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दशधर्मो का सार : क्षमावाणी

दशलक्षण धर्म : एक झलक *दशधर्मो का सार  क्षमावाणी * दश धर्मों की आध्यात्मिक और व्यावहारिक दोनों दृष्टि से आराधना करने के अनंतर आत्मा समस्त बुराइयों को दूर करके परम पवित्र और शुद्ध स्वरूप प्रगट कर लेती है तब मनुष्य अंदर से इतना भीग जाता है कि उसे अपने पूर्व कृत अपराधों का बोध होने लगता है । अपनी भूलें एक एक कर याद आने लगती हैं । लेकिन अब वह कर क्या सकता है ? काल के पूर्व में जाकर उनका संशोधन करना तो अब उसके वश में नहीं है । अब इन अपराधों का बोझ लेकर वह जी भी तो नहीं सकता । जो हुआ सो हुआ - लेकिन अब क्या करें ? कैसे अपने अपराधों की पुरानी स्मृतियां मिटा सकूं जो मेरी वर्तमान शांति में खलल डालती हैं । ऐसी स्थिति में तीर्थंकर भगवान् महावीर ने एक सुंदर आध्यात्मिक समाधान बतलाया - "पडिक्कमणं " (प्रतिक्रमण)  अर्थात् जो पूर्व में तुमने अपनी मर्यादा का अतिक्रमण किया था उसकी स्वयं आलोचना करो और वापस अपने स्वभाव में आ जाओ । यह कार्य तुम स्वयं ही कर सकते हो , कोई दूसरा नहीं । प्रतिक्रमण करके तुम अपनी ही अदालत में स्वयं बरी हो सकते हो  तुम उन अपराधों को दुबारा नहीं करोगे ऐसा नियम लोगे

उत्तम ब्रह्मचर्य

दशलक्षण धर्म : एक झलक अनंत चतुर्दशी *उत्तम ब्रह्मचर्य* पर द्रव्यों से नितांत भिन्न  शुद्ध बुद्ध अपने आत्मा अर्थात् ब्रह्म में लीनता ही उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म है । ब्रह्मचर्य व्रत को सभी व्रतों में श्रेष्ठ व्रत कहा गया है । मुनि इसे महाव्रत के रूप में तथा गृहस्थ इसे अणुव्रत के रूप में पालते हैं । इन्द्रियों के विषयों का सेवन करते रहने से अपने अतीन्द्रिय आत्म स्वरूप का अनुभव नहीं हो पाता है । इन्द्रिय विषयों में आसक्ति अब्रह्मचर्या है । दो में से एक कार्य ही संभव है या तो इन्द्रिय भोग या ब्रह्मलीनता । जो पांच इंद्रियों में लीन है वह आत्मा में लीन नहीं है जो आत्मा में लीन है वह पांच इंद्रियों में लीन नहीं है । हम यह कह सकते हैं कि पंचेंद्रिय विषयों से निवृत्ति नास्ति से और आत्मलीनता अस्ति से ब्रह्मचर्य धर्म की परिभाषा है । मुख्य रूप से स्पर्श इन्द्रिय के विषयों में स्वयं को संयमित रखने को ब्रह्मचर्य इसलिए कहा जाता है क्यों कि यह इन्द्रिय सबसे व्यापक है और शेष चार इन्द्रियां भी  किसी न किसी रूप में इससे संबंधित हैं । व्यवहार से गृहस्थ जीवन में धर्म एवं समाज द्वारा स्वीक

उत्तम आकिंचन्य

दशलक्षण धर्म : एक झलक नवम् दिवस उत्तम आकिंचन्य ' यह मेरा है ' इस प्रकार के अभिप्राय का त्याग करना आकिंचन्य है । जिसका कुछ नहीं  है वह आकिंचन्य है । आध्यात्मिक दृष्टि से समस्त पर पदार्थ और पर के लक्ष्य से आत्मा में उत्पन्न होने वाले मोह राग द्वेष के भाव आत्मा के नहीं हैं - इस प्रकार जानकर और मानकर अपनी शुद्ध आत्मा के आश्रय से मोह राग द्वेष छोड़ना ही उत्तम आकिंचन्य धर्म है । व्यवहार से सभी प्रकार के अंतरंग और बहिरंग परिग्रहों का त्याग करना आकिंचन्य धर्म है । शास्त्रों में मूर्छा अर्थात् आसक्ति को परिग्रह कहा गया है । अल्प परिग्रह का धारी जीव ही मनुष्य जन्म को प्राप्त कर पाता है । अंतरंग में मिथ्यात्व (मिथ्या दृष्टिकोण ) सबसे बड़ा परिग्रह है और अन्य सभी परिग्रहों का यह सबसे बड़ा कारण है । आचार्य कुंदकुंद कहते हैं कि बाह्य परिग्रहों का त्याग भावों की विशुद्धि के लिए किया जाता है इसलिए मिथ्या भाव ,राग द्वेष के त्याग के बिना मात्र बाह्य परिग्रह का त्याग निष्फल हो जाता है । अधिक परिग्रह दुख का सबसे बड़ा कारण है । आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह हमें परेशानी में

उत्तम त्याग

दशलक्षण धर्म : एक झलक अष्टम दिवस उत्तम त्याग जो मनुष्य सम्पूर्ण पर द्रव्यों से मोह छोड़कर संसार , देह और भोगों से उदासीन रूप परिणाम रखता है उसके उत्तम त्याग धर्म होता है । सच्चा त्याग तब होता है जब मनुष्य पर द्रव्यों के प्रति होने वाले मोह , राग ,द्वेष को छोड़ देता है । शास्त्रों में प्रेरणा के लिए व्यवहार से दान को ही त्याग कहा गया है । किन्तु त्याग और दान में सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण अंतर यह है कि त्याग हमेशा बुराई का किया जाता है और दान हमेशा उत्कृष्ट पदार्थ का किया जाता है । राग ,द्वेष,  मिथ्यात्व और अज्ञान का त्याग तो हो सकता है , दान नहीं । इसी प्रकार ज्ञान का दान हो सकता है , त्याग नहीं । दान हमेशा स्व और पर के उपकार के लिए किया जाता है । पैसे का त्याग पूर्वक दान होता है । अगर हम उसे त्यजेंगे नहीं तो देगें कैसे ? वर्तमान में धर्म के क्षेत्र में भी धन का महत्व ज्यादा है इसलिए त्याग धर्म को दान धर्म के रूप में ही समझा और समझाया जाता है । जैन शास्त्रों में भी दान के चार प्रकार ही वर्णित हैं - १. आहार दान २. औषधि दान ३. ज्ञान दान ४. अभय दान इसमें भी धन दा

उत्तम तप

दशलक्षण धर्म : एक झलक सप्तम दिवस उत्तम तप इच्छा के निरोध को तप कहते हैं । आध्यात्मिक दृष्टि से समस्त राग और द्वेष के त्याग पूर्वक अपने शुद्ध आत्म स्वभाव में लीन होना उत्तम तप है । व्यावहारिक दृष्टि से अनशन व्रतादि तप हैं । जैन दर्शन में तप और तपस्या को बहुत महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है । भोगवादी दृष्टिकोण वाले मनुष्य हमेशा दुखी ही रहते हैं । इसके विपरीत जो जीवन में स्वयं ही तप को अपनाता है उसे कौन दुखी कर सकता है ? अपनी इच्छाओं को वश में रखना ही सबसे बड़ा तप है । जैन दर्शन कहता है इच्छाएं आज तक कभी भी किसी की पूरी नहीं हुई ।जब तक हम इच्छाओं के दास हैं तब तक पूर्णता को प्राप्त नहीं कर सकते । स्वर्ग के देवों के पास तप करने की शक्ति नहीं है , वे चाह कर भी तप को धारण नहीं कर पाते हैं । मनुष्य तप पूर्वक कर्मों के बज्र शिखर भी नष्ट कर देता है । स्वाध्याय और ध्यान को उत्कृष्ट तप कहा गया है । ज्ञान और ध्यान के बिना मुक्ति संभव ही नहीं है । जैन आचार्यों ने अज्ञानी के तप को बाल तप की संज्ञा दी है । आचार्य कुंदकुंद ने तो यहां तक कहा है कि कोई मनुष्य सम्यक्तव से रहित होकर करोड़ो

उत्तम संयम

दशलक्षण धर्म : एक झलक षष्ठ दिवस उत्तम संयम संयमन को संयम कहते हैं । आचार्य वीरसेन कहते हैं उत्तम संयम वही है जो  सम्यक्त्व का अविनाभावी हो अर्थात् बिना सम्यग्दर्शन के‌ संयम मोक्ष का कारण नहीं बनता है । आध्यात्मिक दृष्टि से अपने उपयोग को समस्त पर पदार्थों से समेट कर आत्म सन्मुख करना ,अपने में सीमित करना ,अपने आत्मा में लगाना अर्थात् चित्त की सन्मुखता ,स्वलीनता ही निश्चय संयम है । व्यवहार से पांच इंद्रियों के विषय भोगों को नियंत्रित करना इन्द्रिय संयम और एक इन्द्रिय से लेकर पांच इन्द्रिय तक के जीवों की रक्षा में तत्पर और जागरूक रहना प्राणी संयम है । संयम के बिना हमारा जीवन बिना ब्रेक की कार की तरह है । कार में ब्रेक हो तो कार अन्यथा बेकार । उसी प्रकार जिसके जीवन में जरा सा भी संयम नहीं है उसका जीवन भी बेकार । सभी जन्मों में मनुष्य जन्म ही ऐसा जन्म है जिसमें संयम धारण करने की सामर्थ्य है ।इसलिए हमें मनुष्य भव का उपयोग संयम धारण कर के कर लेना चाहिए  । आजकल पर्यावरण की दृष्टि से , सामाजिक दृष्टि से ,राष्ट्र की दृष्टि से भी अनेक प्रकार के संयम रखने की अपील की जाती है । उन

उत्तम सत्य

दशलक्षण धर्म : एक झलक पंचम दिवस उत्तम सत्य उत्तम सत्य धर्म का वास्तविक अर्थ होता है वीतराग भाव । सत्य व्रत और सत्य धर्म में सबसे बड़ा फर्क यह है कि सत्य व्रत का संबंध वचनों तक सीमित है और सत्य धर्म सिर्फ वचनों तक सीमित नहीं है । अपने शुद्ध ज्ञान और आनंद आत्म स्वरूप की अनुभूति ही उत्तम सत्य धर्म है जो वाणी वचन आदि इन्द्रिय और पुद्गल से परे अतीन्द्रिय स्वरूप है । इस उत्तम सत्य धर्म की उपलब्धि उत्कृष्ट साधना करने वाले महा तपस्वी मुनिराजों को ही हो पाती है अतः हम उत्तम सत्य धर्म को वचनों की सत्यता के माध्यम से व्याख्यायित करते हैं । आज सत्य धर्म को स्वीकारने और उसे आदर देना भी सीखना चाहिए । विचारणीय है कि अनेक ऋषि मुनि और महापुरूषों ने परम सत्य की प्राप्ति के लिए घर संसार को छोड़ कर जंगलों में तपस्या की तो क्या ' झूठ नहीं बोलकर सत्य बोलना चाहिए ' मात्र इतने लक्ष्य के लिए की थी क्या ? सत्य बोलना यह सत्य महाव्रत या अणुव्रत है किन्तु परम सत्य स्वरूप अपनी आत्मा के वास्तविक स्वरूप की अनुभूति करना यह उत्तम सत्य धर्म है । व्यवहार से भी हम देखें तो जो मनुष्य मौन व्रत मात

उत्तम शौच

दश लक्षण धर्म एक झलक चतुर्थ दिवस उत्तम शौच दशलक्षण में प्रारंभ के चार धर्म क्रोध , मान, माया, लोभ -   इन चार कषायों के अभाव स्वरूप आत्मा में प्रगट होते हैं । पहले दिन क्रोध का अभाव कर क्षमा , दूसरे दिन मान का अभाव कर मार्दव तथा तीसरे दिन माया का अभाव करके आर्जव धर्म प्रगट किया । उसी क्रम में चौथे दिन लोभ कषाय का अभाव करके शौच धर्म प्रगट किया जाता है । शुचेर्भाव: शौचम् अर्थात् शुचिता या पवित्रता का नाम शौच है । जीवन में जैसे जैसे लोभ कम होने लगता है वैसे वैसे शुचिता प्रगट होने लगती है । लोभ की एक बड़ी विशेषता यह है कि लोभी व्यक्ति जरूरत पड़ने पर क्रोध को दबा लेता है , मान को भी भूल जाता है और माया को भी रोक देता है ...बस काम बनना चाहिए । दृढ़ लोभी कभी लक्ष्य से हटते नहीं हैं । इसलिए अकेले लोभ का अभाव शौच नहीं है बल्कि क्रोध ,मान, माया, लोभ - इन चारों कषायों के अभाव का नाम पवित्रता है । लोभ को पाप का बाप कहा गया है । क्यों कि इसके वशीभूत होकर ही मनुष्य पाप करता है । यह लोभ ही है जो मनुष्य पाखंड में भी धर्म मानने लगता है । भगवती आराधना ग्रंथ में लिखा है कि लोभ करने पर

उत्तम आर्जव

दशलक्षण धर्म एक झलक तृतीय दिवस उत्तम आर्जव ऋजुता‌ अर्थात् सरलता का नाम आर्जव है । सच्ची श्रद्धा सहित जो वीतरागी सरलता होती है  उसे उत्तम आर्जव धर्म कहते हैं । आत्मा में उत्तम आर्जव धर्म माया कषाय के अभाव में प्रगट होता है । शास्त्रों में कहा गया है कि मायाचारी व्यक्ति वर्तमान में भले ही छल कपट करके खुद को बहुत होशियार या सफल मानता फिरे , दूसरों को ठग कर बेवकूफ बनता रहे किन्तु इस मायाचारी प्रवृत्ति का फल तिर्यंच  गति होता है अर्थात् इसके फल से मनुष्य अगले जन्म में पशु पक्षी बन कर बहुत दुख उठाता है । ऐसा करके खुद को ठगता है और मन ही मन प्रसन्न होता है कि मैंने दूसरे को ठग लिया । जैन दर्शन कहता है कि मनुष्य के सभी कार्य पूर्व के पुण्य उदय से सिद्ध होते हैं मायाचारिता से नहीं । छल करने वाला मनुष्य अपनी प्रामाणिकता खो देता है । आपके व्यक्तित्व पर कोई भरोसा नहीं करता । वर्तमान में  मायाचारिता को एक गुण समझा जा रहा है ।सरलता को वर्तमान समाज में मूर्खता कहा जाने लगा है । यह अशुभ संकेत है । वास्तविकता यह है कि मायाचारी व्यक्ति को पूरी दुनिया टेढ़ी दिखाई देती है , वह हमेशा सश

उत्तम मार्दव

दश धर्म एक झलक द्वितीय दिवस उत्तम मार्दव मृदुता का भाव मार्दव कहलाता है । उत्तम मार्दव का अर्थ है सच्ची श्रद्धा से युक्त मृदुता । यह धर्म आत्मा में मान कषाय के अभाव स्वरूप प्रगट होता है । जिस प्रकार क्रोध आत्मा का स्वभाव नहीं है उसी प्रकार मान भी आत्मा का स्वभाव नहीं है । निंदा के निमित्त से आत्मा में क्रोध की उत्पत्ति होती है और प्रशंसा के निमित्त से आत्मा में मान उत्पन्न हो जाता है । दोनों ही स्थिति खराब है । क्रोधी और मानी में सबसे बड़ा फर्क यह है कि जिस निमित्त से क्रोध उत्पन्न होता है क्रोधी उसे दूर भगाना चाहता है किन्तु जिस निमित्त से मान उत्पन्न होता है मानी उसे रखना चाहता है । मान के कारण व्यक्ति दूसरों को नीचा और स्वयं को ऊंचा दिखाना पसंद करता है । इसके लिए वह दूसरे की निन्दा करता है और खुद की प्रशंसा खुद ही करता फिरता है । स्थिति प्रतिकूल हो तो क्रोध उत्पन्न हो जाता है और अनुकूल हो तो मान उत्पन्न हो जाता है । शास्त्रों में मान को महा विष रूप कहा गया है ।  मनुष्य ज्ञान,पूजा,कुल, जाति,बल,ऋद्धि,तप और रूप का घमंड करता है और दूसरों को नीचा दिखाता है । मान मनुष्

उत्तम क्षमा

*दश धर्म एक झलक* प्रथम दिन *उत्तम क्षमा* जैन धर्म में दश लक्षण पर्व पर दस दिन तक आत्मा के दश धर्मों की विशेष उपासना की जाती है इसलिए इन्हें धर्म के दशलक्षण कहते हैं । व्यवहार से स्वरूप समझने के अभिप्राय से प्रत्येक दिन क्रम से एक एक धर्म का स्वरूप समझा और समझाया जाता है । पहला दिन *उत्तम क्षमा* का होता है । उत्तम शब्द से तात्पर्य है सम्यग्दर्शन अर्थात् सच्चा विश्वास । यह त्रिरत्नों में पहला रत्न कहलाता है । मनुष्य की आध्यात्मिक उन्नति के लिए यह पहली शर्त है । इसके बिना मोक्ष मार्ग प्रारंभ ही नहीं होता है । *आत्मा में जब क्रोध रूपी विभाव का अभाव होता है तब उसका क्षमा स्वभाव प्रगट होता है ।* हमने हमेशा से क्रोध को स्वभाव माना है यह हमारी सबसे बड़ी भूल है ।हम अक्सर कहते हैं कि अमुक व्यक्ति क्रोधी स्वभाव का है । क्रोध विकार है स्वभाव नहीं । स्वभाव है क्षमा जो आत्मा का स्वाभाविक धर्म है । जैन परम्परा में प्रत्येक धर्म की व्याख्या दो नयों के आधार पर की जाती है । अध्यात्म की दृष्टि से क्षमा स्वभाव वाली आत्मा के आश्रय से पर्याय में क्रोध रूप विकार की उत्पत्ति न