सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

मेरी अनुभूति परम विशुद्ध हो

समयसार पताका ३
मेरी अनुभूति परम विशुद्ध हो
परपरिणतिहेतोमोहनाम्नो‌ऽनुभावा-
दविरतमनुभाव्यव्याप्तिकल्माषिताया: ।
मम परमविशुद्धि: शुद्धचिन्मात्रमूर्ते
र्भवतु समयसारव्याख्ययैवानुभूते:।।
सरलार्थ -
मेरी आत्मा वर्तमान में पर परिणति के कारणभूत मोह कर्म के उदय से निरंतर रागादि से व्याप्त होकर मलिन हो रही है, किन्तु वास्तव में मेरी अनुभूति परम शुद्ध ज्ञायक भाव से युक्त शुद्ध चैतन्य मूर्ति है । समयसार रूप शुद्ध जीव तत्त्व की इस व्याख्या से मेरी उस अनुभूति की स्वभाव जन्य परम विशुद्धता प्रगट हो - यही कामना है ।
अनेकांत पताका टीका -
आचार्य अमृतचंद्र ग्रंथ का उद्देश्य और उसकी व्याख्या का फल बतलाते हुए कहते हैं कि समयसार की व्याख्या से मेरी शुद्ध चैतन्य अनुभूति की स्वाभाविक परम विशुद्धता प्रगट हो जाए , और सिर्फ मेरी ही नहीं बल्कि इसे जो भी पढ़े या सुने उसकी भी विशुद्ध अनुभूति प्रगट हो जाय , वह भी अपने ज्ञायक स्वभाव को प्राप्त हो जाए । क्यों कि वर्तमान में वह विशुद्ध परिणति विद्यमान तो है कि पर परिणति के कारण , जिसमें मोह कर्म सबसे बड़ा निमित्त बना हुआ है ,उसके उदय से मेरी आत्मा निरंतर रागादि से व्याप्त रहता है और मलिन हो रहा है ।
समयसार की व्याख्या से मेरा राग दूर होगा , आत्मा पवित्र होगी और अपने ज्ञायक भाव का विशुद्ध अनुभव मुझे प्राप्त होगा ।

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

युवा पीढ़ी को धर्म से कैसे जोड़ा जाय ?

  युवा पीढ़ी को धर्म से कैसे जोड़ा जाय ?                                      प्रो अनेकांत कुमार जैन , नई दिल्ली    युवावस्था जीवन की स्वर्णिम अवस्था है , बाल सुलभ चपलता और वृद्धत्व की अक्षमता - इन दो तटों के बीच में युवावस्था वह प्रवाह है , जो कभी तूफ़ान की भांति और कभी सहजता   से बहता रहता है । इस अवस्था में चिन्तन के स्रोत खुल जाते हैं , विवेक जागृत हो जाता है और कर्मशक्ति निखार पा लेती है। जिस देश की तरुण पीढ़ी जितनी सक्षम होती है , वह देश उतना ही सक्षम बन जाता है। जो व्यक्ति या समाज जितना अधिक सक्षम होता है। उस पर उतनी ही अधिक जिम्मेदारियाँ आती हैं। जिम्मेदारियों का निर्वाह वही करता है जो दायित्वनिष्ठ होता है। समाज के भविष्य का समग्र दायित्व युवापीढ़ी पर आने वाला है इसलिए दायित्व - ...

द्रव्य कर्म और भावकर्म : वैज्ञानिक चिंतन- डॉ अनेकांत कुमार जैन

द्रव्य कर्म और भावकर्म : वैज्ञानिक चिंतन डॉ अनेकांत कुमार जैन जीवन की परिभाषा ‘ धर्म और कर्म ’ पर आधारित है |इसमें धर्म मनुष्य की मुक्ति का प्रतीक है और कर्म बंधन का । मनुष्य प्रवृत्ति करता है , कर्म में प्रवृत्त होता है , सुख-दुख का अनुभव करता है , और फिर कर्म से मुक्त होने के लिए धर्म का आचरण करता है , मुक्ति का मार्ग अपनाता है।सांसारिक जीवों का पुद्गलों के कर्म परमाणुओं से अनादिकाल से संबंध रहा है। पुद्गल के परमाणु शुभ-अशुभ रूप में उदयमें आकर जीव को सुख-दुख का अनुभव कराने में सहायक होते हैं। जिन राग द्वेषादि भावों से पुद्गल के परमाणु कर्म रूप बन आत्मा से संबद्ध होते हैं उन्हें भावकर्म और बंधने वाले परमाणुओं को द्रव्य कर्म कहा जाता है। कर्म शब्दके अनेक अर्थ             अंग्रेजी में प्रारब्ध अथवा भाग्य के लिए लक ( luck) और फैट शब्द प्रचलित है। शुभ अथवा सुखकारी भाग्य को गुडलक ( Goodluck) अथवा गुडफैट Good fate कहा जाता है , तथा ऐसे व्यक्ति को fateful या लकी ( luckey) और अशुभ अथवा दुखी व्यक्ति को अनलकी ( Unluckey) कहा जाता...

युवा पीढ़ी का धर्म से पलायन क्यों ? दोषी कौन ? युवा या समाज ? या फिर खुद धर्म ? पढ़ें ,सोचने को मजबूर करने वाला एक विचारोत्तेजक लेख ••••••••••••👇​

युवा पीढ़ी का धर्म से पलायन क्यों ? दोषी कौन ? युवा या समाज ? या फिर खुद धर्म ? पढ़ें ,सोचने को मजबूर करने वाला एक विचारोत्तेजक लेख ••••••••••••👇​Must read and write your view