कोई ऐसा वैरागी जिसने लौकिक डिग्री न ली हो किन्तु स्वाध्याय से संपन्न हो वह भी मोक्षमार्गी मोक्ष के लिए ही बनते हैं ।
किसी का वास्तविक वैराग्य संसार की शैक्षणिक डिग्री धारण करने या न करने पर निर्भर नहीं है ।
किसी ने ज्यादा धन वैभव छोड़ा तो उस वैरागी की महिमा लोक ज्यादा गाता है लेकिन वैरागी तो वैरागी होता है । कम वैभव छोड़ा तो भी वैराग्य उतना ही है ।
महत्वपूर्ण है छोड़ना , राग तोड़ना । यह काम एक निर्धन भी कर सकता है उसी स्तर पर , वह तो इस राग से भी निर्विकल्प रहता है कि दुनिया मेरे वैराग्य की महिमा गाएगी कि नहीं ?
अधिक धन वैभव छोड़ने वाले के मन में बाद में इस अहंकार की संभावना ज्यादा हो जाती है कि मैं ज्यादा छोड़ कर आया हूं इसलिए मैं अन्य दीक्षित मुनिराज से कुछ ज्यादा श्रेष्ठ हूं।
प्रभु ! जो दीक्षित हो गए , जिन्होंने अपनी आत्मानुभूति के लिए संसार को तज दिया , उनमें भी भेद भाव हम संसारी ही विकसित करते हैं कि किसने कितना छोड़ा ?
धन्य हैं हम संसारी । और धन्य हैं वे युवा सन्यासी जो इस दुष्कर पंचमकाल में भी वीतराग मुद्रा धारण करने का साहस करते हैं ।
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