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अनेकांत दृष्टि से निमित्त-उपादान के सम्बन्ध की सामाजिक और आध्यात्मिक मीमांसा


अनेकांत दृष्टि से निमित्त-उपादान के सम्बन्ध की सामाजिक और आध्यात्मिक मीमांसा
प्रो.अनेकान्त कुमार जैन
दर्शन जगत में कारण-कार्य व्यवस्था हमेशा  से एक विमर्शणीय विषय रहा है। र्इश्वरवादी तो इस जगत को एक कार्य मानकर कारण की खोज र्इश्वर तक कर डालते हैं। जैनदर्शन ने कारण-कार्य-मीमांसा पर बहुत गहरा चिन्तन किया है। कार्योत्पत्ति में पाँच कारणों के समवाय की घोषणा करते हुए जैनाचार्य वैज्ञानिकता का परिचय तो देते ही हैं, साथ ही अकर्तावाद के सिद्धान्त की पुष्टि भी करते हैं। र्इसा की दूसरी-तीसरी शती के महान आचार्य सिद्धसेन सन्मतिसूत्र में लिखते हैं-
कालो सहाव णियर्इ पुव्वकयं पुरिस कारणेगंता।
मिच्छत्तं  ते  चेव    समासओ  होंति  सम्मत्तं।। 353
इसमें काल, स्वभाव, नियति, निमित्त (पूर्वकृत) और पुरुषार्थ- इन पाँचों से किसी कार्य की उत्पत्ति होती है- यह स्वीकार किया गया है। इन पाँचों में से किसी एक कारण को ही कारण मान लेना एकांत है, मिथ्यात्व है। पाँचों को बराबर महत्त्व देकर उन्हें कारण मानना अनेकान्त है, सम्यक्त्व है।
एक सुप्रसिद्ध वाक्य ‘निमित्त कुछ करता नहीं, निमित्त के बिना कुछ होता नहीं’- हमें वस्तु-स्वभाव समझाने का प्रयास कर रहा है। मैं मानता हूँ- जो यह कहता है कि निमित्त से कुछ नहीं होता, वह जैनदर्शन को नहीं जानता और जो यह कहता है कि निमित्त ही सब कुछ करता है, वह भी जैन दर्शन को नहीं जानता।
यहाँ धैर्य से समझने की आवश्यकता है। प्रत्येक द्रव्य का अपना-अपना उपादान होता है। उपादान में शक्ति न होक्षमता, योग्यता न हो तो लाखों -करोड़ों निमित्त भी मिल जायें, आ जायें तो भी द्रव्य को अपने अनुरूप परिणमा नहीं सकते। इसीलिए कहा गया कि निमित्त कुछ करता नहीं। दूसरी तरफ उपादान में कितनी ही सामथ्र्य हो यदि निमित्त उपस्थित  नहीं है तो वह परिणमन कर ही नहीं सकता। इसीलिए कहा है कि निमित्त के बिना कुछ होता नहीं। ये दोनों बातें सही हैं। हमें अनेकान्त दृष्टि से विचार करना चाहिए।
वर्तमान में समाज में दो तरह के लोग दिखार्इ दे रहे हैं जो अपनी रुचि और प्रियता के कारण किसी एक को ही सर्वाधिक महत्त्व देते हैं। वे दो तरह के लोग निम्न प्रकार से हैं-
1- निमित्त प्रिय लोग-
ये वो लोग हैं जिन्हें निमित्त के गीत गाने में आनन्द आता है। मजबूरी में ये उपादान की हाँ तो भरते हैं, पर उस पर ज्यादा ध्यान नहीं देते, बाहरी क्रियाकाण्डों से ही कल्याण मानने के कारण रात-दिन उसी में मग्न रहते हैं, आत्मा की शुद्धता और उपादान की तरफ देखने या विचार करने का समय ही नहीं निकाल पाते हैं।


2- उपादान प्रिय लोग-
ये वो लोग हैं जो बाहय क्रियाकाण्डों में आलसी होते हैं और उपादान के ही गीत गाकर निमित्त को ज्यादा महत्त्व नहीं देते। कर्इ शास्त्र-प्रमाण देने पर निमित्त का निषेध तो नहीं कर पाते हैं किन्तु उपादान के आगे उसे कुछ खास नहीं समझते हैं। कर्इ बार तो अतिरेक में निमित्त की सत्ता तक को चुनौती दे डालते हैं।
हम अपनी निजी प्रियता-अप्रियता के कारण रुचि-अरुचि के कारण ही वस्तु का जो मूल स्वभाव है वह समझ नहीं पाते हैं। उसका कारण यह है कि मनुष्य स्वभाव से कर्मशील होता है और हम क्या करें ? की हड़बडी़ वाली जिद उसे पहले हम क्या व कैसे जानें, समझें ? से कोसों दूर कर देती है। यदि हम कुछ समय के लिए क्या करें ? वाली कर्ता बुद्धि को दूर कर दें और पहले सिर्फ सिद्धान्त को और उसकी निरूपण -शैली को समझने की कोशिश करें तो शायद क्या करें? का समाधान मिल सकता है।
स्वयंभूस्तोत्र में आचार्य समन्तभद्र ने अनेकान्तोप्यनेकान्त: कह कर अनेकान्त को भी अनेकान्त स्वरूप बतलाया है। निमित्त और उपादान इन दोनों को स्वीकारना अनेकान्त दृष्टि है और किसी एक को ही मानकर दूसरे का सर्वथा निषेध कर देना एकान्त दृष्टि है। यह तो सही है पर अकेले निमित्त में भी एकान्त और अनेकान्त दोनों घटित हो सकते हैं, और अकेले उपादान में भी, धैर्य के साथ थोड़ा गहरार्इ में जायें तो शायद कोर्इ नर्इ बात समझ में आ जाये।
निमित्त सम्बन्धी अनेकान्त-
जो अनेकान्त की अस्ति-नास्ति वाली स्याद्वाद-सप्तभंगी को जानते हैं वे विचार करें कि निमित्त और उपादानयह दोनों भिन्न -भिन्न पदार्थ हैं, अत:-
१.दोनों पदार्थ अपने-अपने स्वरूप से अस्ति रूप हैं और दूसरे के स्वरूप से नास्ति रूप हैं।
२.अत: निमित्त स्वरूप से अस्तिरूप है और पररूप से नास्ति रूप हैं।
३.अत: उपादान में निमित्त का अभाव है, इस अपेक्षा से उपादान में निमित्त कुछ नहीं कर सकता।
निमित्त निमित्त का कार्य करता है, उपादान का कार्य नहीं करतायह निमित्त का अनेकान्त स्वरूप है। इस माध्यम से निमित्त का यथार्थ ज्ञान हो सकता है।
निमित्त सम्बन्धी एकान्त-
यदि कोर्इ माने निमित्त निमित्त का कार्य भी करता है और निमित्त उपादान का कार्य भी करता है तो इसका अर्थ यह हुआ कि निमित्त अपने रूप से अस्ति रूप है और पर रूप से भी अस्ति रूप है। तब निमित्त पदार्थ में अस्ति-नास्ति रूप परस्पर विरुद्ध दो धर्म सिद्ध नहीं हुए, इसीलिए ऐसा मानना एकान्त है।
उपादान सम्बन्धी अनेकान्त-
जिस प्रकार निमित्त भिन्न पदार्थ है उसी प्रकार उपादान भी भिन्न पदार्थ है-
१.अत: उपादान स्वरूप से है, पररूप से नास्ति रूप है।
२.अत: उपादान उपादानरूप से है, निमित्त रूप से नास्ति है।
३.अत: निमित्त में उपादान का अभाव है, इस अपेक्षा से निमित्त में उपादान कुछ नहीं कर सकता।
उपादान-उपादान का कार्य करता है, निमित्त का कार्य नहीं करता। यह उपादान का अनेकान्त स्वरूप है। इस माध्यम से उपादान का यथार्थ ज्ञान हो सकता है।
उपादान सम्बन्धी एकान्त-
यदि कोर्इ माने उपादान उपादान का कार्य भी करता है और उपादान निमित्त का भी कार्य करता है तो इसका भी यही अर्थ हुआ कि उपादान स्वरूप से अस्तिरूप है और पर रूप से भी अस्तिरूप है। तब उपादान पदार्थ में अस्ति-नास्ति रूप परस्पर विरुद्ध दो धर्म घटित नहीं हुए, अत: ऐसा मानना एकान्त है।
निष्कर्ष यह है कि सबसे पहले हम निमित्त और उपादान इन दोनों की ही स्वयं-स्वयं में पृथक-पृथक पूर्ण स्वतंत्र सत्ता समझ लें, फिर इन दोनों के आपसी सम्बन्धों पर विमर्श करें । इतना समझ लेने पर ही कुछ समाधान की तरफ आगे बढ़ सकते हैं।
निष्कर्ष-
मैं मानता हूँ- इन तथ्यों को समझने के लिए आग्रह -रहित अत्यन्त धैर्य की आवश्यकता है। निमित्त उपादान में कुछ करता है या नहीं ? ये दोनों ही बातें चिन्तन सापेक्ष हैं, दार्शनिक दृष्टि तो यही है कि निमित्त की उपस्थिति  अनिवार्य है, किन्तु आध्यात्मिक  दृष्टि के अपने अलग मापदण्ड हैं, अध्यात्म में सूक्ष्मातिसूक्ष्म चिन्तन करके जीव अपने पौरुष को पूर्ण स्वतंत्र देखता है। परम शुद्ध स्वरूप निमित्त का मुहताज नहीं है। शुद्ध द्रव्य दृष्टि की सच्चार्इ यह है कि निमित्त का निषेध नहीं वरन उसका स्वरूप समझकर उसकी गुलामी से इन्कार कर देना। कथन तो यहां तक है कि निमित्त स्वत: अनुकूल परिणमन करेंगे, किन्तु तभी जब दृष्टि स्वभावसन्मुख होगी। निमित्त की सत्ता को स्वीकारना किन्तु इस स्वीकारोकित में उपादान की स्वतंत्रता को पराधीन कर देना संभवत: न्याय नहीं। यही अपेक्षा समयसार को भी दृष्टि प्रधान ग्रन्थ के रूप में मान्यता देती है।
जरा सोचें! द्रव्य में किस समय परिणमन नहीं है? जगत में किस समय निमित्त नहीं है? हमारे मानने या न मानने से वस्तु स्थिति तो बदलती नहीं है। स्पष्ट है कि जगत के प्रत्येक द्रव्य में प्रति समय परिणमन हो ही रहा है और निमित्त भी सदैव होता ही है तब फिर चिन्तन करें कि इस निमित्त के कारण यह हुआयह बात कहां तक टिकती है? और निमित्त न हो तो नहीं हो सकता , यह प्रश्न भी कहाँ तक टिकता है? यहाँ कार्य होने में और निमित्त होने में कहीं भी समय-भेद नहीं है।
यहाँ निमित्त का अस्तित्त्व कभी भी नैमित्तिक कार्य की पराधीनता नहीं बतलाता है। वह मात्र अपनी अपेक्षा नैमित्तिक कार्य को प्रकट करता है, जैसे- पूछा जाय कि निमित्त किसका? तब उत्तर दिया जायेगा कि जो नैमित्तिक कार्य हुआ उसका। यह सब बातें दृष्टि की हैं। हम संयोगी दृष्टि से भी देख सकते हैं, वियोगी दृष्टि से भी।
अनेकान्त का आध्यात्मिक  दृष्टिकोण यह है कि वहाँ मुख्यता गौणता का चिन्तन उपादेयता और हेयता के रूप में होने लगता है। यहाँ आत्मानुभव की प्रबल विधेयात्मकता शेष समस्त बन्धन स्वरूप प्रतीत होने वाले तत्वों के प्रति निषेधात्मक दृष्टिकोण की उत्पत्ति का सहज कारण बन जाती है।
सिद्धान्त तथा शास्त्रीयता का सहारा लेकर वस्तुस्वरूप को तो यहाँ भी समझा जाता है, किन्तु उसमें से आत्माराधना में जो साधक तत्त्व हैं उनको उपादेय तथा शेष अन्य को हेय बतलाया जाता है। इस क्षेत्र में सार-सार को गहि लहे, थोथा देइ उड़ाय -वाली सूकित का सहारा लिया जाता है। यहाँ जिसे हेय करना है, अतिरेक में उसके प्रति निषेध की भाषा भी मुखरित होने लगती है जो विवाद उत्पन्न करती है। पुत्र की धृष्टता से रुष्ट पिता उसे तू मेरे लिए मर गया तक कह देते हैं। यहाँ मात्र दृष्टि -परिवर्तन अर्थ है, वस्तु-परिवर्तन नहीं।
इसी प्रकार आध्यात्मिक  दृष्टि का कथन निमित्त कुछ नहीं करता का भी अभिप्राय समझना चाहिए कि निमित्त मेरे लिए कुछ नहीं। व्यवहार झूठा, जगत मिथ्या जैसे वाक्य मात्र दृष्टि - परिवर्तन की अपेक्षा से कहे जाते हैं, वस्तु -परिवर्तन की अपेक्षा से नहीं। अध्यात्म में भी निमित्ताधीन दृष्टि का निषेध है, निमित्त का नहीं। निमित्त को कर्ता कहा जाता है, क्योंकि भाषा अक्सर कर्ता वाली होती है, किन्तु यह व्यवहार है। वास्तव में वह सिर्फ उपस्थिति  के शाश्वत नियम के कारण ही कर्ता का आरोपी बन जाता है या हमारे द्वारा मान लिया जाता है यह भी एक सापेक्ष सत्य ही है।
वस्तु-स्थिति क्या है?
निमित्त स्वतंत्र है, वह अपना कार्य करता है। उपादान स्वतंत्र है, वह भी अपना कार्य करता है। दोनों एक साथ रहते हैं और अपना-अपना काम समय पर करते हैं। दोनों पदार्थ एक-दूसरे के लिए परिणमन नहीं कर रहे हैं, मात्र परस्पर उपकार कर रहे हैं। उपकार का अर्थ हमेशा कर्ता नहीं होता है।
दिखार्इ क्या देता है?
          निमित्त उपादान को परिणमा रहा है, उपादान निमित्त को परिणमा रहा है। दोनों का एक-दूसरे के बिना अस्तित्व नहीं यह शाश्वत नियम है। निमित्तप्रिय लोग सिर्फ निमित्त को देखते हैं तो उन्हें दिखार्इ देता है कि निमित्त चाहे तो कुछ भी बदल दे, उपादान तो निमित्ताधीन है। उपादानप्रिय लोग सिर्फ उपादान को देखते हैं तो उन्हें दिखार्इ देता है उपादान निमित्त को परिणमा देता है अत: वही बलवान है, निमित्त तो उसका नौकर है, इसलिए निमित्त तो उपादान के आधीन है | हम वो मानते हैं जो दिखार्इ देता है। सम्यग्दृष्टि मनुष्य दोनों को सिर्फ देखता है, पर मानता वह है जो वस्तु-स्थिति है।

अध्यक्ष जैनदर्शन विभाग ,दर्शन संकाय
दर्शन संकाय, श्री लाल बहादुर शास्त्रीराष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ,
क़ुतुब सांस्थानिक क्षेत्र,नई दिल्ली ११००१६
anekant76@gmail.com,
Ph.No : 9711397716


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