शुद्धात्मा को नमन
समयसार पताका १
नमः समयसाराय स्वानुभूत्या चकासते।
चित्स्वभावाय भावाय सर्वभावान्तरच्छिदे ।।
चित्स्वभावाय भावाय सर्वभावान्तरच्छिदे ।।
समयसार कलश - १
सरलार्थ -
मैं (आचार्य अमृतचंद्र ) उस शुद्ध आत्मा को नमन करता हूं जो स्वानुभूति से प्रकाशित होता है , शुद्ध चैतन्य स्वभाव वाला होने से अन्य समस्त जड़ पदार्थों से भिन्न पदार्थ है ।
अनेकांत पताका टीका -
आचार्य कुंदकुंद द्वारा रचित समयसार ग्रंथ पर आत्मख्याति टीका लिखते हुए आचार्य अमृतचंद्र प्रथम कलश में मंगलाचरण के रूप में शुद्धात्मा को नमन कर रहे हैं । यहां समयसार का अर्थ समस्त जड़ पदार्थों से भिन्न चैतन्य स्वरूप शुद्धात्मा है । आचार्य कहते हैं कि मैं उस शुद्धात्मा को नमन कर रहा हूं जो वास्तव में स्वानुभूति से ही प्रकाशित हो पाता है अर्थात् अनुभव में आता है । अरिहंत और सिद्ध शुद्धात्म स्वरूप हैं ,तीर्थंकर शुद्धात्म स्वरूप हैं उन्हें तो नमन है ही किन्तु जो स्वयं अपनी अनुभूति से प्रकाशित होगा ऐसा समस्त जड़ कर्मों से भी निरपेक्ष अपने शुद्धात्मा को नमन है । यहां कर्मों से बद्ध आत्म तत्व स्वयं के कर्मों को विभाव रूप देखता हुआ, उन जड़ कर्मों के पार, उन जड़ कर्मों से हमेशा अत्यंत भिन्न रहने वाला अपना ही शुद्ध स्वरूप देखकर ,अपने ही शुद्धात्म स्वरूप को पाने के लिए उसे नमन कर रहा है ।
डॉ अनेकांत कुमार जैन , नई दिल्ली
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