विश्व योग दिवस -
*बच्चे योगी होते हैं और बड़े प्रतियोगी*
(*जो पीछे छूट गए हैं उन्हें साथ जोड़ना योग है*)
प्रो अनेकान्त कुमार जैन ,नई दिल्ली
योग शब्द का मूल अर्थ है जोड़ना । जहाँ बुद्धि पूर्वक जोड़ा जाय वह योग है और जो स्वयं ही जुड़ जाए वह संयोग है ।
हम जीवन में आगे बढ़ते चले जाते हैं । कभी कभी आगे बढ़ने की होड़ में इतने आगे निकल जाते हैं कि जिनके साथ चलना शुरू किया था ,उनका भी ध्यान नहीं रखते कि वे अभी भी साथ हैं या नहीं ।
मुझे स्मरण है जब मेरा बेटा नर्सरी में पढ़ता था,विद्यालय में खेल कूद प्रतियोगिता में एक रेस का आयोजन हुआ । नन्हें मुन्हें बच्चों को समझाया गया कि तुम्हें अपने दोस्तों से आगे निकल कर प्रथम आना है । ये भागने की प्रतियोगिता है ,जो जितना आगे रहेगा वही सफल होगा । दौड़ शुरू हुई , सीटी बजी तो अधिकांश ने दौड़ना ही शुरू नहीं किया । कुछ भागे तो उन्हें वापस लाया गया । फिर समझाया गया । फिर सीटी बजी ,उन्हें ढकेला गया तब वे दौड़े । मेरा बेटा थोड़ा आगे आ गया ,मैंने देखा वह अचानक रुक भी गया । हम चिल्लाए ,रुक क्यों गए ? भागो ! उसने हमारी नहीं सुनी ,वह वापस आने लगा । हमें उसकी मूर्खता पर हंसी आई कि वह समझा नहीं प्रतियोगिता किसे कहते हैं । फिर देखा कि वह वापस इसलिए आया कि उसका दोस्त पीछे रह गया ,जिसके साथ वह टिफिन खाता है ,खेलता है ,पढ़ता है ,बातचीत करता है ,वह पीछे राह गया ।
वह वापस उसके पास आया और बोला साथ चलो, उसने उसे साथ जोड़ा और फिर दौड़ा । दोनों लक्ष्य तक पहुंचे जरूर लेकिन साथ में और थोड़ा बाद में । वो जो प्रथम आया ,लक्ष्य तक पहले पहुंचा वह अकेला पहुंचा । अकेला पड़ गया । पुरस्कार लेने भी अकेले गया ।
शुरू में हम निराश हुए कि बेटा प्रतियोगिता को नहीं समझा लेकिन बाद में फक्र हुआ कि उसने ' योग' को समझा । सच है बच्चे योगी होते हैं और बड़े प्रतियोगी ।
समाज में कई संस्थाएं ऐसी हैं जो प्रशासनिक सेवा हेतु कोचिंग देती हैं । वे भी प्रवेश परीक्षा के द्वारा प्रतिभाशाली का चयन करती हैं । मेरिट में आने वालों का समाज अभिनंदन करता है । ये बहुत अच्छा है । होना ही चाहिए ।
किंतु उठतों को उठाना कोई खास समाज सेवा नहीं है । यह योग नहीं है ।
समाज सेवा है वंचितों और पिछड़ों को उठाना ।
कोई एक दो ऐसे भी संगठन या संस्थान होने चाहिए जो बहुत सुविधा और शैक्षणिक वातावरण सम्पन्न हों और जिनके यहां प्रवेश में मेरिट नीचे से शुरू होती हो ,यानि जिसके मार्क्स जितने कम हों उसे प्रवेश में पहली प्राथमिकता दी जाय । असफल लोगों का अभिनंदन किया जाय कि तुम्हें जिंदगी से निराश होने की आवश्यकता नहीं है । ये असफलता जीवन का अंत नहीं है । तुम अयोग्य नहीं हो । हम तुम्हें योग्य समझते हैं । हम तुम्हें पास समझते हैं । हमें तुम्हारी चिंता है ,तुम राष्ट्र समाज और परिवार के लिए एक महत्त्वपूर्ण घटक हो ।
उसका ध्येय वाक्य होना चाहिए -
' अयोग्य: पुरुषो नास्ति योजकस्तत्र दुर्लभः '
पूरा श्लोक है -
अमन्त्रमक्षरं नास्ति नास्ति मूलमनौषधम् ।
अयोग्यः पुरुषो नास्ति योजकस्तत्र दुर्लभः ॥
बिना मन्त्रशक्ति के कोई अक्षर नहीं ,बिना औषधि गुण के कोई पौधा नहीं; बिना गुण के कोई व्यक्ति नहीं;परन्तु ऐसे व्यक्ति दुर्लभ हैं,जो हर वस्तु में गुणों को देख उन्हें सही जगह उपयोग में ला सके।
कोई उन्हें समझाने वाला हो कि
आप गलत नहीं हो , बल्कि गलत जगह पर हो ।
प्रतियोगिता के इस भीषण काल में मछली को इसलिए अयोग्य समझा जा रहा है क्यों कि वह पेड़ पर चढ़ना नहीं जानती । ज्ञान की कद्र नहीं है अज्ञान की परीक्षा ले रहे हैं ।
कोटा जैसे अनेक शहरों में कोचिंग माफिया के चंगुल में कितने प्रतिभाशाली नौनिहाल आत्महत्या कर रहे हैं , खुद को देश समाज और परिवार के बने बनाये फ्रेम में फिट करने की कोशिश में जो फिट हो जाते हैं उनका सिक्का चल जाता है और जो नहीं फिट हो पाते हैं वे स्वयं को हीन समझकर निराशा मैं खुद खुशी कर लेते हैं । ये भविष्य निर्माण किया है हमने उनका ?
उन्हें साथ लेकर चलने वाला कौन सा समाज है ? जीते हुए को माला पहनाना संयोग है और हारे हो जीत का भरोसा दिलाते हुए साथ लेकर चलना 'योग' है ।
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आचार्य - जैन दर्शन विभाग,श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय ,नई दिल्ली-16
9711397716
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