'मत भेद तो रहेंगे '
प्रो अनेकांत कुमार जैन ,नई दिल्ली
३० /१२/२०१८
एक बार एक राजा को धर्म और दर्शन में बहुत रुचि हो गई । उसने राज्य के सभी दार्शनिकों और चिंतकों से क्रमशः उनके मत का मर्म समझा ।
लगभग सभी दार्शनिकों ने अपने मत की प्रशंसा की । और अपना अपना मत रखा । कोई कहता सबकुछ अनित्य है , कोई मानता सब कुछ नित्य है , कोई कहता नित्य अनित्य दोनों है । कोई कहता ईश्वर एक है ,कोई कहता अनेक है, कोई कहता ईश्वर है ही नहीं आदि आदि । यह सब सुनकर राजा को बहुत गुस्सा आ गया ।
उसने सभी दार्शनिकों को एक जेल में कैद कर दिया और कहा तुम सब मिलकर एक निर्णय कर लो फिर मुझे एक अंतिम निष्कर्ष बता देना तभी मैं तुम सबको रिहा करूंगा ।
सारे दार्शनिक चिंतित हो गए । सोचने लगे हम एक दर्शन कैसे बना सकते हैं ? जो पूर्व आचार्यों ने कहा है उसे हम कौन होते हैं बदलने वाले ? राजा को चाहिए कि कोई एक दर्शन जो उसे अच्छा लगे उसे अपना ले , बस । यह बात राजा तक पहुंचाई गई लेकिन राजा और क्रोधित हो गया ।
समस्या और बढ़ गई । कोई एक दूसरे दर्शन की बात मानने को राजी नहीं था । कोई एक मान्यता नहीं बन पा रही थी । दार्शनिक कैद से मुक्त नहीं हो पा रहे थे ।
एक बार राजा को फिर से समझाने का प्रयास हुआ । इस बार यह कार्य जैन दार्शनिक को दिया गया ।
राजा ने संदेश पाते ही जैन दार्शनिक को महल में बुला लिया । वे जैन दर्शन के विद्वान् राजा से बोले - राजन , मैं आपके साथ नगर घूमना चाहता हूं । राजा उनके साथ सैर को निकल पड़े । रास्ते में कई चौराहे आए । नगर के चारों तरफ कई द्वार पड़े । कई उपवन पड़े ।
जैन दार्शनिक ने उन्हें सलाह दी कि राजन ,जब भी हम चौराहे पर आते हैं तो भ्रम होने लगता है कि हम कहां जाएं ? मेरी एक सलाह है कि आप सारे चौराहे,दरवाजे समाप्त करके नगर में एक ही मार्ग और दरवाजा रखें ताकि समस्या न हो ।उपवन में ये अलग अलग रंग के फूल क्यूं हैं ? इन्हें भी एक ही रंग का करवा दीजिए ।
राजा सोच में पड़ गया ,बोला - असंभव है । चौराहे तो रहेंगे ही ,आपको जिस दिशा में जाना हो उस मार्ग का चुनाव कर लें तो समस्या नहीं होगी । उपवन में विभिन्न जातियों के विभिन्न रंगों के फूल हों तभी सुंदर लगते हैं अतः यह भी उचित नहीं है ।
जैन दार्शनिक ने बहुत विनम्रता पूर्वक राजा से कहा - ठीक यही बात हम आपको समझाना चाह रहे थे । दर्शन में मतभेद तो रहेंगे । जिस प्रकार चौराहे समाप्त करके एक रास्ता निर्मित करना कठिन है ,असंभव है, उसी प्रकार सारे दर्शनों की मौलिकता , अपनी अपनी विचार धारा , सत्यानुभूति आदि समाप्त करके कोई एक मान्यता वाला दर्शन खड़ा करना भी असंभव है । सत्य बहु आयामी होता है । दार्शनिक उसके एक एक आयाम को देखकर उसकी व्याख्या अलग अलग कर देते हैं । यह इन दार्शनिकों की नादानी ही है कि ये अन्य दार्शनिकों को अपना विरोधी मानते हैं । जिस दिन ये सत्य के सभी आयाम देखना सीख जायेंगे उस दिन ये सुधर जाएंगे ।
लेकिन अभी भी ये सत्य के एक अंश की ही व्याख्या करते हैं । उसे सुरक्षित करने का प्रयास करते हैं ।
अब जब सत्य ही अनेक रूप है , विविध आयाम वाला है तो उसकी कोई एक व्याख्या कैसे हो सकती है ? इसलिए मतभेद तो रहेंगे । आप स्वयं चाहें तो सभी की बातें सुनकर समझकर एक नया अनुसंधान करें और स्वयं सत्य को देखने का अभ्यास करें ,फिर जो आपके अनुभव में आएगा वह भी सत्य होगा ।
राजा को भी तब जाकर समझ आया कि विभिन्नता , अनेकता का एक अलग सौंदर्य है । सत्य अनेक रूप है, सब एक जैसा हो जाएगा तो उर्वरता,सौंदर्य सब समाप्त हो जाएगा । उसने सभी दार्शनिकों से माफी मांगी और उन्हें रिहा कर दिया और स्वयं सत्य खोजने निकल पड़ा ।
उन जैन दार्शनिक विद्वान् ने अनेकांतवाद और सह अस्तित्व के सिद्धांत का एक व्यावहारिक प्रयोग किया और सभी को रिहा करवा दिया ।
टिप्पणियाँ