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उत्तम संयम

दशलक्षण धर्म : एक झलक षष्ठ दिवस उत्तम संयम संयमन को संयम कहते हैं । आचार्य वीरसेन कहते हैं उत्तम संयम वही है जो  सम्यक्त्व का अविनाभावी हो अर्थात् बिना सम्यग्दर्शन के‌ संयम मोक्ष का कारण नहीं बनता है । आध्यात्मिक दृष्टि से अपने उपयोग को समस्त पर पदार्थों से समेट कर आत्म सन्मुख करना ,अपने में सीमित करना ,अपने आत्मा में लगाना अर्थात् चित्त की सन्मुखता ,स्वलीनता ही निश्चय संयम है । व्यवहार से पांच इंद्रियों के विषय भोगों को नियंत्रित करना इन्द्रिय संयम और एक इन्द्रिय से लेकर पांच इन्द्रिय तक के जीवों की रक्षा में तत्पर और जागरूक रहना प्राणी संयम है । संयम के बिना हमारा जीवन बिना ब्रेक की कार की तरह है । कार में ब्रेक हो तो कार अन्यथा बेकार । उसी प्रकार जिसके जीवन में जरा सा भी संयम नहीं है उसका जीवन भी बेकार । सभी जन्मों में मनुष्य जन्म ही ऐसा जन्म है जिसमें संयम धारण करने की सामर्थ्य है ।इसलिए हमें मनुष्य भव का उपयोग संयम धारण कर के कर लेना चाहिए  । आजकल पर्यावरण की दृष्टि से , सामाजिक दृष्टि से ,राष्ट्र की दृष्टि से भी अनेक प्रकार के संयम रखने की अपील की जाती है । उन

उत्तम सत्य

दशलक्षण धर्म : एक झलक पंचम दिवस उत्तम सत्य उत्तम सत्य धर्म का वास्तविक अर्थ होता है वीतराग भाव । सत्य व्रत और सत्य धर्म में सबसे बड़ा फर्क यह है कि सत्य व्रत का संबंध वचनों तक सीमित है और सत्य धर्म सिर्फ वचनों तक सीमित नहीं है । अपने शुद्ध ज्ञान और आनंद आत्म स्वरूप की अनुभूति ही उत्तम सत्य धर्म है जो वाणी वचन आदि इन्द्रिय और पुद्गल से परे अतीन्द्रिय स्वरूप है । इस उत्तम सत्य धर्म की उपलब्धि उत्कृष्ट साधना करने वाले महा तपस्वी मुनिराजों को ही हो पाती है अतः हम उत्तम सत्य धर्म को वचनों की सत्यता के माध्यम से व्याख्यायित करते हैं । आज सत्य धर्म को स्वीकारने और उसे आदर देना भी सीखना चाहिए । विचारणीय है कि अनेक ऋषि मुनि और महापुरूषों ने परम सत्य की प्राप्ति के लिए घर संसार को छोड़ कर जंगलों में तपस्या की तो क्या ' झूठ नहीं बोलकर सत्य बोलना चाहिए ' मात्र इतने लक्ष्य के लिए की थी क्या ? सत्य बोलना यह सत्य महाव्रत या अणुव्रत है किन्तु परम सत्य स्वरूप अपनी आत्मा के वास्तविक स्वरूप की अनुभूति करना यह उत्तम सत्य धर्म है । व्यवहार से भी हम देखें तो जो मनुष्य मौन व्रत मात

उत्तम शौच

दश लक्षण धर्म एक झलक चतुर्थ दिवस उत्तम शौच दशलक्षण में प्रारंभ के चार धर्म क्रोध , मान, माया, लोभ -   इन चार कषायों के अभाव स्वरूप आत्मा में प्रगट होते हैं । पहले दिन क्रोध का अभाव कर क्षमा , दूसरे दिन मान का अभाव कर मार्दव तथा तीसरे दिन माया का अभाव करके आर्जव धर्म प्रगट किया । उसी क्रम में चौथे दिन लोभ कषाय का अभाव करके शौच धर्म प्रगट किया जाता है । शुचेर्भाव: शौचम् अर्थात् शुचिता या पवित्रता का नाम शौच है । जीवन में जैसे जैसे लोभ कम होने लगता है वैसे वैसे शुचिता प्रगट होने लगती है । लोभ की एक बड़ी विशेषता यह है कि लोभी व्यक्ति जरूरत पड़ने पर क्रोध को दबा लेता है , मान को भी भूल जाता है और माया को भी रोक देता है ...बस काम बनना चाहिए । दृढ़ लोभी कभी लक्ष्य से हटते नहीं हैं । इसलिए अकेले लोभ का अभाव शौच नहीं है बल्कि क्रोध ,मान, माया, लोभ - इन चारों कषायों के अभाव का नाम पवित्रता है । लोभ को पाप का बाप कहा गया है । क्यों कि इसके वशीभूत होकर ही मनुष्य पाप करता है । यह लोभ ही है जो मनुष्य पाखंड में भी धर्म मानने लगता है । भगवती आराधना ग्रंथ में लिखा है कि लोभ करने पर

उत्तम आर्जव

दशलक्षण धर्म एक झलक तृतीय दिवस उत्तम आर्जव ऋजुता‌ अर्थात् सरलता का नाम आर्जव है । सच्ची श्रद्धा सहित जो वीतरागी सरलता होती है  उसे उत्तम आर्जव धर्म कहते हैं । आत्मा में उत्तम आर्जव धर्म माया कषाय के अभाव में प्रगट होता है । शास्त्रों में कहा गया है कि मायाचारी व्यक्ति वर्तमान में भले ही छल कपट करके खुद को बहुत होशियार या सफल मानता फिरे , दूसरों को ठग कर बेवकूफ बनता रहे किन्तु इस मायाचारी प्रवृत्ति का फल तिर्यंच  गति होता है अर्थात् इसके फल से मनुष्य अगले जन्म में पशु पक्षी बन कर बहुत दुख उठाता है । ऐसा करके खुद को ठगता है और मन ही मन प्रसन्न होता है कि मैंने दूसरे को ठग लिया । जैन दर्शन कहता है कि मनुष्य के सभी कार्य पूर्व के पुण्य उदय से सिद्ध होते हैं मायाचारिता से नहीं । छल करने वाला मनुष्य अपनी प्रामाणिकता खो देता है । आपके व्यक्तित्व पर कोई भरोसा नहीं करता । वर्तमान में  मायाचारिता को एक गुण समझा जा रहा है ।सरलता को वर्तमान समाज में मूर्खता कहा जाने लगा है । यह अशुभ संकेत है । वास्तविकता यह है कि मायाचारी व्यक्ति को पूरी दुनिया टेढ़ी दिखाई देती है , वह हमेशा सश

उत्तम मार्दव

दश धर्म एक झलक द्वितीय दिवस उत्तम मार्दव मृदुता का भाव मार्दव कहलाता है । उत्तम मार्दव का अर्थ है सच्ची श्रद्धा से युक्त मृदुता । यह धर्म आत्मा में मान कषाय के अभाव स्वरूप प्रगट होता है । जिस प्रकार क्रोध आत्मा का स्वभाव नहीं है उसी प्रकार मान भी आत्मा का स्वभाव नहीं है । निंदा के निमित्त से आत्मा में क्रोध की उत्पत्ति होती है और प्रशंसा के निमित्त से आत्मा में मान उत्पन्न हो जाता है । दोनों ही स्थिति खराब है । क्रोधी और मानी में सबसे बड़ा फर्क यह है कि जिस निमित्त से क्रोध उत्पन्न होता है क्रोधी उसे दूर भगाना चाहता है किन्तु जिस निमित्त से मान उत्पन्न होता है मानी उसे रखना चाहता है । मान के कारण व्यक्ति दूसरों को नीचा और स्वयं को ऊंचा दिखाना पसंद करता है । इसके लिए वह दूसरे की निन्दा करता है और खुद की प्रशंसा खुद ही करता फिरता है । स्थिति प्रतिकूल हो तो क्रोध उत्पन्न हो जाता है और अनुकूल हो तो मान उत्पन्न हो जाता है । शास्त्रों में मान को महा विष रूप कहा गया है ।  मनुष्य ज्ञान,पूजा,कुल, जाति,बल,ऋद्धि,तप और रूप का घमंड करता है और दूसरों को नीचा दिखाता है । मान मनुष्

उत्तम क्षमा

*दश धर्म एक झलक* प्रथम दिन *उत्तम क्षमा* जैन धर्म में दश लक्षण पर्व पर दस दिन तक आत्मा के दश धर्मों की विशेष उपासना की जाती है इसलिए इन्हें धर्म के दशलक्षण कहते हैं । व्यवहार से स्वरूप समझने के अभिप्राय से प्रत्येक दिन क्रम से एक एक धर्म का स्वरूप समझा और समझाया जाता है । पहला दिन *उत्तम क्षमा* का होता है । उत्तम शब्द से तात्पर्य है सम्यग्दर्शन अर्थात् सच्चा विश्वास । यह त्रिरत्नों में पहला रत्न कहलाता है । मनुष्य की आध्यात्मिक उन्नति के लिए यह पहली शर्त है । इसके बिना मोक्ष मार्ग प्रारंभ ही नहीं होता है । *आत्मा में जब क्रोध रूपी विभाव का अभाव होता है तब उसका क्षमा स्वभाव प्रगट होता है ।* हमने हमेशा से क्रोध को स्वभाव माना है यह हमारी सबसे बड़ी भूल है ।हम अक्सर कहते हैं कि अमुक व्यक्ति क्रोधी स्वभाव का है । क्रोध विकार है स्वभाव नहीं । स्वभाव है क्षमा जो आत्मा का स्वाभाविक धर्म है । जैन परम्परा में प्रत्येक धर्म की व्याख्या दो नयों के आधार पर की जाती है । अध्यात्म की दृष्टि से क्षमा स्वभाव वाली आत्मा के आश्रय से पर्याय में क्रोध रूप विकार की उत्पत्ति न

क्षमा का जीवन दर्शन

सादर प्रकाशनार्थ – क्षमावाणी पर्व  क्षमा का जीवन दर्शन प्रो अनेकांत कुमार जैन,नई दिल्ली         जैन परंपरा में पर्युषण दशलक्षण महापर्व के ठीक एक दिन बाद एक महत्वपूर्ण पर्व मनाया जाता है वह है- क्षमा पर्व |इस दिन श्रावक(गृहस्थ)और साधू दोनों ही  वार्षिक प्रतिक्रमण करते हैं |पूरे वर्ष में उन्होंने  जाने या अनजाने यदि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के किसी भी सूक्ष्म से सूक्ष्म जीव के प्रति यदि कोई भी अपराध किया हो तो उसके लिए वह उनसे क्षमा याचना करता है |अपने दोषों की निंदा करता है और कहता है-    ‘ मिच्छा मे दुक्क डं '  अर्थात् मेरे सभी दुष्कृत्य मिथ्या हो जाएँ | वह प्रायश्चित भी  करते  हैं |इस प्रकार वह क्षमा के माध्यम से अपनी आत्मा से सभी पापों को दूर करके ,उनका प्रक्षालन करके सुख और शांति का अनुभव करते हैं   |  श्रावक प्रतिक्रमण में  प्राकृत भाषा में एक गाथा है- ' खम्मामि सव्वजीवाणं सव्वे जीवा खमंतु मे । मित्ती मे सव्वभूदेसु ,  वेरं मज्झं ण केण वि । ' अर्थात मैं सभी जीवों को क्षमा करता हूं सभी जीव मुझे क्षमा करें। मेरा प्रत्येक वाणी के प्रति मैत्री भाव है ,  किसी के प्रत

हमारे अध्यात्म की हकीकत

हमारे अध्यात्म की हकीकत प्रायः दर्शन और अध्यात्म में अत्यंत डूबने वाले श्रावकों को सामान्य पूजा पाठ, जाप, अभिषेक ,विधि विधान ,क्रियाएं आदि हल्की लगने लगती हैं । इस विचार का प्रभाव उनकी क्रियाओं पर भी पड़ता है । या तो वे बहुत औपचारिक हो जाती हैं या वे इनसे कुछ नहीं होता ,कोई आनंद नहीं आता फिर भी समाज परिवार के दिखाने को करना पड़ता है .. ऐसा भाव विकसित होने लगता है । जब तक मनोबल मजबूत रहता है , लौकिक अनुकूलता रहती है तब तक यह सब ठीक भी बैठ जाता है । लेकिन कभी कभी वास्तविकता यह रहती है कि हम जितना ऊंचा बोलते हैं या पढ़ते हैं उतनी गहराई में रहते नहीं हैं । कभी कभी विकट उतार चढ़ाव मनोबल भी कमजोर कर देते हैं , उस समय मानसिक स्थिति ही ठीक नहीं रहती तो तत्त्व चिंतन भी नहीं कर पाता है । समय ,ग्रह, नक्षत्र , कर्मोदय आदि अनेक निमित्त भारी पड़ने लगते हैं , ऐसे समय में पंच परमेष्ठि की शरण , उनकी भक्ति पूजा अभिषेक जाप आदि उसके उपयोग को अन्यत्र भ्रमण करने से रोकती है । उसके जीवन में प्रतिकूलता की बारिश में छतरी का कार्य करती हैं । उसका मनोबल मजबूत करने में निमित्त बनती है । यह उसी प

मेरी अनुभूति परम विशुद्ध हो

समयसार पताका ३ मेरी अनुभूति परम विशुद्ध हो परपरिणतिहेतोमोहनाम्नो‌ऽनुभावा- दविरतमनुभाव्यव्याप्तिकल्माषिताया: । मम परमविशुद्धि: शुद्धचिन्मात्रमूर्ते र्भवतु समयसारव्याख्ययैवानुभूते:।। सरलार्थ - मेरी आत्मा वर्तमान में पर परिणति के कारणभूत मोह कर्म के उदय से निरंतर रागादि से व्याप्त होकर मलिन हो रही है, किन्तु वास्तव में मेरी अनुभूति परम शुद्ध ज्ञायक भाव से युक्त शुद्ध चैतन्य मूर्ति है । समयसार रूप शुद्ध जीव तत्त्व की इस व्याख्या से मेरी उस अनुभूति की स्वभाव जन्य परम विशुद्धता प्रगट हो - यही कामना है । अनेकांत पताका टीका - आचार्य अमृतचंद्र ग्रंथ का उद्देश्य और उसकी व्याख्या का फल बतलाते हुए कहते हैं कि समयसार की व्याख्या से मेरी शुद्ध चैतन्य अनुभूति की स्वाभाविक परम विशुद्धता प्रगट हो जाए , और सिर्फ मेरी ही नहीं बल्कि इसे जो भी पढ़े या सुने उसकी भी विशुद्ध अनुभूति प्रगट हो जाय , वह भी अपने ज्ञायक स्वभाव को प्राप्त हो जाए । क्यों कि वर्तमान में वह विशुद्ध परिणति विद्यमान तो है कि पर परिणति के कारण , जिसमें मोह कर्म सबसे बड़ा निमित्त बना हुआ है ,उसके उदय से मेरी आत्मा निरंतर र

ऐसी जिनवाणी सदा ही हृदय में बसे

समयसार पताका २   "ऐसी जिनवाणी सदा ही हृदय में बसे" अनन्तधर्मणस्तत्त्वं पश्यन्ती प्रत्यगात्मन‌‌:। अनेकान्तमयी मूर्तिर्नित्यमेव प्रकाशताम् ।। समयसार कलश - २ सरलार्थ - जिनेन्द्र भगवान् की वाणी अनेकान्तमयी है । क्यों कि‌ वह पर से भिन्न अपने स्वरूप में स्थित आत्मा के अनंतधर्मों को प्रकाशित करने वाली है । ऐसी जिनवाणी सदा काल प्रकाशित होती रहे । अनेकांत पताका टीका - द्वितीय कलश में आचार्य अमृतचंद्र  आशीर्वादात्मक मंगलाचरण करते हुए भावना भा रहे हैं कि जिनेन्द्र भगवान् की वाणी सदा काल सभी जीवों के हृदय में प्रकाशित होती रहे क्यों कि वर्तमान में एक मात्र वह ही है जो अनेकांत स्वरूप होने से आत्मा के विशुद्ध अनंत धर्मात्मक रहस्य को समझाने में समर्थ है। 

शुद्धात्मा को नमन (समयसार पताका १)

शुद्धात्मा को नमन समयसार पताका १ नमः समयसाराय स्वानुभूत्या चकासते। चित्स्वभावाय भावाय सर्वभावान्तरच्छिदे ।। समयसार कलश - १ सरलार्थ - मैं (आचार्य अमृतचंद्र ) उस शुद्ध आत्मा को नमन करता हूं जो स्वानुभूति से प्रकाशित होता है , शुद्ध चैतन्य स्वभाव वाला होने से अन्य समस्त जड़ पदार्थों से भिन्न पदार्थ है । अनेकांत पताका टीका - आचार्य कुंदकुंद द्वारा रचित समयसार ग्रंथ पर आत्मख्याति टीका लिखते हुए आचार्य अमृतचंद्र प्रथम कलश में मंगलाचरण के रूप में शुद्धात्मा को नमन कर रहे हैं । यहां समयसार का अर्थ समस्त जड़ पदार्थों से भिन्न चैतन्य स्वरूप शुद्धात्मा है । आचार्य कहते हैं कि मैं उस शुद्धात्मा को नमन कर रहा हूं जो वास्तव में स्वानुभूति से ही प्रकाशित हो पाता है अर्थात् अनुभव में आता है । अरिहंत और सिद्ध शुद्धात्म स्वरूप हैं ,तीर्थंकर शुद्धात्म स्वरूप हैं उन्हें तो नमन है ही किन्तु जो स्वयं अपनी अनुभूति से प्रकाशित होगा ऐसा समस्त जड़ कर्मों से भी निरपेक्ष अपने शुद्धात्मा को नमन है । यहां कर्मों से बद्ध आत्म तत्व स्वयं के कर्मों को विभाव रूप देखता हुआ, उन जड़ कर्मों के पा