अन्तिम समय तक जीने की कला सिखाता है जैन धर्म –प्रो. अनेकांत
इस वर्ष दीपोत्सव के ठीक पूर्व सीनियर सिटीजन कॉउन्सिल , दिल्ली द्वारा कम्युनिटी सेंटर, ग्रीनपार्क एक्सटेंशन, नई दिल्ली में आध्यात्मिक सत्संग का आयोजन किया गया । जिसमें *जैन धर्म के अनुसार जीवन जीने की कला*विषय पर प्रो अनेकांत कुमार जैन, आचार्य एवं अध्यक्ष –जैन दर्शन विभाग,श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ ,नई दिल्ली ने सार गर्भित व्याख्यान करते हुए कहा कि प्रथम तीर्थंकर रिषभ देव से लेकर अंतिम तीर्थंकर भगवान् महावीर तक चौबीस तीर्थंकर हुए जिन्होंने संसार के सभी मनुष्यों को जीवन जीने की कला सिखलाई | उन्होंने सिखाया कि संसार में किस तरह रहना चाहिए ताकि मानव मात्र का कल्याण हो सके |जीवों के कल्याण के लिए सबसे पहले भगवान् महावीर ने रिसर्च की कि मनुष्यों की कौन सी ऐसी कमियां हैं जो उसके विकास को रोक रहीं हैं तथा उसका जीवन बर्बाद कर रहीं हैं | अपनी इस रिसर्च में उन्होंने सात आदतें ऐसी पायीं जिनके कारण वह उसका जीवन बर्बाद हो रहा है और आगे नहीं बढ़ पा रहा है | इसलिए अच्छा ,स्वस्थ्य और सुन्दर जीवन जीने के लिए उन्होंने इन सात व्यसनों को सबसे पहले छोड़ने को कहा | यदि ये व्यसन बने रहेंगे तो आध्यात्मिक तो छोडिये , किसी भी तरह का लौकिक कल्याण भी आप नहीं कर सकते |
भगवान् महावीर ने फिर एक रिसर्च की | उन्होंने विचार किया कि सात प्रकार के व्यसनों से दूर होने के बाद अब मनुष्य आत्मकल्याण के लायक हो गया है अतः इसके दुखों को दूर करने का कुछ ऐसा रास्ता खोजना चाहिए ताकि मनुष्य दुःख दूर करने के नकली उपायों से बचे और वास्तव में इसके दुःख दूर हो सके | उन्होंने बारह वर्ष तक कठोर साधना की ,यह उनका आत्मानुसंधान का काल था | उन्होंने इस दौरान कोई भी उपदेश नहीं दिया ,वे मौन रहे | जब उनका आत्मानुसंधान पूरा हो गया और उन्हें दिव्य अतीन्द्रिय ज्ञान की प्राप्ति हो गयी तब उन्होंने जो रास्ता पाया वह सभी मनुष्यों को बतलाया | उन्होंने कहा सुखी होने और सच्चे जीवन जीने की कला है - सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र | उन्होंने इस कला को मोक्ष का मार्ग कहा |उन्होंने कहा कि दुःख भी एक रोग है और उसके लिए भी दवाई की जरूरत है , हमारे संसार सम्बन्धी सभी रोगों के नाश के लिए उन्होंने यह त्रिरत्न रुपी त्रिफला चूर्ण खोज निकाला |
उन्होंने कहा कि सबसे पहले हमें सच्चा विश्वास या सच्ची श्रद्धा करना सीखना चाहिए , लेकिन सिर्फ श्रद्धा से काम नहीं चलेगा उसके साथ साथ सच्चा ज्ञान भी प्राप्त करना चाहिए और सिर्फ श्रद्धा या ज्ञान से भी बात नहीं बनेगी ...इन दोनों के साथ साथ हमें सच्चा आचरण ( चारित्र ) भी धारण करना चाहिए | कोई कहता है कि हम अकेले श्रद्धा करेंगें,पूजा भक्ति करेंगे ,भगवान् का केवल नाम रटेंगे तो हमारे दुःख दूर हो जायेंगे,हमारा कल्याण हो जायेगा | कोई सोचता है कि कुछ करने की जरुरत नहीं है सिर्फ ज्ञान प्राप्त करो तो कल्याण हो जायेगा , कोई बताता है कि अरे बस कठोर व्रत करो , तपस्या करो तो संसार के दुखों से पार प् जाओगे | लेकिन महावीर बहुत वैज्ञानिक हैं उन्होंने समझाया कि अगर सच्चे डॉक्टर पर सच्चा विश्वास न हो तो दवाई काम नहीं करती,इसलिए पहले डॉक्टर पर सच्चा विश्वास करो ......लेकिन सिर्फ भरोसा कर लो तो भी रोग दूर नहीं होगा ....इसलिए वह जो उपचार और दवाई बताये उसका सही ज्ञान प्राप्त करो ....दवाई का सही ज्ञान नहीं होगा कि कौन सी कब खानी है तो भी रोग दूर नहीं हो पायेगा | इसके बाद वो कहते हैं कि आपने सिर्फ विश्वास और ज्ञान तो कर लिया लेकिन वो दवाई समय पर खाई नहीं तो भी रोग दूर नहीं होगा अतः विश्वास भी जरूरी है,ज्ञान भी जरूरी है तथा उसके अनुसार आचरण भी जरूरी है – तभी दुखों से मुक्ति संभव है |
भगवान् महावीर ने देखा कि लोग विश्वास और श्रद्धा तो करते हैं लेकिन कभी कभी अज्ञानता में गलत श्रद्धान कर लेते हैं अतः धर्म का वास्तविक स्वरुप समझ कर फिर श्रद्धान करना चाहिए | कोई समझा देता है कि पहाड़ से नीचे कूद जाओ या नदी में डूब जाओ तो मोक्ष हो जायेगा , कोई कहता है कि पशुओं की बलि चढाओ तो पुण्य होता है ,कोई नशा करने से परमात्मा का दर्शन करवाने की बात कहता है तो हम जल्दी भरोसा कर लेते हैं और यह मानने लगते हैं कि यही धर्म है ..और अपनी श्रद्धा और विश्वास को गलत दिशा दे देते हैं इसलिए सबसे पहले जरूरी है मनुष्य सच्चे धर्म की पहचान करके विश्वास करे | अन्यथा हमेशा की तरह लुटता ही रहेगा |
सम्यग्दर्शन की गहरी व्याख्या करते समय वे भेद विज्ञान की कला समझाते हैं और कहते है कि इस कला से मनुष्य संसार के दुखों में भी कीचड़ में कमल की तरह उससे भिन्न रह सकता है | अनासक्त भाव और साम्य दृष्टि ...यह भेद विज्ञान पूर्वक जीवन जीने की अनुपम कला है | महावीर कहते हैं - सृष्टि नहीं दृष्टि बदलो |
सम्यग्ज्ञान के माध्यम से किसी भी घटना, परिस्थिति या परिणाम की सही जानकारी होती है | जो वस्तु जैसी है उसका जो स्वरूप है, उसको वैसा ही जानना यह सम्यज्ञान है | प्रायः सही ज्ञान के अभाव में मनुष्य व्यर्थ ही तनावग्रस्त रहता है | सही ज्ञान ही समस्या का समाधान कर सकता है | महावीर ने अनेकांत का सिद्धांत की खोज वस्तु , घटना, परिस्थिति या परिणाम की सर्वांग जानकारी के लिए की | सत्य को कभी भी एक दृष्टिकोण से नहीं समझा जा सकता क्यों कि वह बहु आयामी है | इसलिए हमें भी अपना दृष्टिकोण बहु आयामी रखना चाहिए | यह चिंतन की कला है | हमारे सोचने का तरीका ठीक होगा और सकारात्मक होगा तो हमारे आधे दुःख वहीँ कम हो जायेंगे | हर घर में ,परिवार में,समाज में झगडे का एक ही कारण है कि हम सिर्फ अपने नजरिये से देखते हैं ..जिस दिन हम दूसरे के नजरिये से भी देखने लगेंगे उस दिन जीवन का रंग ही बदल जायेगा | जीवन बहु रंगी हो जायेगा |
सम्यग्चारित्र मनुष्य को सदाचरण सिखाता है | हमारे तनाव - अवसाद का मुख्य कारण हमारा गलत आचरण भी है | क्रोध, मान, माया, लोभ - ये चार ऐसे भाव है जो शांत चित्त आत्म को कष्ट देते हैं अर्थात दुःखी करते हैं इसलिए इनका नाम जैनदर्शन में 'कषाय' रखा गया है | आत्मा के चारित्रिक गुणों का घात इन्हीं चार कषायों के कारण होता हैं, और इन्हीं कषायों की प्रबलता मनुष्य को तनावग्रस्त भी करती है | शुद्ध चारित्र की प्राप्ति के लिए इन चार कषायों की समाप्ति बहुत आवश्यक है | ये कषायें जैसे जैसे मन्द होती हैं वैसे वैसे तनाव घटता जाता है | अन्य कई प्रकार ही मानसिक बीमारियों का कारण भी इन कषायों की प्रबलता है | अतः सम्यग्चारित्र के अभ्यास से इन पर विजय प्राप्त करके मनुष्य अवसाद आदि का शिकार नहीं होता | अपने भीतर से क्रोध, मान, माया, लोभ को कम करना यह हमारा आंतरिक चरित्र है और बाहर से भोगों के प्रति उदासीन भाव और अपनी आत्मा के प्रति उत्साह यह बाह्य चरित्र है | महावीर कहते हैं कि व्रत,उपवास ,तपस्या भी यथा शक्ति करने से शरीर के प्रति ममत्व घटता है ,मनुष्य शारीरिक रोगों से भी मुक्त होता है और कर्मों से भी |
भगवान् महावीर ने सम्पूर्ण जीवन को अहिंसा पूर्वक जीने को कहा | हम ऐसा जीवन जियें जिससे किसी दुसरे प्राणी को कष्ट न हो और और किसी के प्राणों का हरण न हो | जैसे हमें दुःख पसंद नहीं वैसे ही दूसरों को भी पसंद नहीं है अतः शांति पूर्ण सहस्तित्व के लिए अहिंसा का आचरण जरूरी है |आसक्ति बहुत बड़ा दुःख है , मकान ,जमीन,रुपया पैसा सोना चांदी आदि के प्रति अत्यधिक मोह आपको चिंता ग्रस्त बनाता है अतः भगवान कहते हैं कि अपने पास उतना ही रखो जितनी जरूरत है ,व्यर्थ का सामान मत जोड़ो |
भगवान् महावीर ने मनुष्यों को जन्म से लेकर मृत्यु तक जीवन जीने की कला सिखलाई | उन्होंने कहा कि जो जन्म लेता है वह मरता भी है यह जीवन की एक बहुत बड़ी सच्चाई है –इसे हमें स्वीकार कर लेना चाहिए | मरना तो एक क्षण का है किन्तु उसके पूर्व अंत समय तक जीवन है अतः हमें अपना अंत समय धर्म ध्यान व्रत उपवास पूर्वक व्यतीत करना चाहिए ,जो छूट जाने वाला है उसे तुम पहले ही छोड़ दो तो सुख पूर्वक अंत तक जी लोगे | इसलिए जब ऐसा लगने लग जाये कि अब आयु कम रह गयी है तब घबड़ाना नहीं चाहिए ,बल्कि अपने सुन्दर जीवन रुपी निबंध का अच्छा उपसंहार या समापन करना चाहिए |अंत समय तक भगवान् का भजन करना चाहिए, अपनी भूलों के लिए सबसे क्षमा याचना करना चाहिए और संयम पूर्वक रहना चाहिए |इस प्रकार अपने प्रेरक व्याख्यान नें प्रो अनेकांत जैन ने विस्तार पूर्वक बतलाया कि भगवान् महावीर ने मनुष्यों को जीवन सत्यं ,शिवम् और सुन्दरम् बनाने की प्रेरणा दी उसके उपाय भी बतलाये |
आरम्भ में प्रो.वीरसागर जी ने विद्वान वक्ता का परिचय दिया तथा जैन धर्म के इतिहास और सार्वभौमिकता पर प्रकाश डालते हुए कहा कि जैन धर्म भारत का एक अत्यंत प्राचीन धर्म है जिसे श्रमण परंपरा के नाम से जाना जाता है | इस युग में जैन धर्म की स्थापना करने वाले प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव हुए जिनका स्मरण वेदों में तथा अनेक पुराणों में अत्यंत आदर के साथ किया गया है | भागवत में तो उन्हें बहुत बड़ा तपस्वी परमहंस तक कहा गया है | पूरी भारतीय संस्कृति ने उन्हें बहुत सम्मान दिया तथा यही कारण है कि उनके एक कर्म योगी पुत्र ‘भरत’ के नाम पर ही अपने देश का नाम भारत हुआ है |
काउंसिल के अध्यक्ष श्री जे आर गुप्ता जी ने प्रो जैन का स्वागत करते हुए कहा कि हम वरिष्ठ नागरिकों के लिए प्रत्येक धर्म की शिक्षाओं के प्रवचन रखते हैं ,हमारा यह क्रम सम्पूर्ण वर्ष चलता है तथा अनेक लोग इस माध्यम से अपना जीवन सुधार रहे हैं । हमें प्रसन्नता है कि आज हमने जैन धर्म की महान शिक्षाओं को सीखा | प्रो.अनेकांत जी ने अत्यंत सरल एवं सुबोध शैली में जैन धर्म के अनुसार जीवन जीने की कला पर हम सभी को मार्मिक उद्बोधन दिया | हम आगे भी इसी तरह जैन धर्म पर आधारित प्रवचन व्याख्यान अवश्य रखेंगे |
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