*जगत की निंदा प्रशंसा से कुछ नहीं होता*
प्रो.अनेकान्त कुमार जैन ,नई दिल्ली
हममें से अधिकांश लोग लोक की सारहीन निंदा या प्रशंसा के चक्कर में आकर अपना बहुमूल्य मन,जीवन और समय व्यर्थ गवां दिया करते हैं ।
संसार ओछे लोगों का साम्राज्य है । यहाँ चप्पे चप्पे पर ऐसे लोग मिल जाते हैं जो निंदा के द्वारा आपके मनोबल को तोड़ने का प्रयास करते हैं या फिर व्यर्थ की प्रशंसा करके आपके मजबूत मन को गुब्बारे की तरह हद से ज्यादा फुला कर फोड़ने की कोशिश में रहते हैं ।
यदि हम जगत की इन दोनों प्रतिक्रियाओं से प्रभावहीन होकर ऊपर उठने की कला नहीं सीख पाए तो कभी भी अपना कल्याण नहीं कर सकते हैं ।
भेद विज्ञान एक ऐसी कला है जो हमें इन छुद्र चीजों से प्रभावित होने से बचाये रखती है ।
वर्तमान में इस कला की आवश्यकता इसलिए ज्यादा है कि सोशल मीडिया पर बुलिंग और मीम की शिकार नई पीढ़ी उम्र की उठान पर ही घनघोर हताशा और निराशा की शिकार है । आत्ममुग्धता के इस भयानक दौर में न तो निंदा सहने की क्षमता बची है और न ही प्रशंसा को पचाने की पाचन शक्ति । अब तो हमने अपने मन के महल की सारी चाबियां दूसरों के हाथों में सौंप दी हैं ।
अपने मन को इस प्रकार के दुष्प्रभावों से बचाने का हमारे पास सम्यक्त्व पूर्ण चिंतन और ज्ञान का ठोस आधार होना चाहिए । भेद विज्ञान का आध्यात्मिक चिंतन इसमें हमारी बहुत बड़ी मदद कर सकता है ।
हमें अपना आत्म मूल्यांकन करते हुए दृढ़ता पूर्वक विचार करना चाहिए कि
मैं किसी के निंदा करने पर निन्दनीय नहीं हो जाता और न किसी के प्रशंसा करने से प्रशंसनीय होता हूँ।
जब अपने सात्विक लक्ष्य के प्रति मेरा उत्साह कम हो ,मैं अपने आत्म कल्याण की भावना से दूर हो जाऊं , मेरे भीतर क्रोध मान माया लोभ की प्रबलता बढ़ने लगे ,हिंसा झूठ चोरी कुशील परिग्रह के भाव तीव्रता पर हों , वीतराग भगवान् की भक्ति का भाव न आ रहा हो, तब सारा जगत भी मेरी प्रशंसा करे तो भी मेरी परिणति निन्दनीय है । मैं वास्तव निंदा का ही पात्र हूँ ।
किंतु
जब मुझमें अपने सात्विक लक्ष्य के प्रति उत्साह हो , वीतरागी भगवान् के प्रति भक्ति भाव बढ़ता रहे ,शील का पालन निरंतर हो रहा हो ,स्वाध्याय में मन लगता हो ,संयम की साधना का पुरुषार्थ हो,आत्मचिंतन बढ़े ,स्वपर कल्याण का भाव विकसित होता रहे, सभी जीवों के प्रति करुणा और दया का भाव विकसित होता हो तब सारी दुनिया भी मेरी निंदा करे तो भी मेरी परिणति प्रशंसनीय है।
वैसे भी किसी की प्रशंसा या निंदा हमें संवर या निर्जरा नहीं देती है ।
हम धरती पर मनुष्य के रूप में ज्यादा से ज्यादा 80-100 साल के लिए पैदा हुए हैं ,उसमें भी आधा जीवन दूसरों के इन्हीं ख्यालों के ताने बाने में व्यर्थ चला गया । दूसरों की नज़रों में खुद को तौलते तौलते हम अपनी नजरों में अपना माप लगाना ही भूल गए ।
अरे !कोई मेरी निंदा करे या प्रशंसा, इससे मेरा क्या प्रयोजन ? मैंने अब ये भव अपने अनंत भव सुधारने में लगाने का पुरुषार्थ प्रारम्भ किया है।
सम्यग्ज्ञान का फल है - हेय,उपादेय और उपेक्षा । पर द्रव्य मेरे लिए हेय है । अपनी शुद्धात्मा उपादेय है और जगत की निंदा प्रशंसा आदि क्षणिक प्रतिक्रियाएं मेरे लिए उपेक्षणीय है । आज के वातावरण के अनुसार दूसरों द्वारा की गई हर प्रतिक्रिया से बचने के लिए एक नए मंत्र का जाप प्रसिद्ध हो रहा है -
*ॐ इग्नोराय नमः*, सर्वशान्तिं कुरु कुरु स्वाहा ।
29/06/2025
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