीन विद्याओं , भाषाओँ , धर्मों , दर्शनों और संस्कृतियों को संरक्षित और संवर्धित करने में गुजरा है । काशी में रहते हुए आज वे अपने जीवन के पचहत्तर वर्ष और विवाह के पचास वर्ष पूरे कर र

काशी के स्याद्वाद का स्वतंत्रता संग्राम

काशी के स्याद्वाद का स्वतंत्रता संग्राम प्रो अनेकांत कुमार जैन आचार्य – जैनदर्शन विभाग श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, नई दिल्ली-16,Ph  ,9711397716 १९४२ में काशी के भदैनी क्षेत्र में गंगा के मनमोहक तट जैन घाट पर स्थित स्याद्वाद महाविद्यालय और उसका छात्रावास आजादी की लड़ाई में अगस्त क्रांति का गढ़ बन चुका था |  जब काशी विद्यापीठ पूर्ण रूप से बंद कर दिया गया , काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के छात्रावास जबरन खाली करवा दिया गया और आन्दोलन नेतृत्त्व विहीन हो गया तब आन्दोलन की बुझती हुई लौ को जलाने का काम इसी स्याद्वाद महाविद्यालय के जैन छात्रावास ने किया था | उन दिनों यहाँ के जैन विद्यार्थियों ने पूरे बनारस के संस्कृत छोटी बड़ी पाठशालाओं ,विद्यालयों और महाविद्यालयों में जा जा कर उन्हें जगाने का कार्य किया ,हड़ताल के लिए उकसाया ,पर्चे बांटे और जुलूस निकाले |यहाँ के एक विद्यार्थी दयाचंद जैन वापस नहीं लौटे , पुलिस उन्हें खोज रही थी अतः खबर उड़ा दी गई कि उन्हें गोली मार दी गई है,बी एच यू में उनके लिए शोक प्रस्ताव भी पास हो गया | उन्हें जीवित अवस्था में ही अमर शहीद ह